1. बिहार की जनसंख्या के प्रमुख अवयवों की व्याख्या करें।
उत्तर- जनसंख्या का आर्थिक विकास से घनिष्ठ संबंध है। किसी राज्य का आर्थिक विकास बहुत अंशों में वहाँ के मानव संसाधन अथवा जनसंख्या एवं उसकी प्रकृति से प्रभावित होता है। बिहार की जनसंख्या की प्रमुख विशेषताएँ अग्रांकित हैं
(i) आकार एवं वृद्धि- बिहार की जनसंख्या की सबसे प्रमुख विशेषता इसका वृहत आकार है। जनसंख्या की दृष्टि से उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद यह भारत का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है। बिहार की जनसंख्या केवल विशाल ही नहीं है। बल्कि इसमें निरंतर तीव्र गति से वृद्धि भी हो रही है। 1951 में बिहार की कुल जनसंख्या 3.81 करोड़ थी। जो 2001 की जनगणना के अनुसार लगभग 8.29 करोड़ हो गई है।
(ii) उच्च घनत्व - बिहार की जनसंख्या का घनत्व भी बहुत अधिक है। इसके साथ ही राज्य की जनसंख्या में लगातार वृद्धि होने के कारण जनसंख्या का घनत्व भी क्रमशः बढ़ता जा रहा है। 1951 में बिहार में जनसंख्या का औसत घनत्व 222 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था जो अब 2001 में बढ़कर 881 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो गया है।
(iii) स्त्री-पुरुष अनुपात - स्त्री पुरुष अनुपात की गणना 1,000 व्यक्तियों को आधार पर की जाती है। सामान्यत: 1,000 पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या भी लगभग उतनी ही होनी चाहिए। 2001 की जनगणना के अनुसार, बिहार में प्रति 1,000 पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या केवल 921 है।
(iv) साक्षरता दर - बिहार में साक्षर व्यक्तियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है 2001 की जनगणना के अनुसार, यहाँ की साक्षरता दर 47 प्रतिशत है, जबकि साक्षरता का राष्ट्रीय औसत लगभग 65 प्रतिशत है।
(v) जीवन-प्रत्याशा- जीवन प्रत्याशा का अभिप्राय किसी व्यक्ति के जीवित रहने की संभावित आयु से है। विगत वर्षों के अंतर्गत राज्य के नागरिकों की जीवन-प्रत्याशा में वृद्धि हुई है। 1981 में बिहारवासियों की जीवन-प्रत्याशा 53 वर्ष थी, जो 2001 में बढ़कर 60 वर्ष हो गई है। लेकिन, यह अभी भी 65 वर्ष के राष्ट्रीय औसत से कम हैं।
(vi) कार्यशील जनसंख्या का अनुपात- कुल जनसंख्या में बच्चों और बूढ़ों की संख्या अधिक होने से कार्यशील जनसंख्या का अनुपात घट जाता है। 2001 की जनगणना के अनुसार बिहार की कुल जनसंख्या में मात्र 33.88 प्रतिशत ही कार्यशील जनसंख्या है।
(vii) जन्म दर एवं मृत्यु दर जन्म-दर तथा मृत्यु दर द्वारा ही किसी राज्य में जनसंख्या के आकार का निर्धारण होता है। बिहार में जन्म एवं मृत्यु दर दोनों ही राष्ट्रीय औसत से अधिक है।
(viii) जनसंख्या का व्यावसायिक वितरण - बिहार की कार्यशील जनसंख्या का व्यावसायिक वितरण राज्य की अर्थव्यवस्था का अविकसित रूप प्रकट करता है 2001 की जनगणना के अनुसार, बिहार की कार्यशील जनसंख्या का लगभग 77 प्रतिशत कृषि अथवा उससे संबद्ध व्यवसाय में लगा हुआ है।
2. मानव संसाधन से आप क्या समझते हैं? हम मानवीय संसाधनों को किस प्रकार विकसित कर सकते हैं?
