1. आर्थिक विकास का क्या अभिप्राय है ? आर्थिक संवृद्धि एवं आर्थिक विकास में अंतर कीजिए
उत्तर- आर्थिक विकास का अर्थ देश के प्राकृतिक एवं मानवीय साधनों के कुशल प्रयोग द्वारा - राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि करना है। प्रो० मेयर के अनुसार—“आर्थिक विकास वह प्रक्रिया है जिसमें किसी देश की प्रतिव्यक्ति आय में दीर्घकाल तक वृद्धि होती है।
आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था के समस्त क्षेत्रों में उत्पादकता का ऊंचा स्तर प्राप्त करना होता है। इसके लिए विकास प्रक्रिया को गतिशील करना पड़ता है। सामान्य तौर पर आर्थिक विकास एवं संवृद्धि में कोई अन्तर नहीं माना जाता हैं अर्थशास्त्र विशेषज्ञों ने इसमें अंतर पाया है।
आर्थिक संवृद्धि एकल आगामी परिवर्तनों को दर्शाने के लिए किया जाता है। परंतु आर्थिक विकास शब्द का प्रयोग बहुल आगामी परिवर्तनों को दर्शाने के लिए प्रयोग किया जाता है। आर्थिक विकास राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय में होनेवाले वृद्धि के अतिरिक्त राष्ट्रीय आय का वितरण, नागरिकों के सामान्य जीवन स्तर एवं आर्थिक कल्याण से संबंधित है। -
श्रीमती उर्सला हिक्स के अनुसार "संवृद्धि (Growth) शब्द का प्रयोग आर्थिक दृष्टि से विकसित देशों के संबंध में किया जाता है जबकि विकास (Development) शब्द का प्रयोग विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के संदर्भ में किया जाता है। "
2. विकास की अवधारणा को स्पष्ट करें किस आधार पर कुछ देशों को विकसित और कब को अवकसित कहा जाता है ?
उत्तर- आर्थिक विकास की कई अवधारणाएँ है तथा इनका क्रमिक विकास हुआ है। प्रारम्भ में आर्थिक विकास का अर्थ उत्पादन एवं आय में होनेवाली वृद्धि से लगाया जाता है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार—“आर्थिक विकास का अर्थ देश के प्राकृतिक एवं मानवीय साधनों के कुशल प्रयोग द्वारा राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि करना है। परंतु कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय में होनेवाली वृद्धि आर्थिक विकास का सूचक नहीं है। किसी राष्ट्र का आर्थिक विकास राष्ट्रीय आय का वितरण, नागरिकों के सामान्य जीवन में सुधार एवं आर्थिक कल्याण पर निर्भर करता है।
विश्व बैंक ने 2006 के अपने विश्व विकास प्रतिवेदन (World Development Report - 2006) में राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय में होनेवाले वृद्धि के आधार पर कुछ देशों को विकसित और कुछ को अविकसित कहा है। विश्व बैंक के अनुसार 2004 में जिन देशों की प्रतिव्यक्ति आय 4,53,000 रुपये प्रतिवर्ष वार्षिक आय या उससे अधिक थी उन्हें समृद्ध या विकसित देश तथा वे देश जिनकी प्रतिवर्ष वार्षिक आय 37,000 रुपए या उससे कम थी उन्हें निम्न आयवाले या विकासशील देश की संज्ञा दी। दो अर्थव्यवस्थाओं के विकास के स्तर की तुलना करने के लिए तथा विकसित तथा अर्द्धविकसित देशों का वर्गीकरण करने के लिए भी राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय को संकेतक के रूप में प्रयोग करते हैं।
3. विकास के लिए प्रयोग किए जाने वाले विभिन्न मापदंडों अथवा संकेतों का उल्लेख करें?
