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अभिप्रेरणा एवं संवेग, Class 11 Psychology Chapter 9 in Hnidi, कक्षा 11 नोट्स, सभी प्रश्नों के उत्तर, कक्षा 11वीं के प्रश्न उत्तर

अभिप्रेरणा एवं संवेग, Class 11 Psychology Chapter 9 in Hnidi, कक्षा 11 नोट्स, सभी प्रश्नों के उत्तर, कक्षा 11वीं के प्रश्न उत्तर

  Chapter-9 अभिप्रेरणा एवं संवेग  

प्रश्न 1. अभिप्रेरणा के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: अभिप्रेरणा का संप्रत्यय इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि व्यवहार में 'गति' किस प्रकार आती है। अंग्रेजी भाषा में Motivation लैटिन शब्द movere से बना है, जिसका संदर्भ क्रियाकलाप की गति से है। हमारे दैनिक जीवन में अधिकांश व्यवहारों की व्याख्या भी अभिप्रेरकों के आधार पर की जाती है। हम विद्यालय या महाविद्यालय क्यों जाते हैं ? इस व्यवहार के अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे कि हम ज्ञान अर्जित करना चाहते हैं या मित्र बनाना चाहते हैं, या फिर हमें एक अच्छी नौकरी पाने के लिए एक डिप्लोमा अथवा डिग्री की आवश्यकता है, या हम अपने माता-पिता को प्रसन्न करना चाहते हैं, इत्यादि। इन कारणों की कोई संयुक्ति या अन्य कारण भी हमारे उच्च शिक्षा ग्रहण की व्याख्या कर सकते हैं। अभिप्रेरक व्यवहारों का पूर्वानुमान करने में भी सहायता करते हैं। यदि किसी व्यक्ति में तीव्र उपलब्धि अभिप्रेरक हो तो वह विद्यालय में, खेल में, व्यापार में, संगीत में तथा अनेक अन्य परिस्थितियों में कड़ा परिश्रम करेगा। अतः अभिप्रेरक वे सामान्य स्थितियाँ हैं जिनके आधार पर हम भिन्न परिस्थितियों में व्यवहार के बारे में पूर्वानुमान लगा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, अभिप्रेरणा व्यवहार के निर्धारकों में से एक है। मूल प्रवृत्तियाँ, अंतनोंद, आवश्यकताएँ, लक्ष्य तथा उत्प्रेरक अभिप्रेरणा के विस्तृत दायरे में आते हैं।
प्रश्न 2. भूख और प्यास की आवश्यकताओं के जैविक आधार क्या हैं?
उत्तर: किसी भी प्राणी की आवश्यकताएँ अंतर्नाद उत्पन्न करती है। व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति कुछ कार्य करने के अंत:प्रेरण को प्रदर्शित करता है। मूल प्रवृत्ति का एक बल यह आवेग होता है जो प्राणी को कुछ ऐसी क्रिया करने के लिए चालित करता है जो उस बल या आवेग को कम कर सके। भूख और प्यास दो प्रमुख जैविक आवश्यकताएँ हैं।