उत्तर- उत्पादन के अन्य साधनों के समान ही जनसंख्या भी एक संसाधन है। जनसंख्या से ही सभी प्रकार के श्रम की आपूर्ति होती है जिसकी सहायता से उत्पादक क्रियाएँ संभव हो पाती हैं। किसी देश या राज्य की जनसंख्या को ही मानव संसाधन की संज्ञा दी जाती है। यह जनसंख्या मानवीय पूँजी का रूप तब लेती है जब हम उसके विकास में धन का निवेश करते हैं। इस निवेश से ही मानव-पूँजी का निर्माण होता है। इस प्रकार, जनसंख्या ही मानव संसाधन है जिसमें निवेश से हमारी भावी उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है। -
मानवीय संसाधनों के विकास के कई घटक हो सकते हैं। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आवास सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। शिक्षा के अंतर्गत सामान्य तथा तकनीकी दोनो प्रकार की शिक्षा सम्मिलित है। सामान्य शिक्षा से मनुष्य का बौद्धिक विकास होता है और उसकी कार्यकुशलता बढ़ जाती है। एक शिक्षित और कुशल श्रमिक उपलब्ध संसाधनों का उचित विदोहन एवं उपयोग करता है। इससे उत्पादन अधिकतम होता है तथा संसाधनों का अपव्यय नहीं होता। तकनीकी शिक्षा से हमारी उत्पादन क्षमता बढ़ती है। शिक्षा और प्रशिक्षण से खोज एवं अनुसंधान को भी प्रोत्साहन मिलता है। इसके फलस्वरूप उत्पादन की तकनीक में सुधार होता है और हमारी उत्पादकता बढ़ जाती है।
मानव-पूँजी निर्माण की दृष्टि से स्वास्थ्य सेवाओं की भूमिका भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। देश में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाएँ ही सक्रिय श्रम शक्ति का निर्माण करती है। किसी व्यक्ति की सतत् कार्य करने की क्षमता एवं कुशलता बहुत अंशों में उसके स्वास्थ्य की दशा पर निर्भर है। स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश से मनुष्य की उत्पादन क्षमता में प्रत्यक्ष रूप से वृद्धि होती है। यही कारण है कि हमारे राष्ट्रीय महत्व के कार्यक्रमों में स्वास्थ्य सेवाओं को उच्च प्राथमिकता प्रदान की गई है।
शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं के समान ही आवास की समुचित व्यवस्था भी मानवीय संसाधनों के विकास में सहायक होती है। आवास जलवायु की विभिन्नताओं से सुरक्षा प्रदान करने के साथ ही समाज के भावी नागरिकों के जन्म और पालन-पोषण की व्यवस्था करता है। मनुष्य की कार्यक्षमता एवं उत्पादकता में वृद्धि के लिए भी आवास का एक न्यूनतम स्तर अत्यंत आवश्यक है।
3. किसी देश या राज्य के आर्थिक विकास में मानव संसाधन की भूमिका किस प्रकार महत्वपूर्ण हैं इसके लिए मानवीय संसाधनों को किस प्रकार अधिक प्रभावपूर्ण बनाया जा सकता है ?
