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प्रशन 13:- नातेदारी के प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:- समाज में मानव अकेला नहीं होता। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य अपने व्यक्तियों से घिरा होता है तथा उसका एक से अधिक व्यक्तियों के साथ संबंध होता है जिस में सर्वाधिक महत्वपूर्ण संबंध विवाह बंधन और रक्त संबंध के आधार पर संबंधित व्यक्तियों के साथ होता है। इसमें भी निकट तथा दूर के घनिष्ठ तथा और घनिष्ठ, मधुर तथा कठोर प्रत्येक प्रकार के संबंधियों की समाविष्ट ही होती है जो सामाजिक अंतः क्रिया के परिणाम स्वरुप होते हैं। चार्ल्स विनीत ने लिखा है कि नातेदारी में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे संबंध आ सकते हैं जो कि अनुमानित और रक्त संबंधों पर आधारित हो।
** नातेदारी को दो श्रेणियों में विभक्त किया जाता है, जो निम्नलिखित है---
1.
रक्त संबंधी नातेदारी
2.
विवाह संबंधी नातेदारी
1. रक्त संबंधी नातेदारी:- इसमें पति पत्नी और उनके संबंध से उत्पन्न उनके सभी रिश्तेदार आ जाते हैं। विवाह उपरांत एक पुरुष केवल पति ही नहीं वरन बहनोई, दमाद , जीजा, फूफा, नंदोई , मौसा आदि भी बन जाता है। उसी प्रकार एक स्त्री भी विवाह उपरांत पत्नी बनने के अलावा पुत्र वधू,
भाभी, जेठानी, देवरानी, चाची, मामी आदि भी बन बन जाती है।
2. रक्त संबंधी नातेदारी:- इसके अंतर्गत वे लोग आते हैं जो सामान रक्त के आधार पर एक दूसरे से संबंधित हो उन विराम उदाहरण स्वरूप माता-पिता तथा उनके बाल बच्चों में समान रक्त संबंध माना जाता है चाहे वह जैवकीय या प्राणी शास्त्रीय रूप से रक्त संबंधी हो अथवा गोद लिए गए हो। जनजातियों में जहां पिता का कोई निश्चय नहीं वहां उस व्यक्ति और बालक में रक्त संबंध की रिश्तेदारी मानी जाती है जो किसी सामाजिक संस्कार द्वारा बालक का पिता बन जाता है।
प्रशन 14:-- नातेदारी की श्रेणियों की व्याख्या करें।
या:- नातेदारी व्यवस्था की विवेचना करें।
उत्तर:- (1) प्रथम कोटि का संबंध या प्राथमिक नातेदारी:- सम्मिलित अथवा समान रुधिर संबंधियों में प्राथमिक नातेदारी वह होती है जिनका एक दूसरे से प्रत्यक्ष एवं सीधा संबंध होता है। जैसे एक पुत्र का अपने पिता से सीधा संबंध होता है। जैसे
एक पुत्र का अपने पिता से सीधा संबंध होता है।
(2)
द्वितीय कोटि के संबंध:-- द्वितीय कोटि के संबंध वे होते हैं जिनका संबंध हमारे साथ प्रथम कोटि के संबंधित द्वारा होता है। उदाहरण के लिए हमारे चाचा और हमारा इनसे (2) (2) द्वितीय कोटि के संबंध:- द्वितीय कोटि के संबंध वे होते हैं जिनका संबंध हमारे साथ प्रथम कोटि के
संबंधित द्वारा होता है। उदाहरण के लिए हमारे चाचा और हमारा इनसे संबंध पिता के
द्वारा होता है, हमारे चाचा और पिता का प्राथमिक संबंध है। हमारे पिता
का भी हमसे प्राथमिक संबंध है। इस प्रकार हमारे पिता हमारे प्रथम कोटी के और हमारे चाचा हमारे द्वितीय
कोटि के समान संबंधी हुए।
(3) तृतीय कोटि के संबंध:- इसी प्रकार हमारे प्रथम कोटि के नातेदारी के द्वितीय कोटी के नातेदारी अथवा हमारे द्वितीय कोटि के नातेदारी के प्रथम कोटि के नातेदारी हमारी स्वयं को नातेदारी की दृष्टि से तृतीय श्रेणी के नातेदार माने जाएंगे। हमारे पिता के चचेरे भाई हमारे तृतीय कोटि के नातेदार हुए। हमारे चचेरे भाई की स्त्री से हमारा तृतीय श्रेणी का संबंध हुआ।
(4) दूर के संबंधी :- तृतीयक संबंधी के प्राथमिक, द्वितीयक आदि संबंधी कर्ता के दूर के संबंधी कहलाते हैं।
प्रशन 15:-- बाजार किस प्रकार एक सामाजिक संस्था है?