उत्तर- राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय में होनेवाली वृद्धि आर्थिक विकास को मापने का एक महत्वपूर्ण मापदंड है। परंतु, इनमें कुछ कम हैं। प्रतिव्यक्ति आय या औसत आय द्वारा दो या दो से अधिक देशों के विकास के स्तर की तुलना करते हैं। प्रतिव्यक्ति आप आय के वितरण की. असमानता छिपा देता है।
इस प्रकार प्रतिव्यक्ति आय की सीमितताओं के कारण आर्थिक एवं सामाजिक विकास के कुछ वैकल्पिक संकेतकों का विकास किया गया।
जीवन की भौतिक गुणवत्ता के सूचक (Physical Quality of life Index) — मोरिस डी० मोरिस के अनुसार किसी देश के आर्थिक विकास को जीवन प्रत्याशा, शिशु मृत्युदर तथा मौलिक साक्षरता के सूची के अनुसार मापा जा सकता है।
मानव विकास सूचकांक (Human Development Index) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम(यू०एन०डी०पी०) के मानव विकास प्रतिवेदन (Human Development Report) के अनुसार विभिन्न देशों की विकास की तुलना लोगों के शैक्षिक स्तर, उनकी स्वास्थ्य स्थिति और प्रतिव्यक्ति आय के आधार पर की जाती है। इस मानव विकास प्रतिवेदन में कई नए घटक जैसे नागरिकों का जीवन स्तर उनका स्वास्थ्य एवं कल्याण जैसे विषय जोड़े गए हैं।
4. जीवन की भौतिक गुणवत्ता के सूचक की व्याख्या कीजिए। 'मानव विकास सूचकांक" इसमे किस प्रकार भिन्न है ?
उत्तर- जीवन की भौतिक गुणवत्ता के सूचक को विकसित करने का श्रेय मोरिस डेबिड मोरिस (Morris David Morris) नामक अर्थशास्त्री की है। इन्होंने पिछली शताब्दी के 70 के दशक के अंत में संयुक्त राष्ट्र की बहुत-सी समितियों एवं संस्थानों तथा विकास अर्थशास्त्रियों द्वारा अपनाए गए संकेतकों का अध्ययन किया। इससे वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इनमें अधिकांश संकेतक औद्योगिक दृष्टि से विकसित देशों की मान्यताओं पर आधारित थे तथा इनमें अर्द्धविकसित देशों के अंतर एवं उनके संगठनों के बीच की विभिन्नताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था। अतः, डेविड मोरिस ने ऐसे संकेतकों को विकसित करने का प्रयास किया जो किसी समाज की मान्यताएँ नहीं, वरन विकास की प्रक्रिया के निर्गत या परिणाम है। इसके साथ ही ये संयुक्त संकेतक ऐसे होने चाहिए जो सरल तथा अंतरराष्ट्रीय तुलना में सहायक हों। इन्हें सैकड़ों संकेतकों का अध्ययन करने के पश्चात केवल तीन ऐसे संकेतक मिले जो सर्वव्यापक हैं तथा इन मापदंडों को पूरा करते हैं। ये संकेतक हैं—
(i) जीवन प्रत्याशा (life expectancy),
(ii) शिशु मृत्यु दर (infant mortality), तथा
(iii) मौलिक साक्षरता (basic literacy)।
उपर्युक्त तीनों संकेतों की कई प्रकार से व्याख्या की जा सकती है। कोई देश उचित पोषण द्वारा उच्च जीवन प्रत्याशा प्राप्त करता है अथवा अच्छी चिकित्सा सुविधाओं द्वारा अथवा सफाई व्यवस्था में सुधार द्वारा, यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं है। कोई देश उच्च साक्षरता औपचारिक तरीकों से प्राप्त करता है या अनौपचारिक तरीकों से, यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं है। लेकिन, यह निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण है कि वह साक्षरता के उच्च स्तर को प्राप्त करने का प्रयास करता है। जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। लेकिन उसकी मृत्यु शिशु अवस्था में ही नहीं होनी चाहिए। ये सर्वमान्य तथ्य हैं जिन्हें सामान्यतः स्वीकारा गया है।
जीवन की भौतिक गुणवत्ता के सूचकांक के विकसित होने के लगभग 10 वर्षों के पश्चात एक अन्य सूचकांक का प्रयोग होने लगा है। संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (United.Nations Development Programme) 1990 से प्रतिवर्ष एक मानव विकास प्रतिवेदन (Human Development Report) प्रकाशित कर रही है। इनमें विभिन्न देशों की तुलना लोगों के शैक्षिक स्तर, उनकी स्वास्थ्य स्थिति और प्रतिव्यक्ति आय के आधार पर की जाती है।
5. मानव विकास सूचकांक क्या है ? इस सूचकांक के अनुसार 2004 में पड़ोसी देशों की तुलना में भारत की क्या स्थिति है ?
