Header Ads Widget

New Post

6/recent/ticker-posts
Telegram Join Whatsapp Channel Whatsapp Follow

आप डूुबलिकेट वेबसाइट से बचे दुनिया का एकमात्र वेबसाइट यही है Bharati Bhawan और ये आपको पैसे पेमेंट करने को कभी नहीं बोलते है क्योंकि यहाँ सब के सब सामग्री फ्री में उपलब्ध कराया जाता है धन्यवाद !

चिंतन, Class 11 Psychology Chapter 8 in Hnidi, कक्षा 11 नोट्स, सभी प्रश्नों के उत्तर, कक्षा 11वीं के प्रश्न उत्तर

चिंतन, Class 11 Psychology Chapter 8 in Hnidi, कक्षा 11 नोट्स, सभी प्रश्नों के उत्तर, कक्षा 11वीं के प्रश्न उत्तर

  Chapter-8 चिंतन  

प्रश्न 1. चिंतन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: सम्पूर्ण प्राणी जगत में मानव ही एक ऐसा जीवधारी है जिसमें सोचने, निर्णय लेने तथा तर्क करने की विशिष्ट क्षमता होती है। चिंतन प्रतीकात्मक स्वरूप की विचारात्मक प्रक्रिया होती है, जो सभी संज्ञानात्मक गतिविधियों या प्रतिक्रियाओं का आधार होता है। चिंतन में वातावरण से प्राप्त सूचनाओं का प्रहस्तन एवं विश्लेषण सम्मिलित होती है।
किसी शिल्पकार की कृति को सामने पाकर कोई व्यक्ति उसके रंग-रूप, स्वरूप, चमक और चिकनापन के अतिरिक्त कला में सन्निहित भाव एवं उद्देश्य को भी समझना चाहता है। कला के सम्बन्ध में मनन करने के उपरान्त उस व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि होती है। अपने परिवेश की परख से उत्पन्न अनुभूति या संवदेना तथा प्राप्त होनेवाले अनुभव को मानवीय चिंतन का परिणाम माना जाता है। अत: कहा जा सकता है कि चिंतन एक उच्चतर मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम अर्जित अथवा वर्तमान सूचना का प्रहस्तन एवं विश्लेषण करते हैं।
चिंतन को व्यावहारिक स्वरूप देने के क्रम में हमें प्रस्तुत करने, कल्पना करने, तर्क देने तथा किसी समस्या के लिए सही समाधान करने की योग्यता में वृद्धि होती है। हम किसी कार्य को करके वांछित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए योजना बनाते हैं अथवा पूर्व करने का प्रयोग करते हैं। कार्य के सफल सम्पादन में रचना-कौशल का सक्रिय योगदान होता है। अत: चिंतन को प्रायः संगठित और लक्ष्य निर्देशित माना जाता है। ताश अथवा शतरंज का खिलाड़ी खेल में जीत पाने के लिए सदा सोच-सोच कर आगे बढ़ता है।
वह प्रत्येक चाल के लिए संभावित परिणाम या प्रतिक्रिया का सही अनुमान लगाना चाहता है। वह अपनी सोच में नयापन लाकर लगाई गई युक्तियों का मूल्यांकन करना चाहता है। अतः चिंतन को एक मानसिक क्रिया कह सकते हैं। ऊपर वर्णित तथ्यों के आधार पर चिंतन का स्वरूप मानसिक प्रक्रिया, लक्ष्य निर्देशन, संज्ञानात्मक गतिविधियों का आधार, ज्ञान का उपयोग एवं विश्लेषण, कल्पना, तर्क जैसे पदों के समूह के द्वारा निर्धारित किया जा सकता है।
प्रश्न 2. संप्रत्यय क्या है? चिंतन प्रक्रिया में संप्रत्यय की भूमिका की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: संप्रत्यय: ज्ञान-परिधान की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई संप्रत्यय है। संप्रत्यय उन वस्तुओं एवं घटनाओं के मानसिक संवर्ग हैं जो कई प्रकार से एक-दूसरे के समान हैं। अर्थात् संप्रत्यय निर्माण हमें अपने ज्ञान को व्यवस्थित या संगठित करने में सहायता करता है।
