1. बिहार की अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका की विवेचना करें।
उत्तर- बिहार एक कृषिप्रधान राज्य है। बिहार की कुल आय का बड़ा भाग कृषि से ही उत्पादित होता है। यहाँ के लोगों की जीविका, आय एवं रोजगार का कृषि ही प्रमुख आधार है। बिहार में लगभग 80 प्रतिशत लोग गाँवों में रहते हैं और उनकी अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। बिहार के विकास में कृषि का महत्वपूर्ण योगदान है। यह बात अनेक तथ्यों से स्पष्ट होता है
(i) कृषि अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों को खाद्यान्न एवं कच्चे माल की आपूर्ति करता है।
(ii) बचतों एवं करों के रूप में साधन प्रदान करता है।
(iii) कृषि के द्वारा ही ग्रामीण जनसंख्या अन्य क्षेत्रों के विकास को गति प्रदान किया जाता है क्योंकि उनके द्वारा की गई वस्तुओं की माँग पर उद्योग, व्यापार आदि का विकास एवं विस्तार निर्भर करता है।
राज्य से नकदी फसलें, आम, लीची, गन्ने आदि का निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है। ऐसा कहना सर्वथा यथार्थ है कि बिहार की कृषि में बढ़ती हुई उत्पादकता से बिहार के अन्य औद्योगिक विकास में विभिन्न प्रकार की सहायता प्राप्त होती है। बिहार की कृषि उत्पादकता अधिक होने पर कृषि क्षेत्र से अन्य क्षेत्रों को श्रम शक्ति का स्थानांतरण संभव होगा। इसके साथ-साथ गैर-कृषि क्षेत्र की बढ़ती हुई खाद्य सामग्री की माँग कृषि व्यवसाय में कम व्यक्ति रह जाने पर ही पूरा किया जा सकता है। इसके फलस्वरूप कृषि से जुड़े लोगों की आय भी बढ़ जाएगी। जब कृषि उत्पादन बढ़ता है तो राज्य की आय बढ़ती है और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है। बिहार में कृषि का योगदान राज्य की आय में काफी अधिक है।
कृषि बिहार में वस्तुओं की खरीद-बिक्री द्वारा अन्य के विकास एवं विस्तार का अवसर प्रदान करती है। यह खाद्यान्न एवं कच्चे माल की आपूर्ति अन्य क्षेत्रों में करता है और उद्योग के द्वारा निर्मित वस्तुओं के लिए बाजार उपलब्ध कराता है। इस प्रकार बिहार में कृषि से गैर-कृषि क्षेत्रों को भी प्रोत्साहन मिलता है।
2. बिहार में कृषि के पिछड़ेपन के क्या कारण है। इसके विकास के उपाय बताएँ ।
उत्तर - बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है। लेकिन, कृषि की प्रधानता होने पर भी देश के अन्य विकसित राज्यों की अपेक्षा यहाँ की कृषि पिछड़ी हुई अवस्था में है। इसके कई कारण हैं जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं
(i) मिट्टी का दोष-बिहार में कृषि के पिछड़ेपन अथवा इसकी उत्पादकता कम होने का एक प्रमुख कारण मिट्टी के गुण में एकरूपता का अभाव है। उत्तरी बिहार की मिट्टी के गुण मध्य एवं दक्षिण बिहार की मिट्टियों से सर्वथा भिन्न हैं। कही भूमि के कटाव अथवा जलजमाव की समस्या है तो कहीं की मिट्टी में नाइट्रोजन की कमी हैं।
(ii) दोषपूर्ण भूमि-व्यवस्था - बिहार की कृषि के पिछड़े होने का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण यहाँ की वर्तमान भूमि व्यवस्था है। जमींदारी उन्मूलन के पश्चात राज्य में भूमि सुधार का कोई भी कार्यक्रम प्रभावी रूप से कार्यान्वित नहीं हुआ है। भूमि सीमा निर्धारण से प्राप्त भूमि कानूनी विवादों में है तथा अधिग्रहित भूमि का उचित वितरण नहीं हो सका है।