उत्तर- उत्पादन के अन्य साधनों की तरह जनसंख्या भी एक संसाधन है। इस जनसंख्या के द्वारा ही श्रम की आपूर्ति होती है। भूमि एवं पूँजी उत्पादन के निर्जीव साधन है। इनकी कोई अपनी आवश्यकता नहीं होती हैं। परंतु जनसंख्या या मानव संसाधन एक सजीव साधन हैं जिसकी अपनी स्वयं की इच्छा शक्ति और आवश्यकताएँ होती हैं। प्राकृतिक संसाधन एवं भौतिक पूँजी की अपेक्षा जनसंख्या की मात्रा में अत्यधिक वृद्धि होने से भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, चिकित्सा आदि सभी प्रकार की आवश्यकताएँ बहुत बढ़ जाती है। यह आर्थिक विकास में बाधक सिद्ध होती है। और यह जनसंख्या का निषेधात्मक पक्ष है। परंतु इसका एक गुणात्मक पक्ष भी है। जब हम शिक्षा, प्रशिक्षण, स्वास्थ्य सेवाओं आदि में सुधार लाकर मानवीय संसाधनों की विकसित करते हैं तो • उससे मानवीय पूँजी का निर्माण होता है। यह मानवीय पूँजी हमारी उत्पादकता को बढ़ाने तथा आर्थिक विकास में सहायक होती है।
मानवीय संसाधनों को विकसित करने और उन्हें अधिक महत्वपूर्ण बनाने के कई तरीके हो सकते हैं। लेकिन, इनमें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। उचित शिक्षा और प्रशिक्षण से श्रम की कुशलता और उत्पादन क्षमता बढ़ती है। शिक्षा और प्रशिक्षण के कई स्तर हैं। प्राथमिक या प्रारंभिक शिक्षा युवावर्ग को न्यूनतम एवं आधारभूत कौशल सिखाती है। इसका हमारी उत्पादक क्रियाओं पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। परंतु, आर्थिक विकास एवं संरचनात्मक सुविधाओं को बनाए रखने के लिए हमें यथेष्ट मात्रा में प्रशिक्षित श्रम की आवश्यकता होती है। माध्यमिक शिक्षा के द्वारा ही इस प्रकार की श्रम शक्ति का निर्माण होता है। उच्च शिक्षा से डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, वैज्ञानिक आदि जैसे विशिष्ट एवं उच्च स्तर के श्रम की आपूर्ति होती है। इससे खोज एवं अनुसंधान को भी प्रोत्साहन मिलता है ।
मानवीय संसाधनों के विकास के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की समुचित व्यवस्था भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इन सेवाओं या सुविधाओं में सुधार होने से मानवीय संसाधनों की शारीरिक क्षमता एवं उत्पादकता में प्रत्यक्ष रूप से वृद्धि होती है। शिक्षित और स्वस्थ व्यक्तियों की उत्पादकता अधिक होने के कारण ही उनकी आय भी अपेक्षाकृत बहुत अधिक होती है।
4. मानवीय पूँजी निवेश से आप क्या समझते हैं? इस निवेश के मुख्य तत्व क्या है?
उत्तर- किसी देश की जनसंख्या ही मानवीय संसाधन है तथा इसके विकास पर व्यय किए जानेवाले धन को मानवीय पूँजी निवेश की संज्ञा दी जाती है। जब हम कल-कारखाने, मशीन, उपकरण आदि में धन या पूँजी का निवेश करते हैं तो यह भौतिक पूँजी निवेश है तथा इससे भौतिक पूँजी का निर्माण होता है। उसी प्रकार जब हम मानव संसाधन के विकास में पूँजी का विनियोग करते हैं तो इसे मानवीय पूँजी निवेश कहते हैं। इस प्रकार का निवेश मानव पूँजी के निर्माण में सहायक होता है। मानवीय पूँजी निवेश वह प्रक्रिया है जिससे विशेष योग्यता, क्षमता और अनुभव प्राप्त व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होती है। यह मानवीय पूँजी है। भौतिक पूँजी के समान ही मानवीय पूँजी भी कुल राष्ट्रीय उत्पाद के सृजन में सहायक होती है। अन्य साधनों की तरह जनसंख्या संसाधन है। यह जनसंख्या ही श्रम की आपूर्ति करती है जिसके सहयोग से सेवाओं का उत्पादन होता है। मानवीय संसाधनों का महत्व इस कारण और बढ़ जाता हैं कि प्राकृतिक संसाधन एवं भौतिक पूँजी दोनों ही उत्पादन के निष्क्रिय साधन है। मानव संसाधन ही उन्हें उत्पादन के योग्य बनाता है।
मानवीय संसाधनों का विकास कई तत्वों पर निर्भर करता है जिनमें निवेश से उसकी गुणवत्ता और उत्पादन क्षमता बढ़ती है। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आवास सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। शिक्षा और प्रशिक्षण से ही कुशल और योग्य श्रम शक्ति का निर्माण होता है और हमारी उत्पादन क्षमता बढ़ती है। उचित शिक्षा नागरिकों की मनोवृत्ति, ज्ञान एवं क्षमताओं का विकास कर उन्हें अधिक योग्य, सक्षम तथा बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप बनाती है। शिक्षा से किसी भौतिक पदार्थ का निर्माण नहीं होता, परंतु इससे मानवीय संसाधन की भावी उत्पादन क्षमता, योग्यता और कुशलता बढ़ जाती है।
मानवीय पूँजी निवश की दृष्टि से स्वास्थ्य सेवाओं पर किया जानेवाला निवेश भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इन सेवाओं में निवेश के द्वारा ही एक स्वस्थ श्रम शक्ति का निर्माण होता है। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार होने से लोगों का जीवन - प्रत्याशा बढ़ती है, जन्म एवं मृत्यु दर में कमी जाती नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार होता है।
शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाओं के समान ही आवास भी मानव पूँजी निवेश का एक प्रमुख घटक है। आवास का संबंध केवल रहने के मकानों से ही नहीं, वरन एक अच्छे पड़ोस, जलापूर्ति, सड़क आदि अन्य सार्वजनिक सुविधाओं से भी है। इनमें निवेश मानवीय संसाधनों के विकास में सहायक होता है।
5. मानव-पूँजी निर्माण में शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आवास की क्या भूमिका होती है?