चिंतन प्रक्रिया में संप्रत्यय की भूमिका: चिंतन हमारे पूर्व अर्जित ज्ञान पर निर्भर करता है। जब हम एक परिचित अथवा अपरिचित वस्तु या घटना को देखते हैं तो उनके लक्षणों को पूर्व ज्ञान से जोड़कर उन्हें जानना-पहचानना चाहते हैं। यही कारण है कि हमें सेब को फल कहने में कुत्ता को जानवर मानने में, औरत को दया की प्रतिमा कहने में कोई कठिनाई या झिझक नहीं होती है। संप्रत्यय एक संवर्ग का मानस चित्रण है। यह एक समान या उभयनिष्ठ विशेषता रखने वाली वस्तु, विचार या घटना को वर्गीकृत करने में हमारी मदद करता है।
संप्रत्यय के कारण व्यवस्थित एवं संगठित ज्ञान के द्वारा हम अपने ज्ञान का उपयोग ऐच्छिक तौर पर करके कम समय और प्रयास के बल पर अच्छे परिणाम पा लेते हैं। छिपे सामानों को खोजने में संप्रत्यय हमारी मदद करता है। संप्रत्यय के सहयोग से हम अपने ज्ञान और अनुभव को अधिक उपयोगी और दक्ष बना पाते हैं। संप्रत्यय का निर्माण हमें श्रम और समय संबंधी सुविधा प्रदान करता है। अत: चिंतन प्रक्रिया में संप्रत्यय की भूमिका सहयोगी मित्र तथा तकनीकी साधनों के अनुरूप होती है, जो श्रम, ज्ञान, प्रयास तथा समय संबंधी प्रक्रियाओं में अपनी उत्कृष्ट व्यवस्था जैसे गुणों के कारण जिज्ञासु समस्याओं का सही समाधान कम समये में उपलब्ध करा देता है।
प्रश्न 3. समस्या समाधान की बाधाओं की पहचान कीजिए। अथवा, समस्या समाधान से क्या तात्पर्य है? इसके अवरोधों को वर्णन करें।
उत्तर: कोई व्यक्ति समस्या समाधान के लिए समस्या की पहचान के साथ-साथ लक्ष्य, कार्य-विधि एवं निरीक्षण को भी महत्त्व देता है। यह भी ज्ञात है कि मानसिक विन्यास को ही समस्या समाधान की सर्वोत्तम प्रवृत्ति मानता है। लेकिन कभी-कभी यह प्रवृति मानसिक दृढ़ता को जिद्द के रूप में बदलकर नए नियमों या युक्तियों के पता लगाने का अवसर ही नहीं देता है। जैसे 5 कलमों का मूल्य 20 रु. जानकर एक कलम का मूल्य जानने के लिए 20 में 5 से भाग देकर उसका पता लगाता है।
किन्तु जब उसे कहा जाता है 5 मजदूर एक गड्ढा को 20 दिनों में खोद सकते हैं तो 1 मजदूर को गड्ढा खोदने में कितना समय लगेगा। उत्तर के लिए यदि पुनः 2015 की क्रिया करके तो 4 दिन के रूप में परिणाम मिलेगा जो बिल्कुल अस्वाभाविक है। इस तरह ज्ञात नियमों में आवश्यक संशोधन किये बिना प्रयोग में लाना गलत परिणाम का कारण बन जाता है। अर्थात् किसी पूर्व ज्ञान के प्रयोग सम्बन्धी हठधर्मिता समस्या समाधान में अवरोधक सिद्ध होता है। समस्या समाधान में प्रकार्यात्मक स्थिरता को अपनाने वाला समाधान प्राप्त करने में विफल हो जाता है।
रेडियो बजाने की विधि का प्रयोग यदि हारमोनियम बजाने में किया जाएगा तो पूर्व अर्जित ज्ञान समाधान पाने में विफल रह जाएगा। किसी विशिष्ट समस्या के समाधान करने में कुशल व्यक्ति भी अभिप्रेरणा के अभाव में अपनी दक्षता एवं योग्यता का सही लाभ उठा नहीं पाता है। कभी ऐसा भी होता काम प्रारम्भ करने के तुरन्त बाद ही कर्ता अपने को असहाय मानकर काम करना छोड़ देता है। यह संदिग्ध सोच समस्या समाधान का बाधक बन जाता है।
सारांशतः माना जा सकता है कि समस्या समाधान के लिए मानसिक विन्यास, कार्यात्मक स्थिरता, अधिप्रेरणा का अभाव तथा दृढ़ता प्रमुख अवरोधक माने जाते हैं। कोई भी कर्ता समस्या समाधान के क्रम में उचित परिणाम का अभाव पाते ही अवरोध के रूप में प्रयुक्त साधनों या विधियों को अवरोधक मान लेता है। अतः समस्या समाधान के दो प्रमुख अवरोधक के रूप में मानसिक विन्यास तथा अभिप्रेरणा का अभाव अपनी पहचान गलत परिणाम के कारण पहचान लिये जाते हैं।
प्रश्न 4. समस्या समाधान में तर्कना किस प्रकार सहायक होती है ?
