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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न1. मिट्टी की उर्वरता बनाये रखने के लिये खाद तथा उर्वरक के उपयोग की तुलना कीजिये।
उत्तर- यदि हम खेत में केवल खाद डालते हैं तो खेत की उर्वरा शक्ति धीरे-धीरे बढ़ती है, लेकिन तुरंत असर नहीं होता। लेकिन उर्वरा शक्ति लम्बे समय तक बनी रहती है।
यदि केवल उर्वरकों का ही प्रयोग किया जाता है तो फसल का उत्पादन अधिक होगा, क्योंकि उर्वरक तुरंत ही पोषक तत्व प्रदान कर देते हैं। लेकिन उर्वरा शक्ति लम्बे समय तक नहीं बनी रहती है।
2. पादप-संकरण किस प्रकार फसल की नयी किस्में विकसित करने में सहायक होता है ?
उत्तर- पादप-संकरण के फलस्वरूप विकसित नवीन समुन्नत फसल किस्म को संकर या हाइब्रिड कहते हैं। संकर पौधों में दोनों जनक पौधों के वांछित गुणों का भली-भाँति सम्मिश्रण होता है। संकर पौधे अपने जनक पौधों से गुणों में सर्वथा भिन्न नहीं होते वरन् समुन्नत भी होते हैं। अतः संकर पौधे को फसल की समुन्नत किस्में कहते हैं। पादप-संकरण देश के फसल-सुधार कार्यक्रम का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है।
समुन्नत किस्म के फसलों की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपयोगी गुणों, जैसे उतपादन, उत्पादन की गुणवत्ता, उर्वरक के प्रति अनुरूपता, समुन्नत किस्म के फसलों की प्राप्ति के लिये विभिन्न उपयोगी गुणों, जैसे उच्च उत्पादन, उर्वरक के प्रति अनुरूपता, रोग प्रतिरोधक क्षमता आदि का चयन किया जाता है। इन गुणोंवाले जनकों के बीच संकरण करवाया जाता है जो अन्तराकिस्मीय (पौधों की विभिन्न स्पीशीज के बीच होनेवाला संकरण), अन्तरास्पीशीज (पौधों के दो विभिन्न जेनेरा के बीच होनेवाला संकरण) हो सकता है। इन संकरणों के अलावे ऐच्छिक गुणों के लिये जिम्मेवार DNA के खण्ड या जीन को एक पौधे से दूसरे पौधे में प्रतिरोपित कर भी फसलों की नयी किस्में विकसित की जाती हैं। इसके फलस्वरूप ऐसी आनुवंशिकीय रूपांतरित फसल की प्राप्ति हो सकती है जो मौजूद वातावरण तथा जरूरतों के अनुकूल हो। अतः पादप संकरण फसल की नयी किस्म विकसित करने में सहायक होता है।
3. नत किस्मों के गुण और दोषों की तुलना करें। ।
उत्तर- फसल की समुन्नत किस्मों के गुण
(i) उच्च उपज (High yield)—समुन्नत किस्मों से पारम्परिक किस्मों की अपेक्षा बहुत अधिक पैदावार मिलती है। इसलिये इन किस्मों को उच्च उपज वाली किस्में या समुन्नत प्रजातियाँ कहते हैं।
(ii) पूर्व परिपक्वता (Early maturation)—संकर किस्में अपेक्षाकृत कम समय में तथा एक साथ पककर तैयार हो जाती हैं, इससे खेत जल्दी खाली हो जाते हैं और किसान उसमें दूसरी फसल लगाकर अतिरिक्त मुनाफा कमा सकता है।
(iii) खाद का बेहतर असर (Better response to fertilizers) रासायनिक उर्वरकों ) का प्रभाव समुन्नत किस्मों पर अपेक्षाकृत काफी अधिक होता है, इसीलिये इनसे पैदावार भी बहुत अधिक मिलती है।
(iv) वांछित गुणों की उपलब्धता (Availability of desired character)- चूंकि संकरण के दौरान अच्छे गुणों वाले पौधों का चयन किया जाता है। अतः समुन्नत किस्मों में वांछित गुणों का सम्मिश्रण रहता है, जैसे रोगाणु प्रतिरोधी क्षमता, दाल में प्रोटीन की गुणवत्ता, तिलहन , में तेल की गुणवत्ता आदि। में
(v) बौनी प्रजातियाँ (Dwarf varieties)– समुन्नत किस्में प्रायः बौनी होती हैं, जिसके कारण ये अपेक्षाकृत अधिक मजबूत होती हैं, फलतः मौसम की प्रतिकूल स्थितियों, जैसे तेज हवा के झोंके, तेज बारिश आदि का सामना करने में ये अधिक सक्षम होती हैं। इसके अलावे बौने पौधे कम पोषकों का उपयोग करते हैं।
(vi) विस्तृत अनुकूलनशीलता (Wider adaptability)- समुन्नत किस्में भिन्न-भिन्न वातावरण के अनुकूल होती हैं और आसानी से अपने को बदलती हुयी परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लेती हैं।
फसलों की समुन्नत किस्मों के दोष
(i) उच्च-कृषीय निवेश (High-agricultural inputs)- समुन्नत किस्मों के इस्तेमाल से फसल तैयार करने के लिये पारम्परिक किस्मों के मुकाबले अधिक कृषीय निवेशों को आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये इन किस्मों को अपेक्षाकृत अधिक उर्वरक, अधिक सिंचाई आदि चाहिये।
(ii) कम चारे की प्राप्ति (Less fodder)- समुन्नत किस्मों से देशी किस्मों की अपेक्षा कम चारा उपलब्ध होता है, क्योंकि ये छोटे आकार के होते हैं।
(iii) खरपतवार-नियंत्रण (Weed control)- इनमें खरपतवार नियंत्रण की अधिक आवश्यकता पड़ती है।
4. मिश्रित फसल.उत्पादन के लिये फसलों के चयन में किन सिद्धांतों का पालन किया जाता है?