भूख: जीवधारियों के शरीर में किसी चीज की कमी को आवश्यकता कहा जाता है। जीवन रक्षा तथा शक्ति संचार के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। भोजन की आवश्यकता को भूख का कारण माना जा सकता है। भूख लगने पर व्यक्ति को भोजन प्राप्त करने तथा उसे खाने के लिए अभिप्रेरणा करती है। भूख के उद्दीपकों में अमाशय का संकुचन, ग्लुकोज की सान्द्रता में कमी, वस्त्र के स्तर में गिरावट, ईंधन की कमी के प्रति यकृत की प्रतिक्रिया अहम भूमिका अदा करते हैं। यकृत के उपाचचयी क्रियाओं में होने वाला परिवर्तन को भूख की अनुभूति कराने वाला माना जाता है। भोज्य पदार्थों की उपलब्धता, रंग, स्वाद, उपयोग आदि भूख की तीव्रता बढ़ाने वाले कारक माने जाते हैं। हमारी भूख अधश्चेतक में स्थित पोषण तृप्ति की जटिल व्यवस्था, यकृत और शरीर के कुछ अन्य अंगों तथा परिवेशीय कारकों के द्वारा नियंत्रित होती है।
पाश्विक अधश्चेतक भूख संदीपन को समझता है जबकि मध्य अधश्चेतक भूख के अंतर्नाद को विरुद्ध बनाकर भूख को नियंत्रित रखता है। अतः सारांशतः यह माना जा सकता है कि भूख को शान्त करके हम जीवन की सुरक्षा के साथ संतुलित शरीर के लिए आवश्यक तत्त्वों को ग्रहण करके भूख के कारण होनेवाले कष्ट को मिटा पाने में समर्थ होते हैं। प्यास शरीर को जब पानी की आवश्यकता महसूस होती है तो हम प्यास का अनुभव करते हैं। प्यास को जन्मजात प्रेरक माना जा सकता है।
प्यास लगने पर हमारा मुँह और गला सूखने लगता है और शरीर के उत्तकों में निर्जलीकरण की अवस्था आ जाती है। इन कठिनाइयों से मुक्ति पाने के लिए प्यास बुझाने के लिए पानी पीना आवश्यक हो जाता है। पानी नहीं पीने से कोशिकाओं से पानी का क्षय होना जारी हो जाता है तथा रक्त में पानी का अनुमान लगाकर घटने लगता है। पानी पी लेने के परिणामस्वरूप आमाशय में उत्पन्न उद्दीपन रुक जाता है, परसारग्राही के द्वारा निर्जलीकरण नियंत्रित हो जाता है। प्यास की अवस्था में कोई भी व्यक्ति अधिक कार्यशील बन जाता है। लार का अभाव उसे बेचैन कर देते हैं । अर्थात् प्यास की जैविक आवश्यकता के रूप में संतोषप्रद जीवन जीने के साथ-साथ निर्जलीकरण से मुक्ति के लिए उपाय ढूँढ़ना है। शरीर के उत्तकों को स्वाभाविक कार्य करते रहने के योग्य बनाया जाता है।
प्रश्न 3. किशोरों के व्यवहारों को उपलब्धि संबंधन तथा शक्ति की आवश्यकताएँ कैसे प्रभावित करती हैं? उदाहरणों के साथ समझाइये । "
उत्तर: बाल्यावस्था तथा प्रौढ़ावस्था के मध्य का संक्रमण काल (11 से 21 वर्ष तक की उम्र ) किशोरावस्था कहलाता है। इसे जैविक तथा मानसिक दोनों ही रूप से तीव्र परिवर्तन की अवधि माना जाता है। इस अवस्था की एक मुख्य विशेषता मौन परिपक्वता है। यह भी माना जाता है कि किशोर के विचार अधिक अमूर्त, तर्कपूर्ण एवं आदर्शवादी होते हैं। प्रयत्न त्रुटि उपागम के विपरीत समस्या समाधन करने में किशोरों का चिंतन अधिक व्यवस्थित होता है। किशोर वैकल्पिक नैतिक संहिता को भी जानते हैं। किशोरों के व्यवहारों में लचीलापन, प्रदर्शन, प्रतियोगिता जैसी भावनाओं का प्रभाव देखने को मिलता है। किशोरों के व्यवहारों को उपलब्धि, संबंधन तथा शक्ति की आवश्यकताओं को महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