उत्तर- मानव विकास सूचकांक संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू०एन०डी०पी०) द्वारा 1990 से प्रतिवर्ष प्रकाशित की जाती है। मानव विकास सूचकांक के अंतर्गत लोगों के शैक्षिक स्तर, उनकी स्वास्थ्य स्थिति एवं प्रतिव्यक्ति आय के आधार पर देशों के आर्थिक विकास की स्थिति की तुलना की जाती है।
2006 के मानव विकास सूचकांक के अनुसार 2004 पड़ोसी देशों की तुलना में भारत की स्थिति को निम्नलिखित आँकड़ों से समझा जा सकता है।
आर्थिक विकास की दृष्टि से हमारे पड़ोस का एक छोटा-सा देश श्रीलंका प्रत्येक क्षेत्र में भारत से आगे है। दूसरी ओर, भारत जैसे एक बड़े देश का विश्व में मानव सूचकांक नीचे है। भारत की स्थिति प्रतिव्यक्ति आय के मामले में नेपाल से अच्छी है। परंतु नेपाल संभावित आय और साक्षरता-स्तर में भारत से ज्यादा नीचे नहीं है।
6. विकास की धारणीयता क्यों आवश्यक है ? विकास बना वर्तमान स्तर किन कारणों से धारणीय नहीं है ?
उत्तर- आर्थिक विकास को मापने के लिए किसी देश की आर्थिक विकास की धारणीयता को समझना आवश्यक है। विकसित देश विकास की प्रक्रिया में विकास का स्तर ऊँचा करने का यो विकास के स्तर को भावी पीढ़ी के लिए बनाये रखने का प्रयास करेंगे। ठीक उसी प्रकार विकासशील देशों की स्थिति रहेगी। जो स्पष्ट रूप से वांछनीय है।
लेकिन पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार विकास का वर्तमान प्रकार एवं स्तर धारणीय नहीं है। इसके कारण निम्नलिखित है।
(i) आर्थिक विकास और औद्योगिकीकरण के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक विदोहन तथा दुरुपयोग।
(ii) पर्यावरण संबंधी समस्याएँ ।
(iii) जंगलों का नष्ट होना तथा
(iv) भूमिगत जल का अति उपयोग।
विकास की प्रक्रिया को निरंतर बनाये रखने के लिए ही धारणीयता विकास की अवधारणा का जन्म हुआ। निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि विकास की प्रक्रिया एक दीर्घकालीन एवं निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है। अतएव हमें समय-समय पर अपने लक्ष्यों में परिवर्तन संशोधन करने की आवश्यकता है।
7. हमारे देश के आर्थिक विकास में बिहार का विकास किस प्रकार सहायक हो
उत्तर- बिहार का इतिहास अत्यंत प्राचीन है तथा इसने सदियों से देश के सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ईसापूर्व चौथी शताब्दी में स्थापित मौर्य साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित पहली देशव्यापी शासन-प्रणाली थी जिसकी राजधानी पटना के निकट पाटलिपुत्र में स्थित थी। ज्ञान और विज्ञान के प्रसार में भी बिहार का योगदान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। विश्वविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना पटना के निकट नालंदा में हुई थी। यह विश्व का प्रथम आवासीय विश्वविद्यालय था जिसमें केवल देश के ही नहीं वरन विदेशों के छात्र एवं विद्वान भी शिक्षा ग्रहण करते थे। बिहार ने देश के विभिन्न भागों को जोड़ने का कार्य किया है। सासाराम (बिहार) के मध्यकालीन सम्राट शेरशाह सूरी ने 'सड़के आजम' के नाम से देश में एक वृहत सड़क प्रणाली का निर्माण किया जो आज अँड ट्रॅक रोड के नाम से विख्यात है।
