1. मुद्रा बाजार की प्रमुख वित्तीय संस्थाओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- वित्तीय संस्थाओं को प्रायः दो वर्गों में विभाजित किया जाता है— मुद्रा बाजार की वित्तीय संस्थाएँ तथा पूँजी बाजार की वित्तीय संस्थाएँ । मुद्रा बाजार की वित्तीय संस्थाएँ साख या ऋण का अल्पकालीन लेन-देन करती हैं। इसके विपरीत, पूँजी बाजार की संस्थाएँ उद्योग तथा व्यापार की दीर्घकालीन साख की आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। मुद्रा बाजार की वित्तीय संस्थाओं में बैंकिंग संस्थाएँ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। भारतीय बैंकिंग प्रणाली के शीर्ष पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया है जिसकी स्थापना अप्रैल 1935 में हुई थी। यह भारत का केंद्रीय बैंक है जो देश की संपूर्ण बैंकिंग व्यवस्था का नियमन एवं नियंत्रण करता है।
भारत की बैंकिंग प्रणाली व्यावसायिक बैंकों पर आधारित है। व्यावसायिक बैंकों का मुख्य कार्य जनता की बचत को जमा के रूप में स्वीकार करना तथा उद्योग एवं व्यवसाय को उत्पादन कार्यों के लिए ऋण प्रदान करना है। व्यावसायिक बैंक कई प्रकार की अन्य वित्तीय सेवाएँ भी प्रदान करते हैं, जैसे मुद्रा का हस्तांतरण, साखपत्र जारी करना इत्यादि। कुछ समय पूर्व तक हमारे देश के शहरी क्षेत्रों में स्थित थीं। ये बैंक उद्योग एवं व्यापार के लिए केवल अल्पकालीन ऋण की व्यवस्था करते थे। परंतु, हमारी अर्थव्यवस्था में बैंकिंग के महत्त्व को देखते हुए सरकार ने देश के प्रमुख व्यावसायिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर लिया है। इसका मुख्य उद्देश्य समाज के पिछड़े और उपेक्षित वर्ग को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी अधिक से अधिक शाखाओं का विस्तार करना था।
1975 से सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों को ऋण प्रदान करने के लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की एक नई योजना आरंभ की है। इन बैंकों का मुख्य कार्य ग्रामीण क्षेत्र के छोटे एवं सीमांत किसानों, कृषि श्रमिकों, कारीगरों, छोटे व्यापारियों आदि को आर्थिक सहायता प्रदान करना है।
कृषि साख की आवश्यकताओं को पूरा करनेवाली वित्तीय संस्थाओं में सहकारी साख समितियों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। ग्रामीण तथा कृषि क्षेत्र की वित्तीय संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने के लिए सरकार ने जुलाई 1982 में 'राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक' की स्थापना की है। यह बैंक कृषि तथा ग्रामीण साख की पूर्ति के लिए देश की शीर्ष संस्था है।
भारतीय मुद्रा बाजार का एक असंगठित क्षेत्र भी है जिसे देशी बैंकर की संज्ञा दी जाती है। यह क्षेत्र प्राचीन पद्धति के अनुसार ऋणों के लेन-देन का कार्य करता है तथा इसे देश के विभिन्न भागों में साहूकार, महाजन, चेट्टी, सर्राफ आदि नामों से पुकारा जाता है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी देशी बेंकरों की ही प्रधानता है।
2. पूँजी बाजार क्या है ? इसके कार्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर- पूँजी बाजार वह है जिसमें व्यावसायिक संस्थाओं के हिस्सों तथा ऋणपत्रों का क्रय-विक्रय होता है। उद्योग एवं व्यापार की साख या पूँजी की दीर्घकालीन आवश्यकता की पूर्ति पूँजी बाजार से होती है।