1. उपलब्धि अभिप्रेरक: उत्कृष्टता के मापदंड को प्राप्त कर लेने की आवश्यकता उपलब्धि अभिप्रेरक कहलाते हैं। किशोर अपने माता-पिता, मित्र, पड़ोसी, शुभचिंतक जैसे व्यवहार-निपुण लोग से प्रेरित होकर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव का उपयोग करके व्यवहारों का अर्जन तथा निर्देशन की युक्ति सोखते हैं। उपलब्धि को पाने के लिए किशोर चुनौती भरे कठिन कार्यों को भी पूरा कर लेना चाहते हैं । जैसे-वर्ग में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए किशोर अध्ययन के विकास के लिए तरह-तरह के प्रस्तावों का अध्ययन करते हैं, साथियों से सहयोग माँगते हैं।
माता-पिता से उचित परामर्श तथा आर्थिक सहयोग चाहते हैं। कई समस्याओं से घिरे होने पर भी किशोर अपने संकल्प की दृढ़ता का प्रदर्शन करने से नहीं चूकते हैं। अंत में वे वर्ग में प्रथम स्थान पाकर स्वयं तो खुश होते ही हैं और वे प्रशंसा के शब्द भी सुनते हैं। अर्थात् किशोर अपने व्यवहारों में किसी भी तरह का परिवर्तन स्वीकारते हैं जिससे उनका लक्ष्य उपलब्धि के रूप में उन्हें अवश्य मिल जाए।
2. संबंधी: समूहों का निर्माण मानव व्यवहार की एक विशेषता होती है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किशोर का प्रयास किस प्रकार से संबंध बनाना होता है। किशोर कभी भी अकेला रहना पसंद नहीं करता है। सच तो यह है कि दूसरों को चाहना तथा भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से उनके निकट आने की चाह को संबंधन माना जाता है। संबंधन में सामाजिक सम्पर्क की अभिप्रेरणा अंतनिर्हित होती है। संबंधन की आवश्यकता उस समय उद्दीपन कहलाती है जब कोई किशोर अपने को खतरे में अथवा निर्णय को सर्वश्रेष्ठ बनाना चाहता है ताकि लोग उससे प्रभावित हो जाएँ। अर्थात् किशोरों के व्यवहार में नया मोड़ लाने के लिए उपलब्धि (जैसे- एम. ए. की डिग्री), संबंधन (मित्र या शुभचिंतक) और शक्ति, (प्रभाव और प्रदर्शन) की आवश्यकता वांछनीय प्रतीत होती है।
प्रश्न 4. मैस्लो के आवश्यकता पदानुक्रम के पीछे प्राथमिक विचार क्या हैं? उपयुक्त उदाहरणों की सहायता से व्याख्या कीजिए।
उत्तर: 'भूखे भजन न होय गोपाला' अर्थात् भोजन की तुलना में भजन निरर्थक है चाहे वह कितना भी गरिमामयी क्यों न हो। मैस्लो ने भी आवश्यकताओं को महत्त्व के आधार पर श्रेणीबद्ध करके बतलाना चाहा है कि जीवन निर्वाह के लिए मूल शरीर क्रियात्मक मूल आवश्यकता है। मैस्लो का पिरामिड संप्रतययित रूप है एक लोकप्रिय मॉडल का जिसमें पदानुक्रम के तल में मूल जैविक आवश्यकताओं को जगह मिली है।