उत्तर:- समाज की सभी अवस्थाओं में मनुष्य, वस्त्र, निवास और सुरक्षा की आवश्यकता अनुभव कर रहा है। मनुष्य सभी आवश्यकताओं की पूर्ति अपनी इच्छा अनुसार नहीं कर सकता है। समाज के सदस्य के रूप में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति वह परंपराओं, नियमों और कार्य प्रणालियों के अनुसार करता है। संस्था का अर्थ मान्य नियमों और कार्य पद्धति से हैं। किसी भी प्रकार के विनियम में बाजार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था है। बाजार वह स्थान है जहां वस्तुओं के क्रेता एवं विक्रेता एकत्रित होकर अपनी अपनी वस्तु खरीदने व बेचने का कार्य करते हैं।
बाजार के अनेक पक्ष है,
जिन से ज्ञात होता है कि सभी समाजों की विशेषता में बाजार महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अर्थशास्त्री जहां यह मानते हैं कि बाजार और अर्थव्यवस्था से व्यक्ति का सामाजिक जीवन प्रभावित होता है वही दुर्खीम, मैक्स वेबर, वेबलिन ने स्पष्ट किया है कि विभिन्न सामाजिक मूल्य, धार्मिक विश्वास और परिवारिक दशाएं आर्थिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करती हैं। इसी रूप में समाजशास्त्री बाजार को एक सामाजिक संस्था के रूप में स्पष्ट करते हैं। अधिकतर कृषक समाजों में आवधिक बाजारों की परंपरा रही है। आवधिक बाजार कृषक तथा जनजातीय संस्कृति के द्दोतक है। साप्ताहिक आधार पर लगने वाले बाजारों में आसपास के गांव के लोग एकत्र होते हैं जो वहां आकर अपने कृषि तथा वन उत्पादों एवं अन्य शिल्पगत वस्तुओं को बेचते हैं तथा गांव में उपलब्ध ना होने वाली मशीनों से निर्मित वस्तुओं और अन्य आवश्यकता की सामग्री को खरीदते हैं।
सप्ताहिक हाट या बाजार का ग्रामीण भारत में एक सामान्य दृश्य होता है। पहाड़ी और जंगली इलाकों में (विशेषकर, जहां आदिवासी बसे होते हैं) जहां अधिवास दूरदराज तक होता है उन विराम सड़कें और संचार भी जीर्ण शीर्ण होता है। अर्थव्यवस्था भी अपेक्षाकृत अविकसित होती है। ऐसे में सप्ताहिक बाजार उत्पादों के आदान-प्रदान के साथ-साथ सामाजिक मेल मिलाप की एक प्रमुख सामाजिक संस्था बन जाता है। स्थानीय लोग बाजार में अपनी खेती की उपज या जंगल से लाए गए पदार्थों को व्यापारियों को बेचते हैं जो इन्हें कस्बों में ले जाकर बेचते हैं और इन पैसों से आवश्यक वस्तुएं (जैसे नमक एवं खेती के औजार) और उपभोग की वस्तुएं (जैसे चूड़ियां और गहने) खरीदते हैं।
प्रशन 16:- जनजाति क्या है? जनजाति के प्रमुख समस्याओं की व्याख्या करें।
उत्तर:- बिहार की जनजातियों की विस्तृत एवं जटिल समस्याएं उनके आचार विचार र,हन सहन, रीति रिवाज ,सभ्यता ,संस्कृति, धर्म एवं ललित कला आदि सभी से संबंधित है। बाहर संस्कृति के प्रभाव से वे अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं,
