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Class 10th Bharati Bhawan History Chapter 8 | Short Answer Question | प्रेस-संस्कृति एवं राष्ट्रवाद | कक्षा 10वीं भारती भवन इतिहास अध्याय 8 | लघु उत्तरीय प्रश्न

Class 10th Bharati Bhawan History Chapter 8  Short Answer Question  प्रेस-संस्कृति एवं राष्ट्रवाद  कक्षा 10वीं भारती भवन इतिहास अध्याय 8  लघु उत्तरीय प्रश्न
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लघु उत्तरीय प्रश्न 
1. गुटेनबर्ग के विषय में आप क्या जानते हैं ? 
उत्तर- जर्मनी का गुटेन्बर्ग ने 1450 ई. में छापाखाना का अधिकार किया। वह बहुत ही जिज्ञासु प्रवृति का था। जैतून पैरने की मशीन को आधार बनाकर उसने प्रिटिंग प्रेस (हैंड प्रेस) का विकास किया। गुटेम्बर्ग ने मुद्रण स्याही का भी इजाद किया। गुटेन्बर्ग ने जो छपाई मशीन विकसित की उसे मूवेबल टाइप प्रिंटिंग मशीन' कहा गया। क्योंकि रोमन वर्णमाला के सभी 26 अक्षरों के लिए टाइप बनाए गए तथा इन्हें घुमाने या 'मूव' करने की व्यवस्था की गयी। इस प्रक्रिया के द्वारा पुस्तकें तेजी से छापी जाने लगी। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इस मशीन में प्रति घंटे अढ़ाई सौ पन्नों के एक ओर छपाई की जा सकती थी। गुटेनबर्ग प्रेस में जो पहली पुस्तक छपी वह ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल थी।
2. रोमन कैथोलिक चर्च ने 16 वीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची रखनी क्यों आरंभ की?
उत्तर- मार्टिन लूथर के पिच्चानवें स्थापनाएँ (1517) ने रोमन कैथोलिक चर्च में प्रचलित अनेक परंपराओं एवं धार्मिक विधियों पर प्रहार किया। लूथर के इस लेख का व्यापक प्रचार हुआ. जिसके कारण रोमन कैथोलिक चर्च में विभाजन हो गया। लूथर ने ईसाई धर्म की नई व्याख्या प्रस्तुत की। उसके समर्थक प्रोटेस्टैंट कहलाए। दूसरी ओर रोमन कैथोलिक चर्च धर्म विरोधी भावना को दबाने के लिए प्रयासरत थी क्योंकि पुस्तकें धार्मिक मान्यताओं एवं चर्च की सत्ता को चुनौती दे रही थी। नए धार्मिक विचारों के प्रसार को रोकने के लिए चर्च ने ने प्रकाशकों और पुस्तक बिक्रेताओं पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए जिससे वे धार्मिक स्वरूप को चुनौती देनेवाली सामग्री का प्रकाशन नहीं कर सकें। चर्च ने अनेक पुस्तकों को प्रतिबंधित भी कर दिया। 1558 से चर्च प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची रखने लगा जिससे उनका पुनर्मुद्रण और वितरण नहीं हो सके।  
3. तकनीकी विकास का मुद्रण पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर-तकनीकी विकास का मुद्रण पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अब कम समय, कम श्रम तथा कम लागत में ज्यादा से ज्यादा छपाई होने लगी। 18वीं सदी के अंतिम चरण तक धातु के बने छापाखाने काम करने लगे। 19वीं 20वीं सदी में छापाखानों में और अधिक तकनीकी सुधार किए गए। 19वीं शताब्दी में न्यूयॉर्क निवासी एम. ए. हो ने शक्ति चालित बेलनाकार प्रेस का निर्माण किया। इसके द्वारा प्रतिघंटा आठ हजार ताव छापे जाने लगे। इससे मुद्रण में तेजी आई। इसी सदी के अंत तक ऑफसेट प्रेस भी व्यवहार में आया। इस छापाखाना द्वारा एक ही साथ छह रंगों में छपाई की जा सकती थी। 20वीं सदी के आरंभ से बिजली संचालित प्रेस व्यवहार में आया। इसने छपाई को और गति प्रदान की। प्रेस में अन्य तकनीकी बदलाव भी लाए गए, जैसे कागज लगाने की विधि में सुधार किया गया तथा प्लेट की गुणवत्ता बढ़ाई गई। साथ ही स्वचालित पेपर शील और रंगों के लिए फोटो विद्युतीय नियंत्रण का व्यवहार किया जाने लगा।  