मैक्लो (1968, 1970) ने मानव व्यवहार को चित्रित करने के लिए आवश्यकताओं को एक पदानुक्रम में व्यवस्थित किया है। आवश्यकताओं की व्यवस्था से पता चलता है कि मानव अपने स्वभाव से महत्त्वाकांक्षी होता है। भूख समाप्त होते ही वह सुरक्षा की चिन्ता करने लगता है। सुरक्षा की उचित व्यवस्था पाकर वह शुभचिंतकों का समूह पाना चाहता है। इसके बाद सम्मान और आत्मसिद्धि की इच्छा जागती है। मैस्लो के पदानुक्रम के पीछे प्राथमिक विचार बहुत ही स्वाभाविक है। पदानुक्रम में व्यवस्थित निम्न स्तर की आवश्यकता जब नहीं हो जाती तब तक कोई व्यक्ति उच्चस्तरीय आवश्यकता की ओर सोचता तक नहीं है। किसी आवश्यकता की पूर्ति से ज्योंहि व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है, क्योंकि उच्चस्तरीय आवश्यकता उसकी चिंता का कारण बन जाती है।
जैसे, भूखे व्यक्ति को रडियो नहीं चाहिए, क्योंकि वह तो रोटी की खोज में व्यस्त है। खा-पीकर जब आदमी संतुष्ट हो जाता है तो उसे मनोरंजन, नाच-गाना सभी कुछ अच्छा लगने लगता है। एक व्यक्ति टमटम चलाता है। सबसे पहले उसे यात्री मिलने की चिन्ता रहती है। ज्योहि उसे एक साथ पाँच यात्री मिल जाते हैं तो वह घर से मिलने के बारे में सोचने लगना है। घर के बच्चे के लिए मिठाई का चयन उसे परेशान कर देते हैं। जब मिठाई लेकर घर पहुँचता है तो किवाड़ नहीं बंद हो सकने की चिन्ता हो जाती है। अत: उसकी चिन्ता बदलती रहती है लेकिन वह पूर्णतः समाप्त नहीं हो पाती है।
प्रश्न 5. क्या शरीर क्रियात्मक उद्वेलन सांवेगिक अनुभव के पूर्व या पश्चात घटित होता है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर: संवेगों के शरीरक्रियात्मक आधार : संजय नौकरी पाने के लिए परेशान है। उसने साक्षात्कार के लिए अच्छी तैयारी की है और आत्म-विश्वास का अनुभव कर रहा है। जैसे ही वह साक्षात्कार कक्ष में जाता है और साक्षात्कार प्रारंभ होता है, वह अत्यधिक तनाव में आ जाता है। उसके हाथ-पाँव ठंडे पड़ जाते हैं, उसका हृदय जोर-जोर से धड़कने लगता है और वह उपयुक्त तरीके से उत्तर देने में असमर्थ हो जाता है।
यह सब क्यों हुआ? किसी ऐसी घटना के बारे में सोचने का प्रयास कीजिए जो इससे मिलती हुई हो और जिसका अनुभव स्वयं आपने किया हो। क्या आप उसका कोई संभाव्य कारण सोच सकते हैं।
जब हम किसी संवेग का अनुभव करते हैं तो अनेक शरीर क्रियात्मक परिवर्तन होते हैं। जब हम उत्तेजित, भयभीत अथवा क्रोधित होते हैं तो इन शारीरिक परिवर्तनों को चिह्नित करना अपेक्षाकृत सरल होता है। जब हम किसी वस्तु के बारे में उत्तेजित या क्रुद्ध होते हैं तो अनुभव करते हैं कि हमारी हृदय गति बढ़ जाती है, सिर चकराने लगता है, पसीना आने लगता है तथा हाथ-पाँव में कंपन होने लगता है। परिष्कृत उपकरणों की सहायता से उन शरीर क्रियात्मक परिवर्तनों का यथार्थ मापन किया जा सकता है।
जो न मतसाय की अनुभूति के साथ उत्पन्न होते हैं। स्वायत्त तथा कायिक तंत्रिका तंत्र दोनों ही संवेगात्मक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। संवेग का अनुभव तंत्रिका शरीर क्रियात्मक सक्रियकरण की श्रृंखला पर निर्भर करता है, जिसमें चेतक, अधश्लेतक, उपवल्कुटीय व्यवस्था तथा प्रमस्तिष्कीय वल्कुट महत्त्वपूर्ण रूप से अंतर्निहित होते हैं। वे व्यक्ति जिनके मस्तिष्क के इन क्षेत्रों में व्यापक क्षति हो जाती है, उनकी संवेगात्मक योग्यताएँ दोषपूर्ण होते हुए देखी गई हैं। प्रयोगों में शिशुओं तथा वयस्कों में भी विभिन्न मस्तिष्क के क्षेत्रों में चयनात्मक सक्रियकरण, भिन्न-भिन्न संवेगों का उद्वेलन प्रदर्शित करता है।