वर्तमान में बिहार की विकास दर बहुत धीमी है तथा विभाजन के पश्चात स्थिति कमजोर हो गई है। परंतु, इसमें अभी भी विकास की अपार संभावनाएँ हैं तथा देश के आर्थिक विकास में कई प्रकार से सहायक हो सकता है। राज्य के विभाजन के पूर्व बिहार में खनिज पदार्थों का विशाल भंडार था जिससे अब यह वचित हो गया है। लेकिन, बिहार की भूमि अत्यंत उपजाऊ है। वस्तुतः, उत्तरी बिहार विश्व के सबसे उपजाऊ भागों में से एक है। इस प्रकार, उर्वर भूमि एवं पर्याप्त जल संसाधन के रूप में बिहार में प्राकृतिक संसाधनों का बाहुल्य है। अतः, कृषि विकास द्वारा इसे कृषि के क्षेत्र में देश का सबसे विकसित राज्य बनाया जा सकता है। बिहार में केवल खाद्य फसलों का ही नहीं वरन गन्ना, जूट, तंबाकू, चाय आदि कई प्रकार की व्यावसायिक फसलों का भी उत्पादन होता है। अतः, राज्य में कृषि आधारित उद्योगों के विकास की संभावनाएँ भी बहुत अधिक है। बिहार मसालों के उत्पादन में देश का एक अग्रणी राज्य है, जिसकी देश और विदेशों में बहुत माँग है। सब्जी के उत्पादन में इसका देश में दूसरा तथा फल के उत्पादन में तीसरा स्थान है। चीन के बाद भारत विश्व में लीची का सबसे बड़ा उत्पादक है जिसका 70 प्रतिशत उत्पादन बिहार में होता है। लीची और आम जैसे उत्पादित फलों के निर्यात द्वारा राज्य में पर्याप्त विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती हैं। बिहार में युवा मानवीय संसाधनों की भी बहुलता है तथा इनके कौशल का विकास हमारे देश के आर्थिक विकास में बहुत सहायक हो सकता है। - राज्य की आर्थिक इसका विकास 20
इस प्रकार, बिहार के विकास की देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। परंतु, इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर विकास की एक विस्तृत रणनीति बनाना आवश्यक है।
8. एक अर्थव्यवस्था का के मुख्य कार्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर- मुख्य कार्य मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं को संतुष्ट करना है। परंतु, इसके लिए कई प्रकार की आर्थिक क्रियाओं का संपादन होता है। इनमें निम्नांकित प्रमुख हैं-
(i) उत्पादन- किसी भी देश के नागरिकों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कई प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं की जरूरत पड़ती है। एक अर्थव्यवस्था में ही उत्पादन के विभिन्न साधनों के सहयोग से वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। आर्थिक व्यवस्था या अर्थव्यवस्था का एक मुख्य कार्य उत्पादन के विभिन्न साधनों को एकत्र कर उनमें सामंजस्य स्थापित करना है।
(ii) विनिमय- मनुष्य के प्रारंभिक जीवन में इसकी आवश्यकताएँ बहुत कम थीं और वह स्वयं इनकी पूर्ति कर लेता था। परंतु, सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत बढ़ गई हैं। आज समाज का कोई भी सदस्य अपनी सभी आवश्यकताओं को स्वयं नहीं पूरा कर सकता। वर्तमान समय में, प्रत्येक व्यक्ति केवल एक ही वस्तु का उत्पादन करता है और दूसरों से विनिमय या लेन-देन कर अपनी आवश्यकता की अन्य वस्तुएँ प्राप्त करता है। कुछ समय पूर्व तक किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु से प्रत्यक्ष रूप में विनिमय होता था। परंतु, वस्तु विनिमय में कई कठिनाइयाँ थीं। अतः इन्हें दूर करने के लिए समाज में मुद्रा का आविष्कार हुआ। आज विश्व की प्रायः सभी अर्थव्यवस्थाओं में विनिमय का कार्य मुद्रा के माध्यम से होता है। एक अर्थव्यवस्था ही देश में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय की व्यवस्था करती है। -
(iii) वितरण – आधुनिक समय में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन कई साधनों के सहयोग से होता है जो उत्पादन के साधन या कारक कहे जाते हैं। भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन एवं साहस उत्पादन के मुख्य साधन हैं जो उत्पादन - कार्य में हिस्सा लेते हैं। अतः, राष्ट्रीय उत्पादन, अर्थात उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य का भी इन्हीं के बीच वितरण कर दिया जाता है। देश के कुल उत्पादन में से भूमि को लगान, श्रमिकों को मजदूरी, पूँजीपति को ब्याज, संगठनकर्ता को वेतन तथा साहसी को लाभ मिलता है। एक अर्थव्यवस्था ही इस बात का भी निर्णय लेती है कि उत्पादन के कारकों के बीच उत्पादित संपत्ति का किस प्रकार वितरण