आर्थिक क्षेत्र में अनेक प्रकार के शोषण का शिकार बन रहे हैं, ऋण ग्रस्त होकर महाजनों के चंगुल में फंसते जा रहे हैं,
पर्याप्त एवं पौष्टिक भोजन नहीं पाने से अनेक प्रकार के रोगों का शिकार होते हैं और अपने स्वास्थ्य को नष्ट करते जा रहे हैं,
अपना आत्मनिर्भर और स्वावलंबी जीवन को खोकर नौकरी की खोज में इधर-उधर या तो मारे मारे भटक रहे हैं या श्रम को कौड़ी के मूल्य पर बेच रहे हैं और वह औद्योगिक केंद्रों से प्रलोभनों,शराब ,वेश्यावृत्ति आदि का शिकार बन रहे हैं या अपने परदेस में रहकर चरम निर्धनता के कारण यूपीए के लिए अपने ही समाज में यौन व्यभिचारों को आमंत्रित कर रहे हैं। इन समस्त समस्याओं को सर्वश्री मजूमदार एवं मदान के अनुसार दो भागों में बांटा जा सकता है---
(1) प्रथम वे समस्याएं जो भारत की जनजातियों और अन्य सभी ग्रामीण समुदाय में एक सी है
(2) द्वितीय वे समस्याएं हैं जो केवल जनजाति समाज में ही पाई जाती हैं।
1. आर्थिक समस्याएं:- भारतीय जनजातियों के जीवन की सर्वाधिक प्रमुख समस्या आर्थिक है अर्थात पेट भर खाने को अनाज, तन ढकने के लिए कपड़े और रहने के लिए मकान की समस्या है।
2. सामाजिक समस्याएं:- सभ्य समाज के संपर्क में आने से अपने समाज के लिए अनेक सामाजिक समस्याओं को उत्पन्न कर दिया है जो निम्नांकित प्रमुख है–——
(1)
बाल विवाह (2) कन्या मूल्य (3) युवाओं का पतन (4) वेश्यावृत्ति
3. संस्कृतिक समस्याएं:- जनजातियों के जीवन में पहाड़ी संस्कृतियों ने अनेक गंभीर संस्कृतिक समस्याओं को उत्पन्न कर दिया है जिनके कारण उनकी संस्कृति आज एक संकट में परिस्थिति से गुजर रही है। यह समस्याएं मुख्यता निम्नलिखित हैं---
4. स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं:- जनजातियों के जीवन में कुछ परिस्थिति संबंधी कारणों से और कुछ बाहरी संस्कृतियों के संपर्क में आने से अनेक स्वस्थ संबंधित समस्या उत्पन्न हो गए हैं जिनमें निम्नांकित प्रमुख है---
(1)
खानपान, (2) चिकित्सा का अभाव:-- पौष्टिक भोजन की कमी और अन्य वातावरण संबंधी कारणों से जनजातियों के लोग हैजा, चेचक, तपेदिक आदि अनेक प्रकार के भयंकर रोगों के शिकार बनते रहते हैं।
प्रशन 17:-- आधुनिक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति का वर्णन करें।
उत्तर:- स्त्रियों की अवस्था में सुधार हुए बिना विश्व के कल्याण का कोई दूसरा मार्ग नहीं है--
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पिछले 63 वर्षों में स्त्रियों की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। अभी स्त्रियों को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए काफी सुविधाएं प्राप्त हैं। क्षेत्रों में प्रमुख परिवर्तन आए हैं----
1.
स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति है
2.
आर्थिक क्षेत्र में प्रगति
3.
राजनीतिक चेतना में वृद्धि
4.
सामाजिक जागरूकता में वृद्धि
5.