उत्तर-शिक्षा- मानवीय साधनों के विकास में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षा वह माध्यम है जिससे व्यक्ति मानव-पूँजी के रूप में विकसित होता है। शिक्षा पर व्यय करने से व्यक्ति एवं देश समृद्ध होता है। जिस प्रकार कम्पनियाँ एक निश्चित लाभ को प्राप्त करने के लिए पूँजीगत वस्तुओं पर व्यय करती है उसी प्रकार शिक्षा मानवीय पूँजी की क्षमता बढ़ाकर अधिक उत्पादक बना देता है। प्रो॰ अमर्त्य सेन ने शिक्षा को मानव-पूँजी के रूप में समृद्ध करने के लिए प्राथमिक शिक्षा को नागरिक का 'मूल-अधिकार' बनाने पर जोर दिया है।
स्वास्थ्य- मानवीय-पूँजी के विकास में स्वास्थ्य का भी महत्वपूर्ण योगदान है। जब मनुष्य का शरीर रूग्ण रहता है तो उसके सारे क्रियाकलापों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विद्यार्थियों को विद्या अध्ययन में मन नहीं लगता है, कामगार अपने कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं तथा नेता जनता की सेवा करने में असफल हो जाते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनुष्य का अच्छा स्वास्थ्य ही उसकी सबसे महत्वपूर्ण पूँजी है और इसमें खर्च कर बढ़ोत्तरी करना मानक को एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में परिवर्तित कर देना हैं एक स्वस्थ अन्य सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा निश्चित रूप से अच्छा काम करता है और देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः, स्वास्थ्य पर व्यय मानव-पूँजी के निर्माण का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।
आवास- मनुष्य अपने काम में सुबह से ही व्यस्त हो जाता है। वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कठिन श्रम करता है जिससे वह थक कर चूर हो जाता है। इसके बाद आराम की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए सर छिपाने के लिए एक आवास आवश्यक है। आवास में विश्रामकरके मानव पुनः अपने को आगामी दिन कार्य करने योग्य बना लेता है। मनुष्य बदलते मौसम में आवास में ही सुरक्षित रहता है। काम करने की क्षमता स्थिर रहती है। अतः, आवास मानवीय पूँजी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करता है।
6. बिहार में शिक्षा के क्षेत्र में वर्तमान समस्याओं की विवेचना करें।
उत्तर- मानवीय संसाधनों के विकास की दृष्टि से शिक्षा का स्थान सर्वोपरि है। परंतु बिहार में शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है। और शिक्षा के क्षेत्र में यह बहुत पिछड़ा हुआ है। बिहार में शिक्षा संबंधी मुख्य समस्याएँ निम्नलिखित हैं
(i) निम्न साक्षरता दर - साक्षरता का विकास घनिष्ठ संबंध है। परंतु इस दृष्टि से बिहार देश का सबसे पिछड़ा राज्य है। 2001 की जनगणना के अनुसार, बिहार साक्षरता दर मात्र 47 प्रतिशत है, जबकि साक्षरता का राष्ट्रीय औसत 65 प्रतिशत है।
(ii) प्राथमिक नामांकन- देश के अन्य राज्यों की तुलना में बिहार में प्राथमिक नामांकन की दर बहुत कम है। बच्चों के प्राथमिक नामांकन का राष्ट्रीय औसत 77 प्रतिशत है, जबकि बिहार में यह मात्र 52 प्रतिशत है। राज्य में बालिकाओं के प्राथमिक नामांकन की दर 44 प्रतिशत है। जो 73 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से बहुत कम है।