(iv) आर्थिक विकास – अर्थव्यवस्था का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य आर्थिक विकास की गति को बनाए रखना है। इसके लिए यह वर्तमान उत्पादन के एक भाग को बचाकर उसका विनियोग करती है। इससे देश या समाज की भावी उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है।
9. पर्यावरण संकट के कारणों की विवेचना कीजिए
उत्तर- हमारा भूमंडल विकास एवं परिवर्तन के संक्रमणकाल से गुजर रहा है। पिछली शताब्दी में जहाँ विश्व उत्पादन 50 गुना से भी अधिक बढ़ गया है वहीं विश्व जनसंख्या भी बढ़कर 6 अरब से अधिक हो गई है। कुछ समय पूर्व तक हमारा ध्यान केवल आर्थिक विकास के वातावरण. पर पड़नेवाले प्रभाव तक सीमित था। परंतु, अब हम पारिस्थितिकीय संकट को उसके मूल कारणों से जोड़कर देखने के लिए बाध्य हो गए हैं। इस पर्यावरण एवं पारिस्थितिकीय संकट के मुख्य कारण निम्नांकित हैं
(i) आर्थिक विकास— आर्थिक विकास एवं औद्योगिकीकरण के क्रम में प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक विदोहन तथा दुरुपयोग हुआ है। बीसवीं सदी में विकसित देशों ने पिछड़े और अर्द्धविकसित देशों के प्राकृतिक साधनों का अत्यधिक शोषण किया। ये देश ही आज औद्योगिक या विकसित देश कहे जाते हैं। गत वर्षों के अंतर्गत अब विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ भी अपने उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक विदोहन कर रही हैं। इसके फलस्वरूप, पर्यावरण तथा जैवमंडल को भावी विकास के लिए सुरक्षित रखने की समस्या गंभीर हो गई है।
(ii) निर्धनता- वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं का एक प्रमुख कारण निर्धनता है। वास्तव में, निर्धनता इस समस्या का कारण और परिणाम दोनों ही है। कृषि, वन संसाधन, खनन आदि जैसे प्राथमिक उद्योग या व्यवसाय ही विकासशील देशों की आय और रोजगार के मुख्य स्रोत हैं। इन देशों की कुल राष्ट्रीय आय में इनका 50 प्रतिशत से भी अधिक योगदान होता है। प्राकृतिक संसाधन ही इनके निर्यात का भी मुख्य आधार है। इनका क्षय होने से इन देशों की उत्पादन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। -
(iii) संख्या में वृद्धि - विश्व की जनसंख्या में निरंतर बहुत तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। इनमें लगभग 90 प्रतिशत वृद्धि पिछड़े और निर्धन देशों में हो रही है विस्फोट की स्थिति में है। इससे भूमि की उपलब्धता कम हुई है तथा उसका दुरुपयोग होने लगा है। भूमिक्षरण, खनिज संपदा का अत्यधिक विदोहन, जंगलों की कटाई आदि बढ़ती हुई जनसंख्या के ही परिणाम हैं। इससे पर्यावरण और जैवमंडल के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है।
(iv) नवीन तकनीक- आर्थिक विकास ने उत्पादन की नई तकनीक को जन्म दिया है जिनमें निरंतर सुधार हो रहे हैं। इससे सीमित साधनों के प्रयोग में सहायता मिली है। परंतु, इनसे पर्यावरण प्रदूषण में भी वृद्धि हुई है। इनका सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव विकासशील देशों पर पड़ा है। इसका कारण यह है कि वे पूँजी के अभाव में इस प्रकार की अत्याधुनिक तकनीक का प्रयोग करने में असमर्थ हैं।
10. पर्यावरण की सुरक्षा के लिए किए जाने वाले उपायों का उल्लेख करें।