संवेग के शरीर क्रियात्मक सिद्धांतों में सबसे पुराने सिद्धांतों में से एक जेम्स (James,1884) द्वारा दिया गया था और लैंगे उद्दीपक सड़क दुर्घटना हृदय गति का बढ़ना, पसीना आना विशिष्ट शरीरक्रियात्मक परिवर्तन शरीरक्रियात्मक परिवर्तनों का प्रत्यक्षण भय अनुभूत संवेग (Lange) ने उसका समर्थन किया था, अतः इसे जेम्स-लैंगे सिद्धांत (James-Lange theory) के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार पर्यावरणी उद्दीपक विसेरा या अंतरांग (आंतरिक अंग; जैसे - हृदय तथा फेफड़े) में शरीर क्रियात्मक अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं, जो कि पेशीय गति से संबद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए, अप्रत्याशित अत्यंत तीव्र शोर के द्वारा चौंकना, आंतरांगी तथा पेशीय अंगों में सक्रियकरण को उत्पन्न करता है, जिसका अनुसरण करता है संवेगात्मक उद्वेलन। दूसरे शब्दों में, जेम्स- लैंगे सिद्धांत का तर्क यह है कि आपके शारीरिक परिवर्तनों का आपके द्वारा किया गया प्रत्यक्षण- जैसे किसी घटना के बाद साँस का तेज चलना, हृदय की तेज धड़कन, टाँगों का दौड़ना, संवेगात्मक उद्वेलन को उत्पन्न करता है। इस सिद्धांत का निहितार्थ यह है कि विशिष्ट घटनाएँ या उद्दीपक विशिष्ट शरीर क्रियात्मक परिवर्तनों को उत्तेजित करती हैं तथा व्यक्ति इन परिवर्तनों का जिस प्रकार से प्रत्यक्षण करता है, संवेगों की अनुभूति उसी का परिणाम होती है।
प्रश्न 6. क्या संवेगों की चेतन रूप से व्याख्या तथा नामकरण करना उनको समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए चर्चा कीजिए।
उत्तर: हमारे संज्ञान अर्थात् हमारे प्रत्यक्षण, स्मृतियाँ एवं व्याख्याएँ हमारे संवेग के आवश्यक हैं। संवेग और उसके कारण और प्रभाव का पता बताने के लिए संवेगात्मक क्रिया-कौशल की व्याख्या संवेगों को स्पष्टतः समझने में सहायक होता है। स्टैनली शैक्टर तथा जेरोम सिंगर ने शारीरिक और संज्ञानात्मक संवेगों का अध्ययन कर बताया कि संवेगों की अनुभूति हमारे तात्कालिक उद्वेलन के प्रति जागरुकता के द्वारा उत्पन्न होती है। उन दोनों का मत है कि किसी संवेगात्मक अनुभव के लिए उद्वेलन की चेतना व्याख्या की आवश्यकता होती है।
माना कोई व्यक्ति किसी कविता की रचना करके श्रोता को संगीत-स्वर में सुनाता है। वह अपनी करनी से बहुत खुश और गौरवान्वित है। इसी क्रम में कोई श्रोता उसके प्रयास को फूहर प्रदर्शन कह डाला। व्यक्ति, श्रोता और आलोचना के बीच संवेगात्मक दशा में अंतर आना स्वाभाविक है। हमें इसके कारण, प्रभाव और परिणाम की स्पष्ट जानकारी के लिए सम्पूर्ण घटना की विस्तृत व्याख्या करनी चाहिए।