उत्तर- एक ही भूखण्ड पर दो या ज्यादा फसल एक साथ मिलाकर उगाने की प्रथा मिश्रित फसल उत्पादन कहलाता है। इसमें एक ही भूखण्ड पर दो या दो से अधिक फसलों को साथ-साथ उगाया जाता है, जैसे गेहूँ और सरसों, मूंगफली और सूर्यमुखी, गेहूँ और चना, मकई और उर्दबीन, सोयाबीन और अरहर, जौ और चिक मटर आदि। इस प्रथा द्वारा फसल को पूर्ण विफलता से बचाया है। । मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में इस प्रकार की खेती की जाती है जहाँ वर्षा की कमी रहती है। इसके अंतर्गत सामान्यतः धान्य फसल (cereal crop) के साथ फलीदार फसल (leguminous crop) के सिद्धान्त का चयन किया जाता है।
5. फसल-चक्रण क्या है ? किस प्रकार यह मृदा की उर्वरता बनाये रखती है ?
उत्तर- एक ही भूमि पर बदल-बदलकर अनुक्रम में फसल उगाने की प्रणाली को फसल-चक्रण जाता है।
अनाज की फसल से मिट्टी के तत्वों की कमी हो जाती है। इसके लिये अगली फसल दाल की उगानी चाहिये। क्योंकि दाल की जड़ों में ग्रंथियाँ या गाँठ पाई जाती हैं। इन गाँठों में राइजोबियम नामक जीवाणु पाये जाते हैं, जो वायुमण्डल की नाइट्रोजन को स्थिर करते हैं, अर्थात् नाइट्रोजन को नाइट्रोजन के यौगिकों में परिवर्तित करते हैं। इस प्रकार मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ जाती है, जो कि पौधों की वृद्धि के लिये एक आवश्यक वृहद् पोषक है।
6. खरपतवार नियंत्रण के तरीकों की चर्चा करें।
उत्तर- खरपतवार को निम्नलिखित तरीकों से नियंत्रित किया जाता है
(i) यांत्रिक विधि- इसमें खरपतवार को खुरपी से, हाथ से, जोत से जलाकर तथा बाढ़ से निकाला जाता है।
(ii) कर्षण विधि- बीज तैयार करना, समय पर फसल बोना और फसलचक्र।
(ii) रासायनिक विधि- खरपतवारनाशक रसायनों, जैसे—इटाजीन, 214-डी०, फ्लूक्लोरैलीन, आइसो-प्रोट्यूरान इत्यादि का छिड़काव करके।
(iv) जैविक विधि- काँटेदार खरपतवार (नागफनी) को कोकीनीयल कीड़ों द्वारा तथा जलीय खरपतवार को फिश ग्रास कार्य द्वारा।
7. भण्डारण के दौरान खाद्य पदार्थों को नुकसान पहुंचानेवाले विभिन्न जैविक और अजैविक कारकों का वर्णन करें।
उत्तर- भण्डारण के दौरान खाद्य-पदार्थों को नुकसान पहुंचानेवाले विभिन्न जैविक और अजैविक कारक ये हैं
जैविक कारक- खाद्य-पदार्थों के भण्डारण अवधि में सबसे अधिक नुकसान सूक्ष्मजीवों, कीटों तथा जंतुओं से होता है। सूक्ष्मजीव जैसे खमीर, फफूंदी, कवक और जीवाणु के अलावे पीड़क कीट जैसे लाल अन्न-भृग, दाल-भुंग, धान-घुन, मकड़े आदि पशु, जैसे चूहे, खरगोश, बकरी आदि एवं पक्षियों, जैसे गौरैया, तोता, मैना आदि द्वारा खाद्यान्नों की मुख्य रूप से क्षति होती है।
अजैविक कारक- भण्डार के मध्य खाद्यान्नों को प्रभावित करनेवाले कुछ प्रमुख अजैविक कारक निम्नलिखित हैं- -
(i) नमी- खाद्यान्नों में नमी की मात्रा अधिक-से-अधिक 14% होनी चाहिये। परिपक्व खाद्यान्न में 16-18% तक नमी रहती है, जिसे भण्डारण के पहले सुखाकर 14% से कम करना जरूरी है। अगर खाद्यान्न में नमी अधिक रह गयी तो सूक्ष्मजीवों, कवकों आदि की वृद्धि और क्रियाशीलता की गति बढ़ जाती है, जो हानिकारक है। इससे अनाजों के वजन तथा अंकुरण क्षमता में कमी आती है। उत्पादन की कीमत एवं गुणवत्ता का हास होता है।
(ii) तापमान– खाद्यान्नों का सुरक्षित भण्डारण अपेक्षाकृत कम तापमान पर होना चाहिये अन्यथा सूक्ष्मजीव एवं कीटों की वृद्धि एवं क्रियाशीलता बढ़ जाती है। फलस्वरूप खाद्यान्न अपनी गुणवत्ता खो देते हैं और मानव के उपयोग के योग्य नहीं रह पाते।
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