उत्तर: किसी के घर में आग की लपेटों को देखकर बहू का जलाया जाना सदा सत्य नहीं होता है। आग की लपटें कई कारणों से देखी जा सकती हैं। बहू का जलाया जाना मात्र एक अनुमान है। जब हम यह जान लेते हैं कि उस घर में कोई बहू है ही नहीं तो अपने अनुमान को वहीं लुप्त कर देते हैं। समस्या के लक्षणे के आधार पर अनुमान लगाना और समस्या के सही कारणों का पता लगाना अलग-अलग बात है। हम समस्या जानकर तर्क के आधार पर परिणाम पाने का प्रयास करते हैं जिसमें तर्कना हमारा काफी सहयोग करता है।
तर्कना एक निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए सूचनाओं को एकत्रित एवं विस्तारित करने की एक प्रक्रिया है। अतः तर्कना के माध्यम से कोई व्यक्ति अपने चिन्तन को क्रमबद्ध बनाता है तथा तर्क-वितर्क के आधार पर एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है। इस अर्थ में तर्कना समस्या समाधान की एक सफल विधि है। तर्कना के द्वारा ही हम प्राप्त सूचनाओं को सही निष्कर्ष में रूपान्तरित कर सकते हैं। तर्कना की शुरुआत पूर्वज्ञान अथवा अनुभव पर आधारित अनुमान से होती है।
जो तर्कना एक अभिग्रह या पूर्वधारणा से प्रारम्भ होता है उसे निगमनात्मक तर्कना कहते हैं। कुछ तर्कना विशिष्ट तथ्यों एवं प्रेक्षण पर आधारित होता है, उसे आगमनात्मक तर्कना के रूप में पहचानते हैं। तर्कना हमें क्रमबद्ध अनुमानों पर सोचने-समझने का अवसर देता है और सही निष्कर्ष पाने में सहयोग देता है। आग की लपटें देखकर पहला अनुमान किया गया कि लगता है बहू जला दी गई। लेकिन जब पता चला कि घर में कोई बहू नहीं है तो पहला अनुमान प्राप्त सूचना के कारण असत्य माना गया। दूसरा अनुमान किया गया कि कोई अंगीठी जलाया होगा। सूचना मिली कि गर्मी के मौसम में कौन अंगीठी जलायेगा।
फलत: इसका अनुमान भी गलत सिद्ध हो गया। इसी प्रकार खाना बनाने, कच्चा कोयला जलाने, रद्दी कागज को नष्ट करने जैसी कल्पनाएँ की गईं लेकिन तर्क के द्वारा सबके सब अनुमान असत्य निकले। सम्बन्धित घर जाकर पता लगाया गया। सूचना प्राप्त हुई कि आतिशबाजी का खेल खेला जा रहा था। इस प्रकार असंख्य उदाहरण हैं जो इस बात के साक्षी हैं कि समस्या समाधान के लिए अनुमान को तर्क-वितर्क के द्वारा परखने के बाद ही निर्णय लिया जाना चाहिए। काले रंग से कोयला और पूर्ववत वर्ण से तर्क का माना जाना कोरी कल्पना भी हो सकती है। सही निष्कर्ष तर्कना के माध्यम से ही संभव होता है।
प्रश्न 5. क्या निर्णय लेना एवं निर्णयन अंत: संबंधित प्रक्रियाएँ हैं? व्याख्या कीजिए।
उत्तर: निर्णय लेना एवं निर्णयन अंतः संबंधित प्रक्रियाएँ हैं। निर्णय लेने में ज्ञात जानकारियों तथा उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर निष्कर्ष प्राप्त किया जाता है। धारणा स्थापित किये जाते हैं और संबधित वस्तुओं और घटनाओं का मूल्यांकन किए जाते हैं। कुछ निर्णय स्वचालित भी होते हैं। तमाम संभव परिणामों के मूल्यांकन पर अंतिम निर्णय लेना उचित माना जाता है। निर्णयन में पूर्व ज्ञात विभिन्न समाधान या विकल्पों में से एक का चयन कर लिया जाता है। चयनित विकल्प कभी-कभी व्यक्तिगत स्वार्थ, समझ और रुचि पर आधारित होता है। विकल्पों में से. लागत-लाभ के आधार पर किसी एक को चयन करने की विधि प्रचलित है।