विवाह एवं परिवारिक क्षेत्र में अधिकार प्राप्ति
1. स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति:- वर्तमान में भारतीय महिला व्यवसायिक शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में भी शिक्षा ग्रहण कर रही है। सरकारों ने निःशुल्क शिक्षा का प्रबंध किया है।
2. आर्थिक क्षेत्र में प्रगति:- शिक्षा के प्रसार से नए नए आर्थिक क्षेत्रों में महिलाएं अपना योगदान दे रही हैं,
जैसे--- इंदिरा न्यू pepsi की CEO. व चंद्रा कोचर आदि।
3. राजनीतिक चेतना में वृद्धि:- भारतीय महिलाएं राजनीति में निरंतर आगे बढ़ रही हैं। भारत के संसद की स्पीकर मीरा कुमार इसका उदाहरण है। इंदिरा गांधी लौह महिला के रूप में सर्वविदित है।
4. सामाजिक जागरूकता में वृद्धि:- स्त्रियां पर्दा प्रथा , बाल विवाह जैसी कुरीतियों से बाहर आ चुकी है। रूढ़िवादी बंधनों में बंधने को तैयार नहीं है।
5. विवाह एवं परिवारिक क्षेत्र में अधिकार प्राप्ति:- स्त्रियों के परिवारों में भी उनकी महत्ता बढ़ी है हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में स्त्रियों को अंतरजातीय विवाह करने व तलाक देने का अधिकार भी दिया है।
आवश्यकता अनुसार महिलाओं की स्थिति में अनेक सुधार हुए। आज भारतीय समाज में महिलाएं निरंतर उन्नति करते हुए आगे बढ़ रही है।
प्रशन 18:- संप्रदायवाद के संकट को स्पष्ट करें।
या:- संप्रदायवाद क्या है? इसके कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:- संप्रदायवाद या संप्रदायिकता एक प्रकार की धार्मिक अंधभक्ति है। यह वह भावना है जो एक धर्म को दूसरे धर्म से अलग करती है। संप्रदायवाद को व्यक्ति की संकीर्णता, कट्टरता और जातिवादिता कहकर आसानी से समझा जा सकता है। वास्तव में, संप्रदायवाद एक मनोवृति है जिसमें विशिष्ट वर्ग के व्यक्ति अपने सीमित हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए दूसरे व्यक्तियों के हितों और अधिकारों की परवाह ना करते हैं। संप्रदायवाद ऐसी भावना है जो धर्म, भाषा और जाति पर आधारित होती हैं तथा देश के हितों की उपेक्षा करके संप्रदायिक हितों का महत्व प्रदान करती है।
संक्षेप में संप्रदाय वाद एक ऐसी भावना है जो व्यक्ति के मन में अपनी जाति, धर्म या संप्रदाय के प्रति निष्ठा की भावना पैदा करती है जिससे व्यक्ति अपनी जाति ,धर्म या संप्रदाय को दूसरे से श्रेष्ठ समझता है।
**
संप्रदायवाद की समस्या का कारण:---संप्रदायवाद की समस्या का निम्नलिखित कारण है-----
1. फूट डालो और राज करो की नीति:- अंग्रेज ने भारत में हिंदू और मुसलमानों के बीच फूट डालकर भारत में संप्रदायवाद को काफी बढ़ावा दिया था जिसके कारण हिंदू और मुसलमान हमेशा लड़ते रहें। इसी संप्रदायवाद के फलस्वरुप हिंदुस्तान एवं पाकिस्तान बने और आज कश्मीर की समस्या के बारे में कौन नहीं जानता।
2. जाति व्यवस्था:- जाति व्यवस्था भारत में संप्रदायवाद एक प्रमुख कारण है । जाति के आधार पर सभी व्यक्ति विभिन्न समूहों में विभाजित हो जाते हैं और उन में अहम की भावना विकसित हो जाती हैं। वह दूसरी जाति के लोगों से अपने को उच्च मानते हैं। दूसरी जाति के प्रति उनमें गिरना व द्वेष पैदा हो जाती हैं,
जो बढ़कर संप्रदायवाद का रूप ले लेता है।
3. धार्मिक कारण:- भारत में विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं और उनकी संस्कृति भी भिन्न-भिन्न होती हैं। उनके रहन-सहन, खान पान, रीति रिवाज आदि में पर्याप्त भिन्नता होती है। एक धर्म के लोग अपने को दूसरे धर्म के मानने वालों से ऊंचा समझते हैं। यही भावना संप्रदाय वाद को बढ़ावा देती है।
4. वर्तमान राजनीति:- संप्रदाय को बढ़ाने में वर्तमान राजनीति भी एक प्रमुख कारण है। आज राजनीति में जातिवाद एवं संप्रदाय वाद का सहारा लिया जा रहा है। ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा के चुनाव तक जाति एवं धर्म के आधार पर उम्मीदवार खड़े किए जाते हैं और वोट मांगे जा रहे हैं जिसमें संप्रदायवाद को और अधिक बढ़ावा मिल रहा है।
5. असामाजिक तत्व:- अनेक असामाजिक तत्व अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए संप्रदायिक दंगों को भड़काते हैं,
दो समुदायों में दंगा भड़कने के बाद जब भगदड़ मच जाती है तो ऐसे में यह तत्व लूटपाट मचाते हैं। यह तत्व अपना स्वार्थ सिद्ध कर भाग जाते हैं और बेगुनाह जनता मारी जाती है। विरोधी समुदाय समझता है कि यह कार्य उनके विरोधियों का है जिससे संप्रदायवाद और अधिक बढ़ता है।
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