इसी आवश्यकता अथवा प्रयास के सम्बन्ध में शैक्टर तथा सिंगर (1962) ने प्रतिभागियों को उच्च स्तर का उद्वेलन उत्पन्न करने वाली दवा 'एपाइनफ्राइन' की सूई देकर उसे दूसरे से व्यवहारों का प्रेक्षण करने को कहा गया। प्रेक्षण के क्रम में उल्लासोन्माद को व्यक्त करने वाला रद्दी को टोकरी पर कागज फेंक कर अपनी खुशी को व्यक्त किया तथा दूसरा क्रोध का प्रदर्शन करते हुए पैर पटकते हुए कमरे से बाहर निकल गया। इस तरह का व्यवहार संवेगों की चेतना व्याख्या का अवसर जुटा दिया।
संवेगों का नामकरण-कुछ मूल संवेग (भूख, प्यास) सभी लोगों में समान रूप से अभिव्यक्ति का अवसर देता है। चाहे व्यक्ति किसी उम्र, जाति या श्रेणी का हो किन्तु कुछ संवेग विशिष्ट होते हैं। विशिष्ट संवेगों के लक्षणों पर पर्यावरण, स्थान, समझ तथा संस्कार का प्रभाव मिलता है। जैसे-सुख, दुख, प्रसन्नता, क्रोध, घृणा आदि को मूल संवेग और आश्चर्य, अवमानना, शर्म तथा अपराध को विशिष्ट संवेग के रूप में जाना जाता है। क्योंकि भारत में जिस क्रिया के लिए शर्म या आश्चर्य प्रकट किया जाता है, अमेरिका में उसे आधुनिकता मान लिया जाता है।
संवेगों के स्वरूप की सही पहचान के लिए उनका नामकरण वांछनीय है। जैसे- पत्र-पत्रिकाओं से लगभग दो सौ चित्रों को काटकर उन्हें कूट पर चिपका कर चित्रकार्ड का रूप दे दिया गया। अब उन्हें अलग-अलग संवेगों पर आधारित चित्रों का समुच्चय बना लिया गया। माना हँसता हुआ 20 कार्ड, रोता हुआ 50 कार्ड, क्रोध का मुद्रा वाला 80 चित्र तथा अन्यान्य मुद्रा वाले शेष चित्रों का समूह बनाकर संचित कर लिया गया। अब हमें किस समूह की आवश्यकता है उसे बिना नामकरण का कैसे व्यक्त करना संभव है। अर्थात् संवेगों की चेतन रूप से व्याख्या तथा नामकरण करना उन्हें समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्न 7. संस्कृति संवेगों की अभिव्यक्ति को कैसे प्रभावित करती है?
उत्तर: संवेगों की अभिव्यक्ति में पूरी शक्ति से प्रभाव डालती है। चूंकि संवेग एक आन्तरिक अनुभूति होती है, अतः संवेगों का अनुमान वाचिक तथा अवाचिक अभिव्यक्तियों के द्वारा ही होती है। वाचिक तथा अवाचित अभिव्यक्तियाँ संचार माध्यम का कार्य करती हैं। संचार के वाचिक माध्यम में स्वरमान और बोली का ऊँचापन, दोनों सन्निहित होते हैं।
अवाचिक माध्यकों में चेहरे का हाव-भाव, मुद्रा, भंगिमा तथा शरीर की गति तथा समीपस्थ व्यवहार शामिल रहते हैं। चेहरे के हाव-भावों से होने वाली अभिव्यक्ति सांवेगिक संचार का सबसे अधिक प्रचलित माध्यम है। व्यक्ति के संवेगों का सुखद या दुखद होना, क्रोधित होना, काफी खुश रहना, गौरव महसूस करना, आदि चेहरे को देखकर समझा जा सकता है। भूख द्वारा अभिव्यक्तियों में हर्ष, भय, क्रोध, विरुचि, दुख तथा आश्चर्य आदि जन्मजात तथा सार्वभौम होती है।