निर्णय अस्थायी तथा अस्वाभाविक भी हो सकता है। जैसे, एक सज्जन पुरुष को पहली मुलाकात में पोशाक के आधार पर हमारे होने का गलत निर्णय ले लिया जा सकता है। निर्णयन में भी विकल्पों के चयन में गलत परामर्श के कारण गलत विकल्प को सही निष्कर्ष माना जा सकता है। अतः निर्णय लेने तथा निर्णयन समस्या समाधान के क्रम में सम्पादित की जाने वाली क्रियाएँ हैं। दोनों के पास कुछ प्रेरक विशेषताएँ होती हैं तो कुछ दोषपूर्ण स्थितियाँ भी दोनों के साथ जुड़ी रहती हैं। फिर भी, दोनों को अंत: संबंधित मानना सही निर्णय है, क्योंकि दोनों विचारों को प्राथमिकता देने या कार्यरूप में परिणत करने का साधन माना जा सकता है।
प्रश्न 6. सर्जनात्मक चिंतन प्रक्रिया में अपसारी चिंतन क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर: दृष्य और साध्य अपनी नवीनता लिए स्वरूप के कारण दर्शनीय बन जाते हैं। तरह-तरह की आकृति, संरचना एवं उपयोगिता के साथ लोग पुराने मोबाइल सेट के बदले नया सेट लेने को उत्सुक हो जाते हैं।
यह प्रवृत्ति सृजनात्मक चिंतन के कारण ही उत्पन्न होती है। निर्माता अपनी संरचना में सृजनात्मक चिन्तन का प्रयोग करके उपभोक्ताओं को कुछ नया कमाल दिखाना चाहते हैं। किसी चिंतन को तब सर्जनात्मक माना जाता है जब वास्तविकता की ओर उन्मुख उपयुक्त, रचनात्मक तथा सामाजिक रूप से वांछित हो।
सर्जनात्मकता शोध के अग्रणी जे. पी. जिलफर्ड के मतानुसार सृजनात्मक चिंतन दो प्रकार के होते हैं -
1. अभिसारी चिंतन तथा 
2. अपसारी चिंतन
1. अभिसारी चिंतन: अभिसारी चिंतन की आवश्यकता वैसी समस्या को हल करने में पड़ती है जिसका मात्र एक सही उत्तर होता है। जैसे-1,4,9, 16 के बाद 25 ही होगा।
2. अपसारी चिंतन: अपसारी चिंतन को एक मुक्त चिंतन माना जाता है जिसमें किसी समस्या के समाधान हेतु कई संभावित उत्तर हो सकते हैं। जैसे- नदी से क्या लाभ है के लिए कई सही उत्तर होते हैं। अपसारी चिंतन नवीन एवं मौलिक विचारों को उत्पन्न करने में सहायक होता है। अपसारी चिंतन योग्यता के अन्तर्गत सामान्य तथा -
● चिंतन प्रवाह
• लचीलापन और
• विस्तारण आते है जिन विशेषताओं के कारण अपसारी चिंतन को महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
अपसारी चिंतन के महत्त्वपूर्ण कहलाने के कारण:
अपसारी चिंतन में मौलिक विचारों को प्राथमिकता दी जाती है। निम्न वर्णित विशेषताओं के कारण इसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है -
1. चिंतन प्रवाह: किसी विशिष्ट चिंतन के कारण उत्पन्न समस्याओं के लिए अनेक विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता रहती है। कोई व्यक्ति किसी समस्या के समाधान हेतु अपनी योग्यतानुसार अन्य व्यक्तियों की तुलना में कई संभावनाओं को प्रकट कर सकता है। जैसे- बाढ़ की विभीषिका से बचने के कई उपाय सुझाये जा सकते हैं। विचारों की संख्या के बढ़ने से चिंतन प्रवाह को अधिक होना माना जायेगा।