आधुनिक समय में सभी वृहत उद्योग या संस्थान संयुक्त पूँजी कंपनी के रूप में चलाए जाते हैं जिसमें बहुत बड़ी मात्रा में पूँजी या साख की आवश्यकता होती है। व्यावसायिक बैंकों द्वारा इतनी मात्रा में पूँजी या साख की व्यवस्था संभव नहीं है।
संयुक्त पूँजी कंपनी दीर्घकालीन पूँजी की आवश्यकता की पूर्ति अंशपत्रों या हिस्सों को विक्रय कर तथा ऋणपत्रों के निर्गमन द्वारा करती है। संयुक्त पूँजी कंपनी के हिस्सों और ऋणपत्रों का क्रय-विक्रय पूँजी बाजार में होता है। पूँजी बाजार के दो मुख्य अंग होते हैं।
(i) प्राथमिक बाजार- का संबंध कंपनियों के नए हिस्सों के निर्गमन से प्राथमिक बाजार–प्राथमिक होता है।
(ii) द्वितीयक बाजार- द्वितीयक बाजार को स्टॉक एक्सचेंज अथवा शेयर बाजार भी कहते हैं। इस बाजार में संयुक्त पूँजी कंपनियों के वर्तमान हिस्सों और ऋणपत्रों का क्रय-विक्रय होता है।
हमारे देश में मुंबई देश की वित्तीय गतिविधियों का केन्द्र है। मुंबई का शेयर बाजार दबाव स्ट्रीट में स्थित है जिसके माध्यम से इस पूँजी बाजार का संचालन होता है।
3. बिहार की वित्त व्यवस्था में व्यावसायिक बैंकों की भूमिका का विवेचना कीजिए।
उत्तर- बिहार में कार्यरत वित्तीय संस्थाओं को हम दो मुख्य वर्गों में विभाजित कर सकते हैं. संस्थागत वित्तीय संस्थाएँ तथा गैर-संस्थागत वित्तीय संस्थाएँ। संस्थागत वित्तीय संस्थाएँ वे हैं जिनपर रिजर्व बैंक अथवा सरकार का नियंत्रण रहता है। इसके विपरीत, गैर-संस्थागत वित्तीय संस्थाओं में महाजन, भू-स्वामी, व्यापारी आदि शामिल हैं जो साख के परंपरागत स्रोत हैं।
वित्त के संस्थागत स्रोतों में व्यावसायिक बैंक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। व्यावसायिक बैंक कृषि मुख्यतया कृषि एवं ग्रामीण साख की व्यवस्था करती हैं। यद्यपि व्यावसायिक बैंकों में राष्ट्रीयकृत बैंकों के साथ ही निजी व्यावसायिक बैंक और विदेशी बैंक भी शामिल हैं, लेकिन बिहार की वित्त व्यवस्था राष्ट्रीयकृत बैंकों पर ही आधारित है। देश के प्रमुख व्यावसायिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात बिहार में व्यावसायिक बैंकों का विस्तार हुआ है। लेकिन, देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा अभी भी हमारे राज्य में इनकी संख्या कम है। वर्तमान में देश के व्यावसायिक बैंकों की कुल संख्या का मात्र 4.58 प्रतिशत ही बिहार में है। यह इसकी जनसंख्या के हिस्से से काफी कम है। वर्ष 2007-08 में बिहार में व्यावसायिक बैंकों की कुल 3,769 शाखाओं में से 61.9 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में, 20.8 प्रतिशत अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में तथा शेष 17.3 प्रतिशत शहरों में अवस्थित थे। बिहार में व्यावसायिक बैंकों का ऋण-जमा अनुपात भी बहुत कम है। ऋण जमा अनुपात बैंकों द्वारा एकत्र किए गए जमा में से ऋण की माँग पूरी करने हेतु दी गई राशि के परिमाण को व्यक्त करता है। 1990 के दशक तक बिहार में ऋण-जमा अनुपात देश में लगभग सबसे कम था। 2000-01 के बाद इसमें थोड़ा सुधार हुआ है, लेकिन 2007-08 में भी यह देश में लगभग न्यूनतम है।
बिहार में व्यावसायिक बैंक ऋण प्रदान करने के मुख्य स्रोत हैं। राज्य के कुल ऋण वितरण का लगभग 65 प्रतिशत इन्हीं के माध्यम से होता है। राष्ट्रीयकरण के बाद व्यावसायिक बैंकों का बिहार के ग्रामीण क्षेत्र में बहुत विस्तार हुआ है। लेकिन अभी भी इनके द्वारा दी जानेवाली कृषि साख की मात्रा बहुत कम है।
