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Bharati Bhawan Class 9th Economics Chapter 6 | Short Questions Answer | Class IX Arthshastr Krishi evn Khadan Suraksha | कृषि मजदूरों की समस्याएँ | भारती भवन कक्षा 9वीं अर्थशास्त्र अध्याय 6 | लघु उत्तरीय प्रश्न

Bharati Bhawan Class 9th Economics Chapter 6 | Short Questions Answer | Class IX Arthshastr Krishi evn Khadan Suraksha | कृषि मजदूरों की समस्याएँ | भारती भवन कक्षा 9वीं अर्थशास्त्र अध्याय 6 | लघु उत्तरीय प्रश्न
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. कृषि श्रमिकों के मुख्य प्रकार क्या हैं ?
उत्तर- कृषक मजदूर को मुख्यतः तीन भागों बाँटा जा सकता है
(i) खेत में काम करनेवाले मजदूर- इसके अन्तर्गत हलवाहे, फसल काटनेवाले आदि आते हैं
जिन्हें पूर्ण रूप से कृषक मजदूर कहा जाता है। ये अपने काम के क्रम में कुशलता प्राप्त कर लेते हैं।
(ii) कृषि से सम्बद्ध अन्य कार्य करनेवाले मजदूर- इसके अंतर्गत कुआँ खोदनेवाले, गाड़ीवान आदि आते हैं। इन्हें अद्धकुशल मजदूर कहा जाता है। 
(iii) वैसे मजदूर जो कृषि के अलावे अन्य सहायक उद्योगों में भी लगे हुए हैं। इसके अन्तर्गत बढ़ई, लोहार, कुम्भकार आदि आते हैं। इन्हें ग्रामीण कलाकार भी कहा जा सकता है ।
राष्ट्रीय श्रम आयोग ने कृषक मजदूरों को दो भागों में बाँटा है-
(i) भूमिहीन श्रमिक- ये ऐसे श्रमिक हैं जिनके पास खेती करने के लिए अपनी कोई भूमि नहीं है।(ii) बहुत से छोटा किसान- ये ऐसे श्रमिक हैं जिनके पास बहुत थोड़ी मात्रा में अपनी भूमि होती है।
2. बिहार में कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि के क्या कारण हैं ?
उत्तर- बिहार में कृषि श्रमिकों की संख्या बहुत अधिक है तथा इसमें निरंतर वृद्धि हो रही है। इसके अनेक कारण हैं, देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा बिहार की जनसंख्या में अधिक तेजी से वृद्धि हो रही है। जनसंख्या में होनेवाली इस वृद्धि का अतिरिक्त बोझ मुख्यतया कृषि को वहन करना पड़ता है वृहत उद्योगों का इससे कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हो रही है। बिहार में सर्वथा अभाव है। अनेक कारणों से राज्य के चीनी, जूट, कागज आदि कृषि आधारित उद्योग भी रुग्ण अवस्था में है तथा इनमें अधिकांश बंद हो गए है। इससे कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हुई है। बिहार में कृषि मजदूरों की संख्या में वृद्धि का एक अन्य कारण यहाँ की वर्तमान भूमि-व्यवस्था है। जमींदारी उन्मूलन के बाद राज्य में भूमि सुधार का कोई भी कार्यक्रम प्रभावी रूप से कार्यान्वित नहीं हुआ है। अधिकांश किसानों के जोत बहुत छोटे है, उनकी आय बहुत कम है। और वे प्राय: ऋणग्रस्त होते है। अतः वे अपनी भूमि बड़े किसानों अथवा महाजनों के हाथों बेचने के लिए बाह्य हो जाते हैं। इसके फलस्वरूप अनेक छोटे और सीमांत किसान अब भूमिहीन श्रमिक हो गए हैं।
3. बिहार के बहुत छोटे और सीमांत किसान धीरे-धीरे भूमिहीन मजदूर होते जा रहे हैं। क्यों ?
उत्तर- बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि का वितरण बहुत विषम है तथा राज्य में छोटे अथवा सीमांत किसानों का बाहुल्य है। इनकी कृषि-जोतों का आकार बहुत छोटा है तथा इसकी उपज 1 उनके जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त नहीं होती है। इन्हें सहकारी समितियों तथा बैंकिंग संस्थाओं से साख प्राप्त करने में भी बहुत कठिनाई होती है। योजना आयोग के अनुसार, बिहार के लगभग 70 प्रतिशत छोटे किसान ऋणग्रस्त हैं। इसके फलस्वरूप वे धीरे-धीरे अपनी भूमि बड़े किसानों या महाजनों के हाथों बेचने के लिए बाध्य हो जाते हैं। यही कारण है कि राज्य के अधिकांश सीमांत किसान अब भूमिहीन मजदूर होते जा रहे हैं।
4. उत्तरी बिहार में कृषि मजदूरों की आर्थिक स्थिति अधिक दयनीय होने के क्या कारण हैं ?