2. लचीलापन: किसी एक ही वस्तु, घटना या समस्या के संबंध में अलग-अलग राय प्रकट की जाती है। एक ही फिल्म के दर्शकों में से कोई संगीत को पसन्द करता है तो कोई मार-धाड़ के दृश्यों से प्रभावित होता है। अर्थात् एक ही समस्या के समाधान हेतु विविध विधियों, व्याख्याओं तथा साधनों के संबंध में चिंतन किया जा सकता है।
3. मौलिकता: परम्परागत विचारों को सम्मान देते हुए नये विचारों की व्याख्या करना अथवा नवीन संबंधों का प्रत्यक्षण, चीचों को भिन्न परिप्रेक्ष्य में देखना आदि मौलिकता को बनाए रखने में सहायक होते हैं। चिंतन की इस विशेषता के द्वारा दुर्लभ या असाधारण विचारों को उत्पन्न किया जा सकता है। कोई व्यक्ति मौलिकता को बनाये रखते हुए जितने अधिक एवं विविध विचार प्रस्तुत करता है, उसमें उतनी ही अधिक योग्यता या क्षमता मानी जाती है।
4. विस्तरण: अपसारी चिंतन की एक विशेषता विस्तरण भी है जो किसी व्यक्ति को नए विचार को विस्तार (पल्लवित) करने तथा उसके निहितार्थ को स्पष्टतः समझने का अवसर जुटाती है। अर्थात् अपसारी चिंतन में विविध प्रकार के ऐसे विचारों को उत्पन्न करना सुगम हो जाता है जो एक-दूसरे से संबंधित होते हैं।
जैसे, फसल की वृद्धि के लिए आवश्यक साधनों, उपायों एवं पद्धतियों के सम्बन्ध में तरह-तरह के विचारों (खाद, खरपतवार, सिंचाई) को प्रकट करने की क्षमता तथा आवश्यकता उभरकर सामने आती है। अपसारी चिंतन की महत्ता को बचाने के लिए विचारों को स्थिर एवं उपयोगी बनाकर रखना वांछनीय है। अतः अपसारी चिंतन विविध प्रकार के विचार को उत्पन्न करने के लिए अति आवश्यक है।
प्रश्न 7. सर्जनात्मक चिंतन में विभिन्न प्रकार के अवरोधक क्या हैं?
उत्तर: सामान्य या साधारण मनुष्य भी सृजनात्मक चिंतन करके उपयोगी उपाय, विधि, नियम आदि को प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है। व्यक्ति बदलने से अभिव्यक्ति में अंतर आ सकता है। लेकिन उन्हें प्रोत्साहन देने के साथ-साथ अवरोध मुक्त रहने की आवश्यकता होती है। सृजनात्मक चिंतन में अवरोध उत्पन्न करने वाले कारणों को कई भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है -
1. आभ्यासिक
2. प्रात्यक्षिक
3. अभिप्रेरणात्मक
4. संवेगात्मक तथा
5. सांस्कृतिक
1. आभ्यासिक अवरोध: आदतों के अधीन होकर सोचने की विधि पाने का प्रयास हानिकारक हो सकती है। पूर्व अर्जित ज्ञान के अधिक प्रचलित व्यवहार के कारण नई विधियों की आवश्यकताओं पर कोई चिंतन करना नहीं चाहता है। शीघ्रता से निष्कर्ष पाने की प्रवृत्ति, समस्याओं को नया स्वरूप देने में अरुचि, पुरानी विधि का अत्यधिक कार्य करने के सामान्य एवं घिसे-पिटे तरीके से संतुष्ट हो जाना आदि सृजनात्मक चिंतन के लिए नया रास्ता पाने में अवरोधक का काम करते हैं। हमारी पुरानी धारणाएँ एवं पुरानी कुशलता नये प्रयास के प्रति हमारी रुचि का हनन करने में सक्रिय भूमिका निभाते है।
2. प्रात्यक्षिक अवरोध: प्रात्यक्षिक अवरोध हमें नए और मौलिक विचारों के प्रति खुला दृष्टिकोण रखने से रोकते हैं। विचारों अथवा विधियों पर प्रतिबन्ध लगाकर सृजनात्मक चिंतन पर रोक लगा दी जाती है। मवेशियों को बिना लाठी का चराना इसी तरह के प्रतिबन्ध का एक उदाहरण है।