शारीरिक गति अर्थात् हाथ: पैर हिलाना, संवेगों के संचार को अधिक सरल बना देती है। भारतीय शास्त्रीय नृत्य शरीर की गति के माध्यम से अपनी भावनाओं को सरलता से पेश करने में समर्थ होता है। संवेगों में अन्तर्निहित प्रक्रियाएँ संस्कृति द्वारा काफी प्रभावित होती हैं। स्मृति शोध, मुख की अभिव्यक्ति, जटिलता से मुक्त प्रदर्शन आदि संवेगों का स्वाभाविक चित्र दिखाते हैं। संवेग के आत्मनिष्ठ अनुभव तथा प्रकट अभिव्यक्ति के बीच मुख का प्रदर्शन एक कड़ी का काम करता है।
संवेगों की अभिव्यक्ति में अन्य अवाचिक माध्यमों का प्रभावों भी असरदार होती है। जैसे टकटकी लगाकर देखने, तरह-तरह की चेष्टा (शारीरिक भाव) का प्रदर्शन, पराभाषा तथा समीपस्थ व्यवहार इत्यादि के माध्यम से भी संवेगों की अभिव्यक्त की जा सकती है। चीन में ताली बजाना आकुलता या निराशा का सूचक है तथा क्रोध को विचित्र हँसी के द्वारा व्यक्त किया जाता है। भारत में मौन रहकर गहरे संवेग को अभिव्यक्ति किया जाता है। संवेगात्मक आदान-प्रदान के दौरान, शारीरिक दूरी (सान्निध्य) विभिन्न प्रकार के संवेगात्मक अर्थों को व्यक्त करती है।
जैसे- भारत के लोग खुशी जाहिर करने के लिए गले मिलते हैं। स्पर्श से संवेगात्मक उष्णता का बोध होता है। कभी विमुखता महसूस करने वाला व्यक्ति दूर से ही अंतःक्रिया करना चाहता है। सारांशतः माना जा सकता है कि संवेगों की अभिव्यक्ति में संस्कृति का प्रबल योगदान है। यह सच है कि संस्कृति की भिन्नता के कारण स्थान बदलने से उनके अर्थ एवं विधियाँ बदल जाते हैं। संवेगों की अभिव्यक्ति मुख, संकेत, हाव-भाव तथा शारीरिक क्रिया के माध्यम से सरलता से संभव होता है। जैसे- कृपया कहने वाला, गाली देने वाले से अलग-संवेग का प्रदर्शन करता है।
प्रश्न 8. निषेधात्मक संवेगों का प्रबंधन क्यों महत्त्वपूर्ण है? निषेधात्मक संवेगों के प्रबंधन हेतु उपाय सुझाएँ ।
उत्तर: संवेग हमारे दैनिक जीवन तथा अस्तित्व के अंश हैं एवं संवेग एक सांतात्मक के प्रमुख हिस्सा बनकर हमें तरह-तरह के अनुभवों से परिचित कराता है। दैनिक जीवन में कई द्वन्द्वात्मक दशाओं तथा कठिन और दबावमय परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। भय, दुश्चिता, विरुचि जैसी प्रवृत्ति उत्पन्न होकर निषेधात्मक संवेग के घनत्व को बढ़ा देती है।
यदि निषेधात्मक संवेगों को लम्बी अवधि तक किनारों के अनवरत चलते रहने दिया जाए, तो सम्बन्धित व्यक्ति के शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। हीनता की भावना, द्वेष, क्रोध, चिड़चिड़ापन, रक्तचाप, भोजन से अरुचि जैसी विषय तथा कष्टदायक स्थिति उत्पन्न होने लगती है। संवेगों के उत्तम प्रबंधन के द्वारा निषेधात्मक संवेगों में कमी तथा विध्यात्मक संवेगों (भरोसा, आशा, खुशी, सर्जनात्मकता, साहस, उमंग, उल्लास) में वृद्धि लाने का प्रयास करना प्रमुख लक्ष्य माना जाता है।