उत्तर- आज इस बात से सभी सहमत हैं कि पर्यावरण को सुरक्षित बनाकर ही सतत अथवा टिकाऊ विकास के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। पर्यावरण की सुरक्षा और इसमें होनेवाली गिरावट को रोकने के लिए प्रायः सभी देशों ने आवश्यक कदम उठाए हैं। भारत सरकार ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 में पारित किया जिसमें केंद्र सरकार को पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कई अधिकार दिए गए हैं।
पर्यावरण की गुणवत्ता को सुधारने में बनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। परंतु, आर्थिक विकास की प्रक्रिया में वनों का बहुत अधिक ह्रास हुआ है। इससे जैव-मंडल के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है तथा बहुत-से जीव-जंतु और उनकी प्रजातियाँ नष्ट होती जा रही हैं। पारिस्थितिकीय प्रणालियों तथा संपूर्ण जैवमंडल के सामान्य संचालन के लिए पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं तथा सूक्ष्मजीवों की विविधता तथा संपूर्णता को बनाए रखना आवश्यक है। इसके लिए सभी देशों को वनों के विकास और संरक्षण पर बल देना चाहिए। भारत सरकार ने मई 1952 में अपनी प्रथम वन नीति की घोषणा की थी। सरकार की संशोधित वन नीति 1988 में लागू हुई। इसका जेन उद्देश्य पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से वनों का विकास, प्राकृतिक संपदा का संरक्षण, नदियाँ, झीलों तथा जलधाराओं के क्षेत्र में भूक्षरण का नियंत्रण, मरुभूमि एवं तटीय प्रदेशों में रेतीले क्षेत्रों के विस्तार पर नियंत्रण, व्यापक वृक्षारोपण तथा सामाजिक वानिकी को प्रोत्साहन देना है। कई अन्य देशों ने भी इस प्रकार की नीति अपनाई है।
विश्व स्तर पर पर्यावरण संकट को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा (United Nations General Assembly) ने 1983 में विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग (World Commission on Environment and Development) की स्थापना की है। यह आयोग संयुक्त राष्ट्र का एक स्वतंत्र निकाय है। इस आयोग के तीन मुख्य उद्देश्य हैं— पर्यावरण एवं विकास के शोचनीय परिणामों का पुनरीक्षण करना तथा इनके समाधान के लिए आवश्यक सुझाव देना, इसके लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाने तथा विभिन्न देशों की नीतियों में परिवर्तन और सामंजस्य लाने का प्रयास करमा तथा व्यक्तियों, स्वैच्छिक संस्थाओं, व्यापारिक संगठनों और सरकारों में इस समस्या के प्रति जागरूकता एवं संकल्प को बढ़ावा देना।
11. आर्थिक विकास के प्रमुख कारकों की विवेचना कीजिए।
उत्तर- आर्थिक विकास के कारकों या निर्धनता तत्त्वों को मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है— आर्थिक कारक तथा गैर-आर्थिक कारक । विकास के आर्थिक तत्त्वों अथवा कारकों में निम्नांकित महत्त्वपूर्ण हैं
(i) प्राकृतिक संसाधना (Natural resources )- प्राकृतिक संसाधनों से हमारा अभिप्राय जलवायु, भूमि, नदियाँ, जंगल, जीव-जंतु आदि उन सभी साधनों से है जो किसी देश को प्रकृति द्वारा प्रदान किए जाते हैं। इन प्राकृतिक साधनों पर श्रम एवं पूँजी के प्रयोग द्वारा ही वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है जो मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि करती हैं।