4. भारत में मुद्रण के आरंभिक इतिहास पर एक टिप्पणी लिखें। 
उत्तर-भारत में यूरोप की तुलना में पुस्तकों की छपाई देर से आरंभ हुई जबकि प्राचीन काल से ही लोग लिपि और लेखन कला से परिचित थे। उस समय धातु-पत्थर पर अभिलेख उत्कीर्ण करवाने के अतिरिक्त भोजपत्र एवं ताड़ के पत्तों तथा बाद में हाथ से बने के भी लेखन सामग्री के रूप में किया गया।
भारत में छपाई का इतिहास पुर्तगालियों के आगमन के साथ आरंभ होता है। 16वीं सदी के. मध्य में गोवा में पुर्तगाली धर्मप्रचारकों, जेसुइटों ने पहली बार छापाखाना लगाया। उन लोगों ने स्थानीय लोगों से कोंकणी भाषा सीखकर उसमें अनेक पुस्तकें छापी। 16वीं शताब्दी से ही कैथोलिक पादरियों ने तमिल भाषा में पहली पुस्तक कोचीन में प्रकाशित की। इसी समय से भारत में पुस्तकों की छपाई ने गति पकड़ी। 1674 तक कोंकणी और कन्नड़ में लगभग पचास पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका था। डच धर्म प्रचारक भी पुस्तकों की छपाई में पीछे नहीं रहे। उनलोगों ने पुरानी पुस्तकों के अनुवाद सहित बत्तीस तमिल भाषा की किताबें छापी। इस प्रकार भारत में पुस्तकों का प्रकाशन यूरोपीय धर्म प्रचारकों द्वारा आरंभ किया गया। पुस्तकों के साथ ही 18वीं शताब्दी से पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आरंभ हुआ।
5. भारत में पांडुलिपियाँ कैसे बनाई जाती थी?
उत्तर- प्राचीन काल में भारत में धातु-पत्थर पर अभिलेख उत्कीर्ण करवाने के अतिरिक्त भोजपत्र एवं ताड़ के पत्रों तथा बाद में हाथ से बने कागज का व्यवहार भी लेखन सामग्री के रूप में किया गया। इनसे हस्तलिखित पांडुलिपियाँ तैयार की गई। संस्कृत पाली प्राकृत क्षेत्रीय भाषाओं, अरबी तथा फारसी में ऐसी असंख्य पांडुलिपियाँ तैयार की गई। इनके किनारों को सुंदर , रंगीन चित्रों से सुसज्जित किया जाता था। इनके पन्नों को सिलकर उनपर जिल्द चढ़ा दी जाती थी जिससे वे सुरक्षित रह सके। सल्तनत और मुगलकाल में भी बड़ी संख्या में अरबी-फारसी में पांडुलिपियाँ तैयार की गई। मुगल सम्राट अकबर ने तो एक किताबखाना ही खोल रखा था जहाँ पांडुलिपियाँ बनाई जाती थी। पांडुलिपि बनाने की विधि उनका व्यवहार कठिन था। वे महंगी और नाजुक होती थी। सबके लिए उन्हें पढ़ना आसान नहीं था। इसलिए वे सर्वसाधारण की पहुँच सदर थी।
6. मार्टिन लूथर के विषय में आप क्या जानते हैं ? हैं
उत्तर- मार्टिन लूथर (जर्मनी) एक महान धर्म सुधारक था। वह चर्च में व्याप्त बुराइयों का विरोधी था और इसमें सुधार लाना चाहता था। उसे धर्म सुधार आंदोलन का अग्रदूत कहा जाता है। 1517 में लूथर ने पंचानवें स्थापनाएँ लिखीं जिसमें उसने रोमन कैथोलिक चर्च में प्रचलित अनेक परम्पराओं एवं धार्मिक विधियों पर प्रहार किया। लूथर के लेखक के व्यापक प्रभाव से रोमन कैथोलिक चर्च में विभाजन हो गया। लूथर ने ईसाई धर्म की नई व्याख्या प्रस्तुत की। उसके समर्थक प्रोटेस्टैंक कहलाए। धीरे-धीरे प्रोटेस्टेंट संप्रदाय ईसाई धर्म का प्रमुख संप्रदाय बन गया।  
7. इन्क्वीजीशन से आप क्या समझते हैं ? इसकी जरूरत क्यों पड़ी?