क्रोध, भय, दुश्चिता, असमर्थता, हीनता की भावना जैसे निषेधात्मक संवेगों से मौन मुक्ति तथा क्रियाकलापों को आशा, उत्साह, खुशी, उमंग आदि से जोड़कर पूरा कर लेने की प्रवृत्ति का सराहनीय विकास निषेधात्मक संवेगों से उत्पन्न होने वाले शारीरिक एवं मानसिक विकारों से यथासंभव मुक्ति मिल सकती है। आजकल सफल संवेग प्रबंधन को प्रभावी सामाजिक प्रबंधन का मुख्य आधार माना जा रहा है ताकि समाज में मनोविकार वाले व्यक्तियों की संख्या में होने वाली वृद्धि को रोका जा सके।
निषेधात्मक संवेगों के प्रबंधन हेतु उपाय-निषेधात्मक संवेगों में कमी तथा विध्यात्मक संवेगों में वृद्धि करके वांछित प्रबंधन को सुपरिणामी और सार्थक स्वरूप प्रदान किया जा सकता है जिसके लिए निम्नलिखित युक्तियाँ सफल हो सकती हैं
1. आत्म-जागरुकता में वृद्धिः किसी भी परिस्थिति को समझकर उससे संबंधित धनात्मक या ऋणात्मक प्रभावों को जानने तथा उसके प्रति अनुकूलता प्रदर्शित करने के लिए सदा जागरुक रहना खतरा से मुक्ति दिलाने में तथा संभावित लाभप्रद परिणामों के सदुयोग में सरल मार्ग मिल जाता है।
2. परिस्थिति की सम्पूर्ण पहचान: कोई परिस्थिति क्यों उत्पन्न हुई, इसका क्या-क्या प्रभाव पड़ सकता है, इसका उपयोग किस स्थिति में लाभप्रद या हानिकारक होगा जैसे जिज्ञासु प्रश्नों के सही उत्तर जानकर उत्पन्न परिस्थिति का डटकर मुकाबला करने की प्रवृत्ति को बढ़ाना चाहिए।
3. आत्म-परीक्षण: व्यक्ति को अपनी दक्षता, कौशल या योग्यता का सही अनुमान होना चाहिए। अपने विचारों तथा कला-कौशल को पहचानकर उसके सही प्रयोग की ओर उचित ध्यान देने से ऋणात्मक प्रभाव से मुक्ति मिल सकती है।
4. ऋणात्मक प्रवृत्तियों से मुक्ति: अपने आपको आत्मग्लानि, भय, चिंता, अवसाद जैसी भावनाओं से मुक्त रखकर सृजनात्मक कार्यों में जुट जाइए। अपनी रुचि या शौक के अनुसार किसी अच्छे कार्य का चयन करके उसे पूरा करने में व्यस्त रहिए।
5. शुभचिंतकों की संख्या में वृद्धिः अपनी भाषा एवं व्यवहार से लोगों को प्रभावित करके उन्हें शुभचिंतकों की श्रेणी में लाकर लाभ उठाने का प्रयास कीजिए।
6. उत्तम आदत: पूजा, व्यायाम, निद्रा, सफाई, भोजन आदि से संबंधित अच्छी आदतों को अपनाकर शेष व्यक्तियों के लिए आदर्श बन जाइए। लोगों की प्रशंसा, खुशामद, श्रद्धा के कारण आपका मनोबल बढ़ेगा और आपकी सोच सर्जनात्मक हो जाएगी।
निषेधात्मक संवेगों के कुप्रभाव से बचाने के लिए सबसे सरल उपाय है कि किसी भी प्रभाव को आप स्वाभाविक क्रिया मानकर स्वीकार कीजिए। यह मानकर चलिए कि बहुत से लोग हैं जो हारते हैं, बहुतों के घर में चोरी हुई है। आत्म-सम्मान की रक्षा करते हुए सहयोग, परोपकार, दया, कर्मठता, चिंतन आदि को अपने जीवन में जगह देकर आप अपनी जिन्दगी को गति दे सकते हैं। जमाना बदल रहा है, आप भी बदलिये। किसी को दोषी मानने के पहले, अपनी गलतियों को पहचानिये। अभ्यास और चिंतन समस्याओं से निबटने का महामार्ग है।

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