उत्तर- उत्तरी बिहार की भूमि बहुत उर्वर है। लेकिन, इस क्षेत्र के कृषि मजदूरों की आर्थिक स्थिति अत्यधिक दयनीय है। इसका प्रमुख कारण इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष नियमित रूप से आनेवाली बाढ़ है। राज्य सरकार के 2008-09 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, इस क्षेत्र की लगभग 76 प्रतिशत जनसंख्या बाढ़ उनमुख है। इससे उत्तरी बिहार की लाखों हेक्टेयर भूमि की फसल नष्ट हो जाती हैं। परिणामतः, इस क्षेत्र में मौसमी बेरोजगारी बहुत अधिक है तथा कृषि मजदूरों की आर्थिक स्थिति दयनीय है।
5. कृषि मजदूरों की समस्याओं के समाधान में कृषि आधारित उद्योगों का क्या योगदान हो सकता है ?
उत्तर- बिहार के कृषि मजदूरों की समस्याओं के समाधान में कृषि आधारित उद्योगों का महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है। बिहार की भूमि बहुत उर्वर है और यहाँ कई प्रकार की व्यावसायिक फसलों का उत्पादन होता है। गन्ना यहाँ की एक प्रमुख व्यावसायिक फसल है जिसका चीनी उद्योग में प्रयोग किया जाता है। यह उद्योग राज्य के लाखों किसानों के लिए आय एवं आजीविका का प्रमुख साधन रहा है। अनुमानत, लगभग 5 लाख किसान गन्ने की खेती में लगे हैं तथा 50 हजार कुशल अकुशल श्रमिक चीनी उद्योगों में नियोजित हैं, कृषि पर आधारित उद्योगों में जूट उद्योग बिहार का दूसरा प्रमुख उद्योग है। लेकिन, यह उद्योग भी अनेक गंभीर समस्याओं से ग्रस्त है। सब्जी और फलु के उत्पादन में बिहार का स्थान अग्रणी है। वर्ष 2006-07 में राज्य में फल और सब्जी का उत्पादन क्रमशः 34 लाख टन और 136 लाख टन था। इस प्रकार राज्य में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की संभावनाएँ बहुत अधिक हैं तथा इनके विकास द्वारा कृषि श्रमिकों के लिए पर्याप्त मात्रा में रोजगार के अतिरिक्त अवसरों का सृजन किया जा सकता है।  
6. कृषि मजदूरों की समस्याओं के समाधान के लिए सरकार द्वारा चलाए जा रहे दो रोजगार कार्यक्रमों का उल्लेख करें।
उत्तर- बिहार में कृषि श्रमिकों की संख्या बहुत अधिक है। इनमें अधिकांश भूमिहीन श्रमिक हैं जो मौसमी बेरोजगारी और रोजगार की अनिश्चितता के शिकार हैं। रोजगार, आयवृद्धि एवं खाद्यान्न सुरक्षा इनकी आधारभूत समस्या है। सरकार ने इनकी समस्याओं के समाधान के लिए समय-समय पर कई विशिष्ट कार्यक्रमों का कार्यान्वयन किया है। वर्तमान में इनकी आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए जो कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं उनमें स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के अधीन चलाए जा रही योजनाएँ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं |
स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना अप्रैल 1999 में आरंभ की गई। यह ग्रामीणों के स्वरोजगार के लिए एक एकीकृत योजना है तथा इसमें पूर्व के सभी स्वरोजगार कार्यक्रमों को समाहित कर दिया गया है। स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना ग्रामीण समुदायों में स्वयं सहायता समूहों तथा व्यक्तिगत स्वरोजगार कार्यक्रमों द्वारा स्वरोजगार को बढ़ावा देने की योजना है। इसके अंतर्गत बिहार में 2007-08 में 14.036 स्वयं सहायता समूह बनाए गए तथा इनमें महिला स्वयं सहायता समूहों की संख्या अधिक है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम (नरेगा) माँग - आधारित गारंटीशुदा रोजगार कार्यक्रम है। यह विश्व की सबसे वृहत सामाजिक सुरक्षा योजना है। इस योजना के अंतर्गत देश में 3.39 करोड़ ग्रामीण परिवारों को रोजगार प्रदान किया गया है। इस कार्यक्रम द्वारा बिहार में 2007-08 में 38 लाख से भी अधिक परिवारों के लिए कुल 841 लाख श्रम दिवस का सृजन हुआ था।