(iii) जोतों का आकार-अन्य राज्यों की अपेक्षा बिहार में जोतों का आकार बहुत छोटा है। मध्य बिहार की अपेक्षा उत्तर बिहार में जोतों का आकार और भी छोटा है। इन छोटी औ अनार्थिक जोतों पर कृषि के आधुनिक तरीकों का प्रयोग करना संभव नहीं है।
(iv) बाढ़ और भूमि-क्षरण—बिहार में बाढ़ की समस्या अत्यधिक गंभीर है। बाढ़ का उत्तर बिहार में अधिक होता है। बाढ़ के कारण इस क्षेत्र में भूमि का एक बड़ा भाग प्रतिवर्ष परती रह जाता है। बाढ़ से भू-क्षरण भी होता है तथा इससे राज्य की लगभंग 20 लाख हेक्टेयर भूमि प्रभावित होती है।
(v) सिंचाई की सुविधाओं का अभाव- बिहार में सिंचाई की सुविधाओं का बहुत अभाव है। सुनिश्चित सिंचाई बिहार में कृषि विकास की अनिवार्य शर्त है। लेकिन, राज्य में पर्याप्त सिंचाई क्षमता होने पर भी उचित जल प्रबंधन के अभाव में उनका पूर्ण उपयोग नहीं हो सका है।
कृषि विकास और उसकी उत्पादकता मुख्यतया दो बातों पर निर्भर है- कृषि निवेश एवं संस्थागत सुधार । कृषि निवेश के अंतर्गत जल प्रबंधन, उन्नत बीज एवं खाद, आधुनिक यंत्र और उपकरण आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इसके लिए राज्य के निर्धन किसानों को पर्याप्त साख या वित्त की व्यवस्था अत्यंत आवश्यक है। बिहार में कृषि के पिछड़ेपन को दूर करने तथा उसकी उत्पादकता को बढ़ाने के लिए राज्य की भूमि व्यवस्था में भी सुधार आवश्यक है।
3. बिहार में किन खाद्य फसलों का उत्पादन होता है। हरित क्रांति का राज्य में खाद्यान्न के उत्पादन पर क्या प्रभाव हुआ है?
उत्तर- बिहार की भूमि बहुत उर्वर है तथा जैव विविधता के कारण यहाँ के किसान अनाज, दलहन, तेलहन तथा फल एवं सब्जी जैसी अनेक फसलों का उत्पादन करते हैं। लेकिन बिहार की कृशि व्यवस्था मूलतः जीवन निर्वाह पर आधारित है। इसके फलस्वरूप यहाँ की प्रमुख फसलों में खाद्य फसलों का अनुपात सबसे अधिक है। बिहार की प्रमुख खाद्य फसले निम्नांकित हैं—
(i) चावल- चावल बिहार की सबसे प्रमुख खाद्य पुसल है यह फसल खरीफ फसल के अंतर्गत आती है। साधारणतः यह वर्षाऋतु के आरंभ होने पर बोया जाता है और जाड़े में काट लिया जाता है। राज्य के प्रायः सभी क्षेत्रों में इसकी खेती की जाती है। लेकिन, इसके लिए बिहार का मैदानी भाग अधिक उपयुक्त है। चावल के उत्पादन में रोहतास, औरंगाबाद, कैमूर, भोजपुर और नालंदा राज्य के पाँच शीर्ष जिले है।
(ii) गेहूँ - बिहार की खाद्य फसलों में चावल के बाद गेहूँ का दूसरा स्थान है। यह जाड़े की फसल है तथा इसका उत्पादन रबी फसलों के अंतर्गत होता है। रोहतास, पूर्वी चंपारण, सीवान, पश्चिमी चंपारण, गोपालगंज, नालंदा, मुजफ्फरपुर, पटना, भोजपुर आदि जिलों में इसकी खेती की जाती है। पिछले कुछ वर्षों में गेहूँ की उपज घटने से इसके कुल उत्पादन में कमी हुई है। 2000-01 में गेहूँ का कुल उत्पादन लगभग 44 लाख मेट्रिक टन था जो 2006-07 में घटकर लगभग 36 लाख मेट्रिक टन हो गया।
(iii) मक्का – चावल और गेहूँ के बाद मक्का या मकई बिहार की मुख्य खाद्य फसल है। राज्य के गरीब किसानों के लिए इस फसल का विशेष महत्त्व है। बिहार में सबसे अधिक मक्के का उत्पादन खगड़िया जिले में होता है। विगत वर्षों के अंतर्गत राज्य में मक्का के उत्पादन क्षेत्र तथा कुल उत्पादन में कमी हुई है।