4. 'राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक' के कणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- ग्रामीण तथा कृषि क्षेत्र की वित्तीय संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने के लिए सरकार ने जुलाई 1982 में 'राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना की यह बेंक कृषि तथा ग्रामीण साख की पूर्ति के लिए देश की शीर्ष संस्था है।
देश में कृषि एवं ग्रामीण साख की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा इस कार्य में संलग्न विभिन्न संस्थाओं के कार्यों में समन्वय स्थापित करने का कार्य करता है। कृषि एवं अन्य क्रियाकलापों के लिए ऋण उपलब्ध कराने तथा इस संबंध में नीति निर्धारण के लिए यह एक शीर्ष संस्था. है। विकास कार्यों के लिए निवेश तथा उत्पादक ऋण देनेवाली संस्थाओं के पुनर्वित के लिए मुख्य प्रतिनिधि का कार्य करता है।
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य पुनर्वास योजनाएँ तैयार, करना उनपर निगरानी रखना तथा ऋण उपलब्ध करानेवाली संस्थाओं का पुनर्गठन एवं उनके कर्मचारियों का प्रशिक्षण है।
बैंक का एक अन्य कार्य ऋण वितरण प्रणाली की क्षमता को बढ़ाने के लिए उनकी संस्थागत व्यवस्था को विकसित करना है। इसके साथ ही यह परियोजनाओं की देखरेख तथा मूल्यांकन करता है जिनके लिए उसने पुनर्वित की व्यवस्था की है।
लघु सिंचाई, कृषि यंत्रीकरण, स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना स्वयं सहायता समूह तथा ग्रामीण गैर-कृषि प्रक्षेय आदि के लिए वर्ष 2007-08 में नाबार्ड द्वारा बिहार में लगभग 184 करोड़ रुपये का ऋण वितरित किया गया है।
5. आर्थिक विकास में वित्तीय संस्थाओं की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर- आज सभी प्रकार की उत्पादक क्रियाओं के लिए वित्त या साख की आवश्यकता होती है। अतः, देश और राज्य की प्रगति के लिए वित्तीय संस्थाओं का विकसित होना अनिवार्य है। अधुनिक समय में अधिकांश भुगतान चेक, ड्राफ्ट, क्रेडिट कार्ड आदि के माध्यम से किए जाते हैं। इनके द्वारा लेन-देन तथा ऋणों आदि का भुगतान अधिक सुगमता और शीघ्रता से किया जा सकता है। वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्रदान की जानेवाली साख-सुविधाओं (साख की गारंटी इत्यादि) से व्यापार का जोखिम और लागत दोनों घट जाता है। एक विकसित वित्तीय प्रणाली राष्ट्र की बचत को एकत्र करने और उसके उचित निवेश में सहायक होती है। वित्तीय संस्थाएँ बचत तथा निवेश करनेवाले व्यक्तियों के बीच मध्यस्थ का कार्य करती हैं। इनके माध्यम से जनता की बचत ऐसे व्यक्तियों के पास पहुँच जाती है जो इसका अधिक कुशल प्रयोग कर सकते हैं। '
विगत वर्षों के अंतर्गत हमारे देश की वित्तीय संस्थाओं का बहुत तेजी से विकास एवं विस्तार है। अब ये संस्थाएँ बचत करनेवाले व्यक्तियों को कई प्रकार के जमा योजनाओं में धन लगाने की सुविधा प्रदान करती हैं। इससे बचत और पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन मिला है। इसके साथ ही अब उद्यमियों को वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से पूर्व की अपेक्षा अधिक सुगमता से साख या ऋण उपलब्ध होने लगा है। इससे उद्योग एवं व्यापार के विकास में बहुत सहायता मिली बैंक तथा सहकारी समितियों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में साख सुविधाओं के विस्तार से कृषि व्यवस्था में भी सुधार हुआ है। इससे कृषि की आधुनिक एवं उन्नत पद्धति का हो गया है। है। साख की संभव प्रयोग करना संभव हो गया है