(ii) पूँजी निर्माण (Capital tformation)- किसी देश की अर्थव्यवस्था के विकास में पूँजी का योगदान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है। प्रथम, पूँजी के प्रयोग से श्रम की उत्पादकता, अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता तथा राष्ट्रीय आय के स्तर में वृद्धि होती है। द्वितीय, पूँजी उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के प्रकार एवं गुणवत्ता में सुधार लाने में सहायक होती है। तृतीय, पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि होने से प्रयोग एवं अनुसंधान को प्रोत्साहन मिलता है। इससे आर्थिक विकास की गति अधिक तीव्र हो जाती है।
(iii) पूँजी-उत्पाद अनुपात (Capital-outputtratio)- पूँजी-उत्पाद अनुपात पूँजी की उत्पादकता को व्यक्त करता है। पूँजी की उत्पादकता का अर्थ यह है कि पूँजी की इकाइयों के अनुपात में उत्पादन की मात्रा में कितनी वृद्धि होती है। इससे देश के आर्थिक विकास की गति का पता लगाया जा सकता है। पूँजी की उत्पादकता अथवा पूँजी-उत्पाद अनुपात जितना अधिक होगा, आर्थिक विकास की गति भी उतनी ही अधिक होगी।
(iv) तकनीकी विकास (Technical progress)- तकनीकी विकास का अभिप्राय उत्पादन की आधुनिक एवं श्रेष्ठ तकनीक और विधियों के विकास तथा प्रयोग से है। तकनीकी विकास से देश के उपलब्ध संसाधनों का कुशतम प्रयोग होता है तथा उत्पादित वस्तुओं की गुणवत्ता और मात्रा दोनों में वृद्धि होती है।
(v) मानवीय संसाधन (Human resources)- आर्थिक विकास की दृष्टि से मानवीय संसाधनों का सर्वाधिक महत्त्व है। इसका कारण यह है कि मनुष्य उत्पादन का साधन तथा साध्य दोनों ही है। साधन के रूप में वह श्रम और उद्यमियों की सेवाएं प्रदान करता है। इनकी सहायता से ही उत्पादन के अन्य साधनों का प्रयोग संभव हो पाता है। मानवीय संसाधनों का महत्त्व इस कारण और बढ़ जाता है क्योंकि प्रकृति प्रदत्त साधनों पर पूँजी का प्राकृतिक संसाधन और पूँजी निष्क्रिय होते हैं। मनुष्य ही प्रयोग कर वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करता है।
आर्थिक विकास के आर्थिक कारक- किसी देश के आर्थिक विकास का स्तर गैर-आर्थिक कारकों से भी प्रभावित होता है। प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधन, पूँजी की उपलब्धता, उत्पादन तकनीक आदि विकास के आर्थिक कारक हैं। इनका आर्थिक विकास पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत, गैर-आर्थिक कारक आर्थिक विकास को अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावित करते हैं। गैर-आर्थिक कारकों में राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। इस संस्थाओं के प्रतिकूल रहने पर आर्थिक विकास की गति मंद हो जाती है। राजनैतिक स्थायित्व तथा राज्य अथवा सरकार के सहयोग के बिना एक अर्थव्यवस्था का कुशल संचालन संभव नहीं है। उदाहरण के लिए, भारतीय अर्थव्यवस्था के अर्द्धविकसित होने का एक प्रधान कारण राजनैतिक रहा है। अँगरेजों के आगमन के पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ एवं स्वावलंबी थी। विदेशी शासकों की विभेदात्मक नीति के कारण ही भारत में आधारभूत और पूँजीगत उद्योगों का विकास नहीं हो सका जो उद्योगीकरण के आधार होते हैं। शिक्षा प्रणाली उत्पादक क्रियाओं में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं . लेती, परंतु ऐसी सेवाएँ प्रदान करती है जो हमारी उत्पादन क्षमता को बढ़ाती हैं। इसी प्रकार, चिकित्सा, स्वास्थ्य एवं सामाजिक सेवाओं से भी लोगों की उत्पादन-कुशलता में वृद्धि होती है। यदि देश की सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाएँ सामाजिक चेतना तथा जीवन के नए मूल्यों को विकसित करती हैं तब इसका आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
12. देशा के अन्या बड़े साज्यों की तुलना में बिहार के आर्थिक विकास की स्थिति है ?