(iv) मोटे अनाज- जौ, ज्वार, बाजरा आदि खाद्यान्नों की गणना मोटे अनाज में की जाती है तथा बिहार के कुछ भागों में इनका भी उत्पादन होता है।
हमारे देश में हरतिक्रांति के आने के बाद अब बिहार के किसान भी उन्नत बीज, उर्वरक आदि जैसे आधुनिक कृषि के साधनों का प्रयोग करने लगे हैं। इससे राज्य की प्रमुख फसलों की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ी है। फिर भी, देश के अन्य विकसित राज्यों की अपेक्षा बिहार में इनकी उत्पादकता कम हैं। इसके साथ ही खाद्य फसलों की उत्पादकता की दृष्टि से राज्य के विभिन्न जिलों में भारी अंतराल है। इसका प्रमुख कारण किसानों की निर्धनता तथा राज्य में सुनिश्चित सिंचाई का अभाव है।
4. खाद्यान्न की गुणवत्ता से आप क्या समझते हैं ? क हमारे देश तथा राज्य के निवासियों को पर्याप्त एवं पौष्टिक आहार मिलता है ?
उत्तर- खाद्य सुरक्षा के दो मुख पक्ष है—परिमाणात्मक एवं गुणात्मक। इसका परिमाणात्मक पक्ष खाद्यान्न की मात्रा से जुड़ा है। खाद्यान्न की आपूर्ति का दूसरा पक्ष उसकी गुणवत्ता से संबंधित है। हमारे देश के अधिकांश नागरिकों को संतुलित एवं पौष्टिक आहार नहीं मिलता है। खाद्यान्न की गुणवत्ता का अभिप्राय स्वास्थ्य तथा कार्यक्षमता को बनाए रखने के लिए संतुलित एवं पौष्टिक आहार की व्यवस्था से है। पर्याप्त मात्रा में एवं पौष्टिक आहार नहीं मिलने से मानव संसाधनों का विकास अवरूद्ध हो जाता है।
भारत में खाद्यान्न का गुणात्मक अभाव बहुत अधिक है तथा अधिकांश देशवासियों को संतुलित भोजन नहीं मिलता है। विकसित देशों की तुलना में भारतीयों के आहार में पोषक तत्त्वों की बहुत कमी होती है। बिहार में निर्धन व्यक्तियों की संख्या बहुत अधिक है। इनके भोजन में पोषक तत्त्वों की और भी कमी होती है। हमारे राज्य के अधिकांश व्यक्ति ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं। ये प्रायः शाकाहारी होते हैं। शाकाहारी भोजन में पोषक तत्त्व तथा प्रोटीन मुख्यतया दालों से मिलता है। बिहार के प्राय: सभी भागों में दलहन का उत्पादन होता है। लेकिन, निम्न आय एवं क्रयशक्ति के अभाव में अधिकांश ग्रामीण परिवार अपने भोजन में दाल का बहुत कम प्रयोग करते हैं। संतुलित तथा पौष्टिक आहार नहीं मिलने के कारण ही बिहार में कुपोषण और एनीमिया (खून है। की कमी) के शिकार बच्चों एवं महिलाओं की संख्या देश में सबसे अधिक मिया (खून सर्वेक्षण के अनुसार, राज्य में निर्धनता रेखा के नीचे के परिवारों के दस में आठ बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इस सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार में पिछले कुछ वर्षों के अंतर्गत कुपोषण बढ़ा है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा निर्धनों को कम कीमत पर जो अनाज उपलब्ध कराया जाता है, उसमें केवल गेहूँ और चावल होता है। समुचित भंडारण और रख-रखाव के अभाव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा वितरित अनाज़ भी प्रायः घटिया किस्म का होता है। अतिनिर्धन परिवारों को पर्याप्त एवं संतुलित आहार नहीं मिलने के कारण ही हमारे राज्य में खाद्य असुरक्षा की स्थिति वर्तमान है।
5. समाज के किस वर्ग में खाद्य असुरक्षा सबसे अधिक है ? हमारे देश की सामाजिक रचना की खाद्य असुरक्षा में क्या भूमिका होती है ?