बिहार की वित्तीय संस्थाओं में व्यावसायिक बैंक, सहकारी बैंक, भूमि विकास बैंक तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक महत्त्वपूर्ण हैं। परंतु, विगत वर्षों के अंतर्गत इनका राज्य में बहुत कम विस्तार हुआ है।
6. व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- किसी भी देश के आर्थिक विकास में बैंक महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। सामान्यतः एक व्यावसायिक बैंक के निम्नलिखित है-
1. जमा स्वीकार करना— लोगों की बचत को जमा के रूप में स्वीकार करना व्यावसायिक बैंकों का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। व्यक्ति अपने बचत को सुरक्षा की दृष्टि से बैकों के पास जमा कर देते हैं जिसपर उन्हें ब्याज भी मिलता है। व्यावसायिक बैंक प्रायः तीन प्रकार के खातों में रकम जमा करते हैं ।
(i) स्थायी जमा, (ii) चालू जमा तथा (iii) संचयी बैंक जमा ।
2. ऋण या कर्ज देना- व्यक्ति को ऋण या कर्ज देना व्यावसायिक बैकों का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य है। व्यावसायिक बैंक प्रायः उत्पादक कार्यों के लिए अल्पकालीन ऋण प्रदान करते हैं। बैंक अपने ग्राहकों की रेकम को जमा करता है और उसे उन लोगों को कर्ज के रूप में देता द्वारा ऋण प्रदान करने के मुख्य तरीके निम्नांकित है।
(i) अधिविकर्ष, (ii) नकद साख, (iii) ऋण एवं अग्रिम तथा (iv) विनिमय विलों का भुगतान।
3. एजेंसी संबंधी कार्य–व्यावसायिक बैंक अपने ग्राहकों के लिए उनके एजेंट का कार्य करता है। बैंक के इन कार्यों को एजेंसी संबंधी कार्य कहते हैं। बैंक के एजेंसी संबंधी कार्यों में निम्नलिखित कार्य प्रमुख है।
(i) ग्राहकों के लिए भुगतान प्राप्त करना, (ii) ग्राहकों की ओर से भुगतान करना (iii) प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय तथा (iv) प्रतिनिधि का कार्य।
4. सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्य–व्यावसायिक बैकों द्वारा कई अन्य कार्य भी संपन्न किए जाते हैं। इन्हें सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्य कहा जाता है। सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्यों में बैंकों के निम्नलिखित कार्य आते हैं—(i) मुद्रा का स्थानांतरण, (ii) साख-पत्र तथा यात्री चेक जारी करना, (iii) बहुमूल्य वस्तुओं की सुरक्षा (iv) ए॰टी॰एम॰ एवं क्रेडिट कार्ड सुविधा तथा (v) व्यापारिक सूचना तथा आँकड़े एकत्र करना।
इस प्रकार व्यावसायिक बैंकों द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन किया जाता है।
7. सहकारिता क्या है ? भारत में सहकारिता के विकास का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर- सहकारिता का अर्थ मिलकर कार्य करना है। सहकारिता एक ऐच्छिक संगठन है जो सामान्य आर्थिक एवं सामाजिक हितों में वृद्धि के लिए समानता के आधार पर स्थापित किया जाता है। इस प्रकार का संगठन सामूहिक हित के लिए कार्य करता है। भारतीय सहकारी नियोजन समिति के अनुसार, “सहकारिता एक ऐसा संगठन है जिसमें व्यक्ति स्वेच्छा के आधार पर अपनी आर्थिक उन्नति के लिए सम्मिलित होते हैं। "