3. अभिप्रेरणात्मक अवरोध: किसी नये काम को पूरा करने से सक्रिय व्यक्ति बाहरी व्यक्ति के परामर्श से परेशान होकर काम करना बन्द कर देते हैं। कोई उसे गड्ढा खोदने से रोकता है, कोई माता-पिता के जानने का काम करता है। इस प्रकार उचित अभिप्रेरणा का अभाव चिंतन के लिए बाधक बन जाता है।
4. संवेगात्मक अवरोध: किसी काम से जुड़े, व्यक्ति को असफलता की गारंटी बताकर हतोत्साह करना, हँसी का पात्र बन जाने की संभावना बताना, दुर्बल धारणा को जन्म देकर चिंतन क्षमता में कमी लाने का प्रयास है। स्वयं के प्रति नकारात्मक विचार, असमर्थता का बोध, निन्दा की चिन्ता आदि संवेगात्मक अवरोध बनकर सृजनात्मक चिंतन को विराम की स्थिति में ला देते हैं।
5. सांस्कृतिक अवरोध: सृजनात्मक चिंतन के क्रम में पारस्परिक विधियों का अत्यधिक अनुपालन, अस्वाभाविक अपेक्षाएँ, अनुरूपता दबाव, रूढ़िवादी विचार, साधारण लोगों से भिन्न प्रतीत हो जाने का भय, यथास्थिति बनाये रखने की प्रवृत्ति, सुरक्षा का संचरण, सामाजिक दबाव, दूसरों पर अत्यधिक निर्भरता आदि के प्रभाव में पड़कर सृजनात्मक चिंतन से विमुख हो जाते हैं। अतः सृजनात्मक चिंतन के लिए स्वतंत्र रूप से आशावादी दृष्टिकोण के साथ विचार प्रकट करने की सुविधा मिलनी चाहिए।
प्रश्न 8. सर्जनात्मक चिंतन को कैसे बढ़ाया जाता है ?
उत्तर: सर्जनात्मक चिंतन को बढ़ाने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण अभिवृत्तियों, प्रवृत्तियों तथा कौशल के प्रति सतर्कता निभाने की आवश्यकता होती है। कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं-
1. अपने परिवेश (अनुभूतियों, दृश्यों, ध्वनियों, रचना, गुणों) के प्रति सदा सतकर्ता बरतना चाहिए तथा संवेदनशील बनकर समस्याओं, सूचनाओं, असंगतियों, कमियों, अपूर्णताओं पर जिज्ञासु नजर रखना चाहिए।
2. विस्तृत अध्ययन, सूचना, संग्रह, आदतों में सुधार, प्रश्नोत्तर विधि से परिस्थितियाँ तथा वस्तुओं के रहस्य को जानकर अपने चिंतन का विकास किया जा सकता है।
3. योजना, परामर्श, प्रतिक्रिया, प्रबंधन, व्यवस्था सम्बन्धी समस्याओं को चातुर्यपूर्ण तरीके से हल कर लेना चाहिए।
4. किसी कार्य को बहुविधीय पद्धति से परीक्षण करते रहना चाहिए।
5. बुरी आदतों, क्रोधी मित्रों, असहाय व्यक्तियों से उत्तम व्यवहार करना चाहिए।
6. विचारों को मूल्यांकन के बाद ही सार्वजनिक कराना चाहिए ।
7. विचार प्रवाह के लचीलेपन को कायम रखना चाहिए।
8. शान्त चित्त से स्वतंत्र अवस्था में रहकर चिंतन करना चाहिए।
9. विचारों में नए संयोजन को विकसित करना चाहिए।
10. अभ्यास एवं उपयोग के प्रति निरन्तरता और सावधानी बनाए रखना चाहिए।
11. जीवन में साहित्य एवं भाषा ज्ञान को प्राथमिकता देनी चाहिए |
12. सूचनाओं का भंडार बनाकर उपयोगी सूचनाओं के सम्बन्ध में ही चिंतन करना चाहिए।
13. अपने विचार को उद्भावित होने का अवसर देना चाहिए।
14. सदा असफलता से सामंजस्य स्थापित करके चिंतन करना चाहिए।
15. कारणों और परिणामों को परिस्थितियों से जोड़कर पहचानना चाहिए।
16. समस्या से जुड़े भय या संकट से मुक्ति का सर्वमान्य तरीका अपनाना चाहिए।