(iii) विद्यालय छोड़ने की समस्या- बिहार के प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों द्वारा समय के पूर्व ही विद्यालय छोड़ने की समस्या भी बहुत गंभीर है राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के आँकड़ों के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों के 12 वर्ष आयुवर्ग के मात्र 37 प्रतिशत छात्र तथा शहरों क्षेत्रों के 57 प्रतिशत छात्र ही प्राथमिक शिक्षा पूरी करते हैं।
(iv) शिक्षकों की अनुपस्थिति- राज्य के प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की अनुपस्थिति एक स्थायी समस्या है। 2003 में संयुक्त राष्ट्र बाल-कोष द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, यदि अवकाश तथा अन्य सरकारी कार्यों को निकाल दिया जाए शिक्षक वर्ष में मात्र दो महीने कक्षा में व्यतीत करता है। तो
(v) शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट- विगत 25-30 वर्षों के अंतर्गत बिहार में शिक्षा के स्तर में भारी गिरावट आई है। शिक्षकों की कमी तथा विद्यालय से उनकी अनुपस्थिति, शिक्षकों के उचित प्रशिक्षण का अभाव परीक्षाओं में बड़े पैमाने पर कदाचार तथा कई अन्य कारणों से प्राथमिक एवं मध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है। इससे उच्च स्तरीय शिक्षा का स्तर भी निरंतर गिर रहा है । इस प्रकार, बिहार में शिक्षा के क्षेत्र में कई समस्याएँ है तथा इसकी वर्तमान स्थिति संतोषजनक नहीं हैं।
7. बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं की वर्तमान स्थिति क्या है? क्या राज्य में स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता पर्याप्त है?
उत्तर- स्वास्थ्य का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है तथा ऐसे व्यक्तियों को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध करानां राज्य का दायित्व है। जिन्हें इनकी आवश्यकता है। विगत वर्षों के अंतर्गत बिहार की स्वास्थ्य संरचना का बहुत विस्तार हुआ है। हमारे राज्य के शहरी इलाकों में स्वास्थ्य और चिकित्सीय सुविधाएँ चिकित्सा महाविद्यालयों, सरकारी अस्पतालों तथा निजी चिकित्सालयों द्वारा उपलब्ध कराई जाती है। राज्य के सभी जिलों और अनुमंडलो में प्राय: एक सदर अस्पताल है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य और उपचार सेवाओं की आपूर्ति राज्य के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों तथा स्वास्थ्य उपकेन्द्रों द्वारा की जाती है।
नागरिकों की जीवन- प्रत्याशा, जन्म-दर, मृत्यु - दर आदि उनके स्वास्थ्य की स्थिति को व्यक्त करते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं की समुचित व्यवस्था होने पर लोगों की जीवन-प्रत्याशा बढ़ती है और जन्म-दर, मृत्यु दर तथा शिशु, बाल एवं मातृ मृत्यु दर में कमी होती है। पिछले कुछ वर्षों में बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हुआ है और लोग उससे लाभान्वित हुए हैं। 1981 में राज्य के नागरिकों की जीवन-प्रत्याशा 53 वर्ष थी, जो 2001 में बढ़कर लगभग 60 वर्ष हो गई है। 1951 में प्रति हजार जन्म-दर 43.4 थी, जो 2001 में घटकर 30.9 हो गई है। उसी प्रकार शिशु एवं बाल मृत्यु दर में भी कमी हुई है तथा इसमें 1990 के दशक में पर्याप्त सुधार हुआ है।
परंतु, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं में वृद्धि होने पर भी इनकी उपलब्धता हमारी आवश्यकताओं की तुलना में बहुत कम है। बिहार में चिकित्सक एवं स्वास्थ्य कर्मचारियों की बहुत कमी है। 2001 में बिहार में प्रत्येक 3,347 व्यक्तियों पर एक डॉक्टर था, जबकि राष्ट्रीय अनुपात 1,855 नागरिकों पर एक डॉक्टर का था। केंद्र सरकार के जनसंख्या पर आधारित मापदंडों के अनुसार, 2002 में राज्य में 623 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों, 875 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तथा 3,705 स्वास्थ्य उपकेंद्रों की कमी है।