उत्तर- भारत में समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग खाद्य एवं पोषण से असुरक्षित है, लेकिन कुछ विशेष वर्गों में यह असुरक्षा अधिक है। ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत छोटे किसान, भूमिहीन श्रमिक, बढ़ई, लोहार, जुलाहे, परंपरागत कारीगर, स्वनियोजित व्यक्ति, अनाथ बच्चे, विधवाएँ, अपंग, भिखारी आदि खाद्य असुरक्षा से सर्वाधिक प्रभावित वर्ग हैं। भारतीय कृषि की ख्प्रकृति मौसमी होने के कारण इससे संबद्ध क्रियाकलाप में लगे व्यक्ति प्रायः 4-5 महीने बेकार रहते हैं, इन्हें नियमित काम नहीं मिलता और इनकी आय बहुत कम होती है। फलस्वरूप, इस अवधि में इनमें खाद्य असुरक्षा बहुत अधिक होती है। शहरी क्षेत्रों में बहुत कम आयवाले व्यवसाय या धंधे में लगे व्यक्ति तथा दनिक मजदूरों का परिवार खाद्य असुरक्षा से सर्वाधिक प्रभावित होता है। इनकी आय अथवा मजदूरी अनियमित, बहुत कम तथा इनके जीवन धारणा के लिए अपर्याप्त होती है।
हमारे देश की सामाजिक रचना की भी खाद्य असुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अत्यंत पिछड़े वर्ग के परिवारों का भूमिगत आधार बहुत कमजोर होता है और वे खाद्य असुरक्षा से अधिक प्रभावित होते हैं। प्राकृतिक आपदाओं के समय रोजगार की खोज में दूसरे स्थानों के लिए पलायन करनेवाले व्यक्तियों में भी खाद्य असुरक्षा अधिक होती है। हमारे देश की महिलाओं में कुपोषण की दर बहुत अधिक है। इससे प्रायः इनके होनेवाले बच्चे भी कुपोषण के शिकार हो जाते हैं। देश की खाद्य असुरक्षा से में गर्भवती महिलाओं, माताओं तथा 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की संख्या बहुत अधिक है। वर्ष 1998-99 के राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं पारिवारिक सर्वेक्षण के अनुसार, देश में इस प्रकार की महिलाओं और बच्चों की संख्या लगभग 11 करोड़ थी।
हमारे देश के कुल विशेष क्षेत्रों में भी खाद्य-असुरक्षित व्यक्तियों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत अधिक है। इनमें आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए राज्य, आदिवासी, दुर्गम एवं पहाड़ी इलाके तथा प्राकृतिक विपदाओं से शीघ्र प्रभावित होनेवाले क्षेत्र शामिल हैं। वास्तव में, उत्तर प्रदेश के पूर्वी तथा दक्षिण-पूर्वी भाग, बिहार, झारखण्ड, उडीसा, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र के कुछ भागों में खाद्य असुरक्षित व्यक्तियों की संख्या सबसे अधिक है।
6. खाद्यान्न का सुरक्षित भंडार क्या है ? सरकार इस भंडार का निर्माण क्यों करती है?