17. आत्मविश्वासी, धैर्यवान, शांत प्रकृति वाला एक योग्य चिंतक बनकर नित्य अभ्यास और चिंतन में लगा रहना चाहिए।
प्रश्न 9. क्या चिंतन भाषा के बिना होता है? परिचर्चा कीजिए।
उत्तर: भाषा के अभाव में चिंतन लगभग असंभव ही होता है, क्योंकि भाषा चिंतन सामग्री को जुटाने में सहायता करता है। भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं, विचारों आदि को सामाजिक रूप से स्वीकृत मानकों के रूप में अभिव्यक्त करता है। मनुष्य की अभिव्यक्ति के लिए शब्द या भाषा का होना अतिआवश्यक है। चिंतन और भाषा के पारस्परिक संबंधों को तीन विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है जो इस प्रकार हैं-
1. विचार के निर्धारक के रूप में भाषा 
2. भाषा निर्धारक के रूप में विचार तथा 
3. भाषा एवं चिन्तन के भिन्न उद्गम
1. विचार के निर्धारक के रूप में भाषा: हमारी चिंतन प्रक्रिया पूर्णता भाषा की समृद्धि पर निर्भर करती है। बेंजामिन ली व्हार्फ का मानना था कि भाषा विचार की अंतर्वस्तु का निर्धारण करती है। इस दृष्टिकोण को 'भाषाई सापेक्षता प्राक्कल्पना' के नाम से जाना जाता है। अतः व्यक्ति संभवतः क्या और किस प्रकार सोच सकता है, इसका निर्धारण उस व्यक्ति के द्वारा प्रयुक्त भाषा-भाषाई वर्गों के भाषा 'नियतित्ववाद' से होता है। सच तो यह है कि सभी भाषाओं में विचार की गुणवत्ता एवं महत्व का समान स्तर पाया जाना स्वाभाविक होता है। भले किसी भाषा में विचार प्रकट करना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है।
2. भाषा निर्धारक के रूप में विचार: प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे का मानना था कि भाषा न केवल विचार का निर्धारण करती है, बल्कि यह इसके पहले भी उत्पन्न होती है। उसके अनुसार बच्चे संसार का आंतरिक निरूपण चिंतन के माध्यम से ही करते हैं। बच्चों में अनुकरण की स्वाभाविक वृत्ति में भाषा के प्रयोग आवश्यक नहीं होता है। बच्चों के व्यवहार में चिंतन का उपयोग संभव होता है। सही है कि चिंतन के साधनों में से भाषा भी एक साधन मात्र होता है। पियाजे का मानना था कि बच्चों को भाषा का ज्ञान दिया जा सकता है, किन्तु ज्ञान का होना भी आवश्यक होता है। भाषा को समझने के लिए विचार (चिंतन) आधारभूत एवं आवश्यक कारक (तत्व) होते हैं।
3. भाषा एवं चिन्तन के भिन्न स्वरूप: रूसी मनोवैज्ञानिक लेल पायगोत्संकी ने बच्चों की प्रवृत्ति पर विशेष ध्यान करने के उपरान्त बतलाया था कि लगभग दो वर्ष की उम्र तक बच्चों में भाषा और विचार का विकास अलग-अलग स्तरों पर होता है।
इस अवस्था में बच्चों को पूर्ववाचिक माना जाता है। बच्चे अपने हाव-भाव के द्वारा अपने विचार को प्रकट किया करते हैं। बच्चे ध्वनिरहित भाषा के माध्यम से अपने विचार को तार्किक रूप से प्रस्तुत करने की क्षमता रखते हैं। जब चिंतन का माध्यम अवाचित होता है तो विचार का उपयोग बिना भाषा के किया जा सकता है।