इस प्रकार, बिहार की स्वास्थ्य संरचना बहुत कमजोर तथा स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर बहुत निम्न है। जैसा कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अक्टूबर 2004 की पूर्वी क्षेत्र संबंधी कार्यवाही में कहा है, "वर्तमान में स्वास्थ्य सेवाएँ महिलाओं, बच्चों, निर्धन, दलित तथा अन्य कमजोर वर्गों की पहुँच और सामर्थ्य से बाहर है, असमान रूप से वितरित तथा अनुचित है..... । इस प्रकार, अधिकांश व्यक्ति स्वास्थ्य के मौलिक अधिकारों का लाभ उठाने से वंचित हैं। "
8. भारत की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति पर एक टिप्पणी लिखें।
उत्तर- भारत 'जनसंख्या विस्फोट' की स्थिति में है। हमारे देश की वर्तमान जनसंख्या एक अरब से भी अधिक हो गई है। यह एक अत्यंत कठिन और गंभीर समस्या है। हमारे देश में 1952 में ही परिवार नियोजन कार्यक्रम अपनाया गया था। परंतु, अभी तक परिवार नियोजन एवं इससे संबंधित कार्यक्रमों को कोई विशेष सफलता नहीं मिली है। अतः, जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को प्राथमिकता प्रदान करने के लिए भारत सरकार ने 15 फरवरी 2000 को अपनी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा की है। यह भारत की दूसरी जनसंख्या नीति है। इस नीति के अंतर्गत छोटे परिवार के सिद्धांतों का पालन करनेवालों के लिए 16 प्रोत्साहक एवं प्रेरक उपायों की घोषणा की गई है। वर्तमान जनसंख्या नीति का एक महत्वपूर्ण कदम 1971 की जनगणना के आधार पर निर्धारित लोकसभा की सीटों की संख्या को 2026 तक नहीं बढ़ाने का निर्णय है।
सरकार की नवीन जनसंख्या नीति की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसके अंतर्गत जनसंख्या नियंत्रण के साथ ही स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार पर बल दिया गया है। इस नीति में निर्धनता रेखा के नीचे रहनेवालों तथा कम शिक्षित लोगों को छोटे परिवार के सिद्धांत को अपनाने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से स्वास्थ्य बीमा योजना प्रारंभ करने का प्रस्ताव है। -
सरकार की वर्तमान जनसंख्या नीति को तीन भागों में बाँटा गया है— त्वरित, मध्यावधि एवं दीर्घावधि। इस तीन-सूत्री नीति में 2045 तक भारत की जनसंख्या को स्थिर बनाने का लक्ष्य रखा गया है। इस नीति में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश सहित भारत के लगभग 50 प्रतिशत जनसंख्या वाले 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में जनसंख्या नियंत्रण के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए कार्य योजना की घोषणा की गई है। जनसंख्या नीति के क्रियान्वयन पर निगरानी रखने के लिए इसमें प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आयोग के गठन का भी प्रस्ताव है। सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री आदि के साथ ही अन्य जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस आयोग के सदस्य होंगे।
Hello My Dear, ये पोस्ट आपको कैसा लगा कृपया अवश्य बताइए और साथ में आपको क्या चाहिए वो बताइए ताकि मैं आपके लिए कुछ कर सकूँ धन्यवाद |