उत्तर- स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में खाद्यान्न का कुल उत्पादन हमारी आवश्यकताओं से बहुत कम था और देश में खाद्य असुरक्षा की समस्या अत्यधिक गंभीर थी। परंतु, विगत वर्षों के अंतर्गत इस समस्या की गंभीरता बहुत कम हो गई है। इसका प्रमुख कारण देश के प्राय: सभी भागों में एक से अधिक फसलों का उत्पादन तथा कृषि की उपज में होनेवाली वृद्धि है। इसका दूसरा कारण सरकार की एक सुनियोजित खाद्य सुरक्षा प्रणाली है। इस प्रणाली के दो मुख्य अंग हैं— खाद्यान्न का सुरक्षित भंडार तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा इनका समुचित वितरण खाद्यान्न के सुरक्षित भंडार से हमारा अभिप्राय सरकार के चावल और गेहूँ जैसे मुख्य अनाज के कुल अतिरिक्त भंडार से है। बाजार में खाद्यान्न की उपलब्धता और उनका मूल्य मुख्यतया अनाजों की कुल आपूर्ति पर निर्भर है। खाद्य पदार्थों के उत्पादन में वृद्धि होने पर भी अनेक अवसरों पर देश के कुछ भागों में उनका अभाव हो जाता है। इस स्थिति में प्राय: बड़े किसान या व्यापारी अधिक लाभ कमाने के लिए अनाज को छिपा देते हैं। इससे उनके मूल्यों में और अधिक वृद्धि होती हैं। अतएव, सरकार भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से प्रतिवर्ष किसानों की अतिरिक्त उपज की खरीद और उनका भंडारण करती है, सार्वजनिक क्षेत्र की तीन संस्थाएँ भारतीय खाद्य निगम, केंद्रीय भंडारण निगम तथा राज्य भंडारण निगम - खाद्यान्नों का भंडारण करती हैं। इनमें भारतीय खाद्य निगम एक प्रमुख संस्था सरकार इन संस्थाओं के माध्यम से किसानों के जिस अनाज की खरीद और उनका भंडारण करती है उनका पूर्व निर्धारित मूल्यों पर भुगतान किया जाता है। इस मूल्य को न्यूनतम समर्थित मूल्य कहा जाता है। सरकार प्रतिवर्ष फसलों की बोआई के पूर्व इस समर्थित मूल्य की घोषणा करती है। इससे किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य प्राप्त होता है जिससे उन्हें कृषि के तरीकों में सुधार तथा कृषि की उपज को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। साथ ही, इस नीति से सरकार के खाद्यान्न के एक सुरक्षित भंडार को निर्माण का उद्देश्य भी पूरा होता है।
सरकार द्वारा इस सुरक्षित खाद्यान्न भंडार के निर्माण का मुख्य उद्देश्य देश के सामान्य नागरिकों, विशेषतया निर्धनता रेखा से नीचे रहनेवाले व्यक्तियों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करता है। इसके लिए वह इनके बीच सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा अपने संग्रहित अनाज का बाजार मूल्यों से बहुत कम मूल्य पर वितरण की व्यवस्था करती है।
7. निर्धनों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए सरकार ने क्या उपाय किए हैं ? इसके लिए सरकार द्वारा आरंभ की गई प्रमुख योजनाओं का उल्लेख करें।
उत्तर -हमारे देश के निर्धन परिवारों में खाद्य असुरक्षा बहुत अधिक है। इन्हें खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए सरकार ने कई उपाय किए हैं। इनमें सबसे प्रमुख देश में एक व्यापक सार्वजनिक वितरण प्रणाली की स्थापना है। इस प्रणाली के अंतर्गत हमारे देश के प्राय: सभी भागों में सरकार द्वारा नियंत्रित खाद्यान्नों को उचित मूल्य पर बेचनेवाली राशन की दुकानें हैं। इनके माध्यम से वह निर्धन परिवारों के बीच बहुत कम मूल्य पर अति आवश्यक खाद्य पदार्थों के वितरण की व्यवस्था करती है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली से निर्धनों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने में बहुत सहायता मिली है।
निर्धनता रेखा से नीचे के परिवारों को खाद्य सुरक्षा प्रदान के लिए सरकार ने कई विशिष्ट योजनाएँ भी आरंभ की हैं। इनमें मध्याह्न भोजन योजना, अंत्योदय अन्न योजना तथा अन्नपूर्णा योजना सार्वधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ये योजनाएँ पूर्णरूप से खाद्य सुरक्षा की योजनाएँ है तथा इनसे खाद्य सुरक्षा प्रदान करने में सहायता मिली है। हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश बच्चों को पौष्टिक आहार नहीं मिलता और वे कुपोषण के शिकार हैं। मध्याह्न भोजन योजना इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि यह बाल विकास के साथ ही शैक्षिक सुधार के उद्देश्य पर आधारित है। देश के सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त तथा स्थानीय निकाय के प्राथमिक विद्यालयों की कक्षा 1 से 5 तक के सभी छात्र इस योजना में शामिल हैं।
सरकार ने निर्धनों में भी निर्धनतम व्यक्तियों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए दिसंबर 2000 से अंत्योदय अन्न योजना आरंभ की है। वर्तमान में इस योजना के अंतर्गत प्रत्येक निर्धन परिवार को 2 रुपये प्रति किलोग्राम गेहूँ तथा 3 रुपये प्रति किलोग्राम चावल की दर पर 35 किलोग्राम खाद्यान्न की आपूर्ति की जाती है। अन्नपूर्णा योजनारयायती एक अन्य महत्त्वपूर्ण योजना है। इसके अंतर्गत 65 वर्ष या उससे अधिक आयुवर्गवाले ऐसे असहाय वृद्ध आते हैं, जिन्हें राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना के योग्य होने पर भी इस योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है। इस योजना में प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह 10 किलोग्राम खाद्यान्न निःशुल्क दिया जाता है।
8. सार्वजनिक वितरण प्रणाली क्या है ? यह प्रणाली किस प्रकार खाद्य सुरक्षा करती है ?