भाषा का उपयोग बिना चिंतन या विचार के तब किया जाता है जब भावना (खुशी, गम, दिल्लगी) को अभिव्यक्त करना होता है। क्रिया और प्रतिक्रिया एक-दूसरे में व्याप्त होती है। इस दशा में विचार एवं तार्किक भाषा को उत्पन्न करने में वाचक और श्रोता समान रूप से भागीदारी निभाते हैं। अर्थात् दो वर्षों से अधिक उम्र वाले बच्चों में संप्रत्ययात्मक चिंतन का विकास आंतरिक भाषा की गुणवत्ता पर निर्भर करता है, क्योंकि बड़े बच्चे अपने विचार को वाणी के माध्यम से व्यक्त करने लगता हैं।
अतः विभिन्न आयु वाले व्यक्तियों में भाषा अर्जन करने तथा अपने विचारों को व्यक्त करने का तरीका अलग-अलग होता है। भाषा के अभाव में अपनी अनुभूतियों को संप्रेषित करना बहुत ही अस्वाभाविक या कठिन कार्य माना जाता है। दूसरों के विचार को पूर्णत: समझ पाना भी भाषा के माध्यम से ही सरल होता है।
बच्चे, भाषा की जगह प्रतीकों अथवा इशारों का प्रयोग करना सीख जाते हैं। यही कारण है कि छोटे बच्चे (नवजात शिशु) तरह-तरह की ध्वनियों के माध्यम से माता-पिता को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। बच्चों के द्वारा बलबलाना या छोटे शब्दों का प्रयोग करना स्पष्ट करता है कि वे भाषा-ज्ञान की प्राप्ति एवं प्रयोग के लिए बेचैनी महसूस कर रहे हैं। प्रस्तुत परिचर्चा से स्पष्ट हो जाता है कि भाषा और चिंतन जटिल रूप से संबंधित होते हैं।
प्रश्न 10. मनुष्य में भाषा का अर्जन किस प्रकार होता है?
उत्तर: मनुष्य में भाषा अर्जन में प्रकृति और परिपोषण का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। व्यवहारवादी बी. एम. स्किनर के साथ-साथ अनेक विद्वानों का मानना है कि साहचर्य, अनुकरण तथा पुनर्बलन को अपनाकर ही भाषा अर्जन का आरम्भ किया जा सकता है। सामान्य तौर पर भाषा के अर्जन के लिए भाषा में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ जानना, कथन को समझाने की क्षमता बढ़ाना, शब्दावली का निर्माण, वाक्यों की संरचना एवं आशय को पहचानना तथा शुद्ध उच्चारण की कला सीखना आदि शामिल है। दूसरे दृष्टिकोण से यह भी माना जा सकता है कि भाषा अर्जन के लिए उत्तम स्वास्थ्य, उचित बुद्धि का विकास, सामाजिक प्रथाओं अथवा नियमों का ज्ञान, आर्थिक दशायें, सम्पन्नता, परिवेश, जन्म-क्रम, आयु, यौन आदि कारकों पर भी ध्यान रखना अनिवार्य होता है।
भाषा अर्जन का आरम्भ जन्म क्रन्दन से होता है। इसके बाद विस्फोटक ध्वनियाँ, बलबलाना, हाव-भाव के साथ अस्पष्ट ध्वनि के द्वारा विचार प्रकट करना आदि पाये जाते हैं। शिशुओं की मौन अवस्था के पश्चात् एक वर्ष की उम्र में वह पहला शब्द बोलता है। दो वर्ष की उम्र तक भाषा एवं विचार का विकास अलग-अलग स्तर पर होता है।
भाषा अर्जन में अगल-बगल में उत्पन्न ध्वनियों का अनुकरण क्रमिक रूप से वांछित अनुक्रिया के समीप ले आता है। फलतः प्रभाव में आने वाला बच्चा सार्थक वाक्य के रूप में भावना को व्यक्त करना सीख लेता है। बड़े होकर मनुष्य कहानी, साहित्य, नाटक, वार्तालाप, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भाषा सम्बन्धी ज्ञान का अर्जन करता है। किसी विशिष्ट भाषा से सम्बन्धित व्याकरण का ज्ञान, शब्द-युग्मों का प्रयोग, पर्यायवाची शब्द, अलंकार आदि को जानकर कोई व्यक्ति भाषा ज्ञान को समृद्ध बनाता है।

Post a Comment

0 Comments