उत्तर-रोमन चर्च धर्म विरोधी भावना को दबाने के लिए प्रयासरत थी क्योंकि पुस्तकें धार्मिक मान्यताओं एवं चर्च की सत्ता को चुनौती दे रही थी। पुस्तकें पढ़कर सामान्य जनता और बुद्धिजीवियों ने ईसाई धर्म और बाइबिल में दिए गए उपदेशों पर नए ढंग से चिंतन-मनन आरंभ कर दिया। धर्म विरोधी विचारों के प्रसार को रोकने के लिए रोमन चर्च ने इन्क्वीजीशन नामक संस्था का गठन किया। यह एक प्रकार का धार्मिक न्यायालय था। इसका काम धर्म विरोधियों की पहचान कर उन्हें दंडित करना था। इन्क्वीजीशन की जरूरत इसलिए पड़ी विचारों के प्रसार को रोकने के लिए चर्च ने प्रकाशकों और पुस्तक विशेषताओं पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए जिससे वे धार्मिक स्वरूप को चुनौती देनेवाली सामग्री का प्रकाशन नहीं कर सकें। 1558 से चर्च प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची रखने लगा जिससे उसका पुनर्मुद्रण और वितरण नहीं हो सकें।
8. यूरोप में युवा वर्ग के लिए किस प्रकार के उपन्यास लिखे गए ?
उत्तर-युवाओं के लिए लिखे गए उपन्यासों का उद्देश्य उनमें साहस की भावना जगाना था जबकि किशोरियों के लिए रोमांस से भरपूर कहानियाँ और स्वतंत्र विचारवाले पुरुष के रूप में प्रदर्शित किया गया। ऐसे उपन्यासों के कथानकों का स्थल यूरोप से दूर-दराज के इलाकों में होता से था। 18वीं तथा 19वीं शताब्दियों में पश्चिमी दुनिया में उपनिवेशों की स्थापना करनेवालों की पर्याप्त सामाजिक प्रतिष्ठा थी। साहसिक कारनामों और उपनिवेशों की स्थापना से संबद्ध अनेक रोचक उपन्यास प्रकाशित किए गए। इनमें प्रमुख है डैनियल डेफो का रॉबिंसन क्रूसो तथा गुलिवर्स ट्रेवेल्स, ट्रजर आइलैंड और रुडयार्ड किपलिंग का जंगल बुक जो साहसिक कारनामों से भरपूर हैं। जी. ए. हटी का अंडर ड्रेस फ्लैंग में अंग्रेजी वीरता और ईसाई धर्म का गुणगान किया गया है।
9.वीं सदी में ब्रिटेन में आए उन सामाजिक बदलावों का उल्लेख करें जिनका चित्रण चार्ल्स डिकैन्स और थॉमस हार्डी ने अपने उपन्यासों में किया है। 