7. बिहार से कृषि श्रमिकों के पलायन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर- अपने मूल गाँव में काम और मजदूरी नहीं मिलने के कारण ही बिहार से कृषि श्रमिकों का देश के दूसरे राज्यों में पलायन हुआ है। प्रवासी मजदूरों के लिए इनके नये स्थानों में रोजगार के अधिक अवसर उपलब्ध हैं और इन्हें वेतन या मजदूरी भी अधिक मिलती है। इससे उनमें बचत करने की श्रमता बढ़ी है। वे अपने बढ़ी हुई मजदूरी या पारिश्रमिक का एक भाग बचाकर गाँव में अपने परिवारों को भेजते हैं। इससे इनके परिवार के सदस्यों के रहन-सहन के स्तर में सुधार हुआ है। इनके बचत के एक भाग का बिहार के गाँवों में भी निवश हो रहा है। इससे राज्य में कई गाँवों में गैर-कृषि क्रियाकलापों का विस्तार हुआ है। कृषि श्रमिकों के यहाँ से पलायन के फलस्वरूप किसान और कृषि मजदूरों के आर्थिक संबंधों में परिवर्तन हुआ है। अब कृषि के व्यस्त उ मौसम में बिहार के गाँवों में कृषि श्रमिकों की कमी हो जाती है। अतएव, अब बड़े किसान कृषि मजदूरों को पूर्व की अपेक्षा अधिक पारिश्रमिक देने लगे हैं। फिर भी बिहार से कृषि श्रमिक बिहार से पलायन नहीं रूका है।
8. स्वामी सहजानंद सरस्वती कौन थे तथा इन्होंने बिहार में कृषि श्रमिकों को संगठित करने के लिए क्या सुझाव दिया था ? 
उत्तर- स्वामी सहजानंद सरस्वती बिहार में किसान आंदोलन के प्रवर्तक तथा 'किसान सभा ' के संस्थापक थे। इनके अनुसार, यहाँ के कृषि मजदूर विभिन्न जाति और धर्म के हैं तथा बँटे हुए हैं। इन्हें औद्योगिक श्रमिकों के समान संगठित करना संभव नहीं है। यही कारण है कि इन्होंने कृषि श्रमिकों तथा निर्धन किसानों के एक संयुक्त संगठन की स्थापना का सुझाव दिया था। इस प्रकार के संगठन से ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े किसानों और महाजनों द्वारा शोषण कम होगा और कृषि मजदूरों की समस्याओं के समाधान में सहायता मिलेगी।
9. कृषि मजदूरों को कितने वर्गों में विभाजित किया जा सकता है ? अथवा, कृषि-श्रमिकों के मुख्य प्रकार क्या हैं ?
उत्तर- हमारे देश में कृषि श्रमिकों का कई प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। राष्ट्रीय आयोग के अनुसार, कृषि श्रमिक दो प्रकार के होते हैं— भूमिहीन श्रमिक और बहुत छोटे किसान। भूमिहीन श्रमिक वे हैं जिनके पास कोई निजी भूमि नहीं होती और वे दूसरों की भूमि पर खेती कर अपना जीविकोपार्जन करते हैं। कृषि श्रमिकों का एक दूसरा वर्ग बहुत छोटे किसानों का है। इन छोटे या सीमांत किसानों के पास कुछ निजी भूमि भी होती है, लेकिन वह उनके जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त नहीं होती। अतः, वे दूसरों की भूमि पर कृषि मजदूर के रूप में कार्य करने के लिए बाध्य होते हैं।
कृषि श्रमिक गहन सर्वेक्षण के प्रतिवेदन में इन्हें दो वर्गों में बाँटा गया है. स्थायी एवं आकस्मिक । स्थायी श्रमिक वे हैं जो किसी बड़ कास्तकार के यहाँ स्थायी रूप से पर वर्ष कार्य करते हैं। इन्हें स्थायी रीतियों के अनुसार एक निश्चित मजदूरी दी जाती है। इसके विपरीत, आकस्मिक श्रमिक वे हैं जो समय-समय पर विभिन्न काश्तकारों के यहाँ कार्य करते हैं।

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