भारत में सहकारिता का प्रारंभ 1904 में 'सहकारी साख समिति अधिनियम' पारित होने के साथ हुआ। इस अधिनियम के अनुसार गाँवों या नगरों में कोई भी दस व्यक्ति मिलकर सहकारी साख समिति की स्थापना कर सकते थे। लेकिन, इस अधिनियम का मुख्य दोष यह था कि इसमें गैर-साख समितियों की स्थापना के लिए कोई प्रावधान नहीं था। अतः, 1912 में एक दूसरा अधिनियम पारित कर देश में गैर-साख समितियों के गठन की अनुमति प्रदान की गई। सहकारिता की प्रगति के मूल्यांकन तथा इस संबंध में आवश्यक सुझाव देने हेतु सरकार ने 1915 में सैंकलेगन समिति (Maclagan Committee) की नियुक्ति की । इस समिति ने सहकारी समितियों को और अधिक सुदृढ़ बनाने के लिए कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। 1919 में सहकारिता को प्रांतीय विषय बना दिया गया। 1929-30 की मंदी का सहकारिता के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। कृषि-पदार्थों के मूल्य में कमी आ जाने से किसानों की स्थिति बिगड़ गई और उन्होंने इस आंदोलन से अपना हाथ खींच लिया। 1937 में रिजर्व बैंक के अधीन खोले गए कृषि साख विभाग से सहकारिता के विकास को बहुत प्रोत्साहन मिला -
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के वर्षों में सहकारिता के प्रसार और इसे सशक्त बनाने के लिए सरकार द्वारा विशेष प्रयास किए गए हैं। योजना आयोग के अनुसार इसका उद्देश्य गाँवों की प्रगति और ग्रामीण समाज का पुनर्पेठन करने के साथ ही कुटीर एवं लघु उद्योगों का विकास करना भी है। इन प्रयासों के फलस्वरूप विगत 40 वर्षों में सहकारिता की काफी प्रगति हुई है। जहाँ 1950-51 में सहकारी समितियों की संख्या मात्र 1 लाख 5 हजार तथा उनकी सदस्य संख्या 44 लाख थी वहाँ जून 1990 में सभी प्रकार की सहकारी समितियों की संख्या 3 लाख 50 हजार और उनकी सदस्यता 16 करोड़ हो गई थी।
वर्तमान समय में सहकारी संस्थाएँ विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं। साख की व्यवस्था करने के साथ ही ये किसानों को उन्नत बीज एवं उर्वरक उपलब्ध कराती हैं तथा उनकी उपज के विक्रय आदि की व्यवस्था करती हैं। इनसे कुटीर एवं लघु उद्योगों को भी बहुत प्रोत्साहन मिला है।
8. हमारे देश में सहकारी बैंकों के मुख्य प्रकार क्या है ?
उत्तर- सहकारिता के क्षेत्र में सहकारी बैंकों का महत्वपूर्ण मुख्य रूप स्थान है। हमारे देश में इन बैंकों के तीन है—केंद्रीय सहकारी बैंक,
(i) राज्य सहकारी बैंक- तथा भूमि विकास बैंक केंद्रीय सहकारी बैंक केंद्रीय सहकारी बैंकों का मुख्य कार्य प्रारंभिक समितियों का संगठन करना तथा उन्हें वित्तीय सहायता प्रदान करना है। अपनी अंशपूँजी एवं जमा - राशि, जनता द्वारा जमा की गई राशि तथा राज्य सहकारी बैंक से प्राप्त ऋण एवं अग्रिम केंद्रीय सहकारी बैंकों के पूँजी के मुख्य स्रोत है। केंद्रीय सहकारी बैंक उन सभी कार्यों का संपादन करते हैं जो एक व्यावसायिक बैंक द्वारा किए जाते हैं, जैसेजनता के धन को जमा के रूप में स्वीकार करना, ऋण देना, चेक, बिल, हुंडी आदि का भुगतान करना आदि।