उत्तर- पूर्वी भारत का एक प्रमुख राज्य होने पर भी बिहार आर्थिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ा हुआ है। वस्तुतः, आर्थिक विकास के प्रायः सभी मापदंडों पर यह देश के अन्य सभी राज्यों से नीचे है। किसी देश या राज्य के विकास का स्तर अंततः उसके शुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद पर निर्भर करता है। 2005-06 में वर्तमान मूल्यों पर बिहार का शुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद लगभग 71,497 करोड़ रुपये था जबकि भारत का शुद्ध घरेलू उत्पाद 28,70,750 करोड़ रुपये था। प्रतिव्यक्ति आय विकास का एक अन्य महत्त्वपूर्ण संकेतक है जो लोगों के जीवन स्तर को प्रभावित करता है। जनसंख्या की सघनता अधिक होने के कारण देश के अन्य राज्यों की तुलना में बिहारवासियों की प्रतिव्यक्ति आय भी बहुत कम है। 2005-06 में वर्तमान मूल्यों पर जहाँ हरियाणा और महाराष्ट्र की प्रतिव्यक्ति आय क्रमश: 38,832 तथा 37,081 रुपये थी वहाँ बिहारवासियों की प्रतिव्यक्ति आय मात्र 7,875 रुपये थी। -
खनिज संपदा औद्योगिक विकास का आधार है। विभाजनपूर्व खनिज पदार्थों की दृष्टि से बिहार देश का सबसे धनी राज्य था। परंतु, विभाजन के पश्चात हमारे अधिकांश खनिज नवनिर्मित राज्य झारखंड में चले गए हैं और बिहार में इनका सर्वथा अभाव हो गया है। पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत भी भारी एवं आधारभूत उद्योग अधिकतर दक्षिण बिहार में स्थापित किए गए जो अब झारखंड राज्य का अंग हो गया है। इसका बिहार के औद्योगिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। उत्तर बिहार के चीनी, जूट, कागज आदि अधिकांश कृषि-आधारित उद्योग रुग्ण अवस्था में हैं अथवा बंद हो गए हैं। परिणामतः, राज्य की अधिकांश जनसंख्या (लगभग 80 प्रतिशत) अपने जीविकोपार्जन के लिए कृषि पर निर्भर है। हमारे सकल राज्य घरेलू उत्पाद में भी कृषि का लगभग 40 प्रतिशत योगदान होता है। परंतु, बिहार की कृषि अत्यंत पिछड़ी हुई अवस्था में है तथा इसकी उत्पादकता देश के प्रायः अन्य सभी राज्यों से कम है। बिहार की आर्थिक और सामाजिक दोनों ही संरचनाएँ बहुत कमजोर और निम्न स्तर की हैं। राज्य में बिजली की बहुत कमी है तथा यह कृषि एवं उद्योग दोनों ही क्षेत्रों के विकास में बाधक सिद्ध होती है। क्षेत्रफल तथा जनसंख्या दोनों ही दृष्टियों से बिहार में सड़कों की लंबाई देश के अन्य विकसित राज्यों की अपेक्षा बहुत कम है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ विकास के महत्त्वपूर्ण मापदंड हैं। बिहार में इन सेवाओं का स्तर भी बहुत निम्न है। परंत विंगत लगभग 4-5 वर्षों में बिहार में आर्थिक विकास की प्रक्रिया तीव्र हुई है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन की हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2004-05 से 2008-09 के बीच बिहार की अर्थव्यवस्था में औसतन 11.3 प्रतिशत की वार्षिक दर से वृद्धि हुई है। बिहार सरकार की 2009-10 के आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार 2004-05 में राज्य की प्रतिव्यक्ति आय 7,443 रुपये थी जो 2008 में बढ़कर 10,415 और 2009 में 13,959 रुपये हो गई है। बिहार की यह उच्च वृद्धि दर मुख्यतया निर्माण, संचार तथा व्यापार (होटल एवं रेस्टोरेंट) प्रक्षेत्र में होनेवाले विकास का परिणाम है।
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