उत्तर- सार्वजनिक वितरण प्रणाली का अभिप्राय उस प्रणाली से है जिसमें आवश्यक उपभोक्ता पदार्थों को सार्वजनिक रूप से इस प्रकार वितरित किया जाता है कि वे सभी उपभोक्ताओं को उचित एवं निर्धारित मूल्य पर एक निश्चित मात्रा में प्राप्त हो सके। इसका उद्देश्य खाद्यान्नों के वितरण को संतुलित रखना और उनके मूल्य में स्थायित्व लाना है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सरकार ने हमारे देश के प्रायः सभी भागों में खाद्यान्न एवं अति आवश्यक पदार्थों को उचित मूल्य पर बेचनेवाली राशन दुकानों को खोला है। सरकारी राशन की दुकानों को उचित मूल्य की दुकानें भी कहते हैं। इनके माध्यम से सरकार भारतीय खाद्य निगम तथा अन्य सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा संग्रहित खाद्यान्न का समाज के निर्धन परिवारों के बीच वितरण की व्यवस्था करती है। हमारे देश तथा राज्य के प्रायः सभी गाँवों, शहरों तथा महानगरों में सार्वजनिक अथवा जन वितरण प्रणाली द्वारा स्थापित उचित मूल्य की दुकाने हैं। वर्तमान में इन दुकानों द्वारा लोगों को गेहूँ, चावल, चीनी और किरोसिन जैसे अति आवश्यक उपभोक्ता पदार्थों की आपूर्ति की जाती है। उचित मूल्य की दुकानों में इन वस्तुओं का मूल्य इनके बाजार मूल्य से अपेक्षाकृत बहुत कम होता है।
देश में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली भारत सरकार का सबसे प्रभावपूर्ण कदम है। खाद्यान्नों के वितरण के लिए सरकार ने उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की एक व्यापक संरचना का निर्माण किया है। इस प्रणाली का मुख्य उद्देश्य सामान्य नागरिकों, विशेषतया समाज के कमजोर वर्गों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए उन्हें उचित मूल्य पर आवश्यक खाद्य पदार्थों की आपूर्ति सुनिश्चित करना है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अधिक उपयोगी और कुशल बनाने के लिए विगत वर्षों के अंतर्गत सरकार ने अपनी नीति में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन एवं संशोधन किए हैं। निर्धनता रेखा से नीचे रहनेवाले परिवारों को खाद्यान्न की न्यनूतम मात्रा की उपलब्धता सुनिश्चित करने के उद्देश्य s सरकार ने 1997 से लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू इसके अंतर्गत देश के 6 करोड़ से भी अधिक निर्धन परिवारों को विशेष रियायती दर पर खाद्यान्न की एक निश्चित मात्रा की आपूर्ति की जाती है। अभी सरकार द्वारा समाज के निर्धनतम व्यक्तियों तथा असहाय वृद्ध नागरिकों के लिए चलाई जा रही दो विशिष्ट योजनाओं-अंत्योदय अन्न योजना तथा अन्नपूर्णा योजना का क्रियान्वयन भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली से है।
9. सार्वजनिक वितरण प्रणाली क्या है ? इस प्रणाली के मुख्य दोष क्या है ?