(ii) राज्य सहकारी बैंक- प्रत्येक राज्य में इस प्रकार का केवल एक ही बैंक होता है जो उसके मुख्यालय में स्थित होता है। राज्य सहकारी बैंक राज्य के सभी केंद्रीय सहकारी बैंकों के प्रधान होते हैं। राज्य सहकारी बैंक के वित्तीय साधन उनकी अपनी अंशपूँजी, केंद्रीय सहकारी बैंक एवं जनता की जमाराशि तथा राज्य सरकार से प्राप्त ऋण एवं अग्रिम है। राज्य, सहकारी बैकों का मुख्य कार्य केंद्रीय सहकारी बैंकों का संगठन तथा उन्हें ऋण प्रदान करना है ।
(iii) भूमि विकास बैंक- प्रारंभिक कृषि साख समितियाँ कृषि की अल्पकालीन एवं मध्यकालीन साख की आवश्यकताओं को पूरा करती है। भूमि विकास बैंक किसानों के लिए दीर्घकालीन ऋण की व्यवस्था करते हैं। दीर्घकालीन ऋणि सिंचाई, ट्रेक्टर आदि जैसे महँगे कृषि-यंत्र, पुराने ऋणों के भुगतान तथा भूमि में स्थायी सुधार के लिए होते हैं। भूमि विकास बैंक को पहले 'भूमि बंधक बैंक भी कहा जाता था। भूमि विकास बैंक अपनी अंशपूँजी, जमाराशि तथा ऋणपत्रों की बिक्री आदि से वित्तीय साधन एकत्र करते हैं।
भूमि विकास बैंक भी दो प्रकार की होती हैं—केंद्रीय भूमि विकास बैंक तथा प्रारंभिक भूमि, विकास बैंक। देश के कई राज्यों में प्रारंभिक भूमि विकास बैंक नहीं है। ऐसे राज्यों में किसानों को सीधा केंद्रीय भूमि विकास बैंक से ही ऋणों की प्राप्ति होती है।
9. सहकारिता के मूल तत्त्व क्या हैं ? हमारे राज्य के विकास में इसकी भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर- सहकारिता एक ऐसा संगठन है जिसमें व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी आर्थिक उन्नति के लिए सम्मिलित होते हैं। सहकारिता के मूल तत्त्व अग्रलिखित हैं—
(i) सहकारिता एक ऐच्छिक संगठन है,
(ii) इसमें सभी सदस्यों को समान अधिकार प्राप्त होते हैं,
(iii) इसकी स्थापना समान आर्थिक हितों की प्राप्ति के लिए होती है, तथा
(iv) इसका प्रबंध प्रजातांत्रिक सिद्धांतों के आधार पर होता है।
बिहार एक ग्रामप्रधान राज्य है। यहाँ की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। इनमें अधिकांश कृषि एवं इससे संबद्ध क्रियाकलापों द्वारा जीविकोपार्जन करते हैं। बिहार के ग्रामीण परिवारों में बहुत छोटे अथवा सीमांत किसानों तथा भूमिहीन श्रमिकों की संख्या सर्वाधिक है। इस प्रकार के सीमित साधनों वाले व्यक्ति सहकारी संस्थाओं के माध्यम से अपने आर्थिक हितों में वृद्धि कर सकते हैं। हमारे राज्य के विकास में सहकारिता की भूमिका कई प्रकार से महत्त्वपूर्ण हो सकती है। वर्तमान में सहकारी संस्थाएँ कृषि ऋण की आवश्यकताओं का एक बहुत छोटा भाग पूरा करती है। परिणामतः, महाजनों आदि पर छोटे किसानों की निर्भरता बहुत अधिक है। सहकारिता के विस्तार से ग्रामीण क्षेत्रों में महाजनों और साहूकारों का प्रभुत्व कम होगा तथा ब्याज की दरों में गिरावट आएगी। सहकारी संस्थाएँ कृषि उपज के विक्रय, भूमि की चकबंदी तथा उन्नत खेती की व्यवस्था करने में भी सहायक हो सकती हैं।
राज्य के विभाजन के पश्चात बिहार के अधिकांश बड़े और मँझोले उद्योग झारखंड में चले गए हैं, तथा राज्य में छोटे आकारवाले उद्योगों की प्रधानता है। लघु उद्योग प्रक्षेत्र में भी तथा कारीगर-आधारित उद्योगों की बहुलता है। लेकिन, पूँजी के अभाव में बिहार के अधिकांश कुटीर एवं लघु उद्योग रुग्ण हो गए हैं। वास्तव में, बिहार में रुग्ण औद्योगिक इकाइयों की संख्या देश में सबसे अधिक है। इनके पुनरुद्धार में सहकारी संस्थाएँ सहायक हो सकती हैं।
Hello My Dear, ये पोस्ट आपको कैसा लगा कृपया अवश्य बताइए और साथ में आपको क्या चाहिए वो बताइए ताकि मैं आपके लिए कुछ कर सकूँ धन्यवाद |