उत्तर- सार्वजनिक वितरण प्रणाली का अभिप्राय उस प्रणाली से है जिससे आवश्यक उपभोक्ता पदार्थों को सार्वजनिक रूप से इस प्रकार वितरित किया जाता है कि वे सभी उपभोक्ताओं को उचित एवं निर्धारित मूल्य पर एक निश्चित मात्रा में प्राप्त हो सकें। इसका उद्देश्य खाद्यान्नों के वितरण को संतुलित रखना और उनके मूल्य में स्थायित्व लाना है।
राशन दुकानों की कार्यप्रणाली में कई दोष हैं। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि हमारे देश में राष्ट्रीय स्तर पर इन दुकानों द्वारा वितरित की जानेवाली खाद्यान्न की प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह औसत खपत मात्र एक किलोग्राम है। बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में यह और भी कम प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह केवल 300 ग्राम है। मध्य प्रदेश में राशन दुकानों द्वारा निर्धन व्यक्तियों को गेहूँ और चावल के उपयोग की मात्र 5 प्रतिशत आवश्यकता की पूर्ति की जाती है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह प्रतिशत और भी कम है।
राशन दुकानों में कई अन्य दोष भी हैं। इनके विक्रेता प्राय: कालाबाजारी करते हैं और अपनी वस्तुएँ खुले बाजारों में ऊँचे मूल्य पर बेच देते हैं। राशन अथवा उचित मूल्य की दुकानें नियमित रूप से और समय पर नहीं खोली जाती हैं। इन दुकानों से बिकनेवाला अनाज भी खुले बाजार की तुलना में निम्न स्तर का होता है।
10. खाद्य सुरक्षा प्रदान करने में सरकारी एवं गैर सरकारी योगदान की विवेचना कीजिए।
उत्तर- खाद्य सुरक्षा की समस्या देश के सभी नागरिकों को उनके कार्यशील एवं स्वस्थ जीवन के लिए पर्याप्त, सुरक्षित तथा पौष्टिक भोजन की उपलब्धता से संबंधित है। हमारे देश के निर्धन परिवारों में खाद्य असुरक्षा बहुत अधिक है। इसके लिए सरकार द्वारा कई योजनाएँ चलाई जा रही है जिनमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। समाज के कुछ विशेष वर्ग या समुदाय में वर्तमान खाद्य समस्या के निदान के लिए सरकार ने कई विशिष्ट कार्यक्रम भी आरंभ किए हैं। इनमें मध्याह्न भोजन योजना, अंत्योदय अन्न योजना और अन्नपूर्णा योजना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सरकार के इन कार्यक्रमों से समाज के निर्धन वर्ग को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने में बहुत सहायता मिली है।
सामान्य नागरिकों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने में गैर-सरकारी संगठन भी बहुत सहायक हो सकते हैं। इस दृष्टि से देश में सहकारी संस्थाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। खाद्य सुरक्षा एवं खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति में सहकारिता की सफलता के कई अन्य उदाहरण भी हैं। विगत वर्षों के अंतर्गत बिहार राज्य सहकारी दुग्ध उत्पाद संघ ने भी दूध एवं दुग्ध उत्पादों के उत्पादन, संग्रहण और वितरण में उल्लेखनीय कार्य किया है।
उसी प्रकार, महाराष्ट्र में विकास विज्ञान संस्थान की सहायता से कई गैर-सरकारी संगठनों ने राज्य के कई क्षेत्रों में 'अनाज बैंकों' की स्थापना की है। यह संस्थान गैर-सरकारी संगठनों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने तथा इसके लिए क्षमता निर्माण का प्रशिक्षण देता है।
Hello My Dear, ये पोस्ट आपको कैसा लगा कृपया अवश्य बताइए और साथ में आपको क्या चाहिए वो बताइए ताकि मैं आपके लिए कुछ कर सकूँ धन्यवाद |