उत्तर-चार्ल्स डिकेन्स अंग्रेजी साहित्य तथा उपन्यास के महान लेखक माने जाते हैं। हार्ड टाइम्स और ओलिवर ट्विस्ट उनके महान उपन्यास थे। ओलिवर ट्विस्ट में बेसहारा और अनाथ बच्चों के जीवन में उतार-चढ़ाव की कहानी है। हाई टाइम्स में उन्होंने 'कोकटाउन' अर्थात धुएँ का शहर नामकं काल्पनिक औद्योगिक नगर के विनाशकारी प्रभाव का वर्णन किया है। इसमें कारखानेदारों की अधिक मुनाफा कमाने एवं श्रमिकों का मार्मिक चित्रण है। थॉमस हार्डी ने अपने उपन्यासों में ग्रामीण समुदायों, उनकी खुशियों तथा उनके गमों के साथ जुड़ने का भाव पैदा किया है। उनके कुछ महत्त्वपूर्ण उपन्यास फार फ्रॉम दी मड्डिंग काउंड (Far from the madding crowd), टैस (Tess), इत्यादि है।
10. औपनिवेशिक भारत के दो उपन्यासों का उल्लेख करें, जिनमें राष्ट्रवाद को दिखाया गया है।
उत्तर-औपनिवेशिक भारत में उपन्यासकारों ने ऐसे उपन्यासों को लिखा जो राष्ट्रीय वीरता, साहसिक घटनाओं तथा त्याग की भावना से भरपूर थे। 1857 में भूदेव मुखोपाध्याय ने अंगुरिया विनिमॉय नामक पहला ऐतिहासिक उपन्यास लिखा। इस उपन्यास में मराठा छत्रपति शिवाजी और मुगल सम्राट औरंगजेब के बीच संघर्ष को दिखाया गया है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंदमठ में "मुसलमानों से लड़कर हिंदू साम्राज्य स्थापित करनेवाला हिंदू सैन्य संगठन की कहानी दी गई है। इस उपन्यास और इसके गीत 'वंदे मातरम्' का गहरा असर स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों पर पड़ा। राष्ट्रवाद की भावना जागृत करने में गुरुवर रवींद्रनाथ टैगोर का उपन्यास घरे बायरे का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है।
11. परीक्षा-गुरु उपन्यास में मध्यम वर्ग को किस रूप में प्रस्तुत किया गया है ?
उत्तर- दिल्ली के निवासी श्रीनिवास दास ने 1882 में परीक्षा-गुरु नामक उपन्यास लिखा। यह उपन्यास नवोदित मध्यम वर्ग के अंतरद्वंद्व और मानसिकता का रोचक चित्रण प्रस्तुत करता है। मध्यमवर्ग की मूलभूत समस्या यह थी कि वे कैसे आधुनिकीकरण का अनुकरण करते हुए अपनी मूल सांस्कृतिक पहचान बनाए रखे। उनके लिए आधुनिकीकरण आकर्षक के साथ-साथ भयानक था। श्रीनिवास दास ने परीक्षा-गुरु उपन्यास में स्पष्ट रूप से लिखा है कि-"उपन्यास हर विवेकवान इंसान से यह उम्मीद करता है कि वह समाज चतुर और व्यावहारिक बने, पर साथ -गुरु एक उपदेशात्मक उपन्यास था।
12. इरैस्मस का छपी किताबों पर क्या विचार था ?
उत्तर- इरैस्मस हॉलैंड के राटरडम नामक शहर का रहनेवाला था। वह चर्च की त्रुटियों को दूर करना चाहता था। परंतु वह किसी के विरोध के पक्ष में नहीं था। उसने अपनी पुस्तकों में तत्कालीन ईसाई धर्म के दोषों को बड़े सुंदर ढंग से वर्णन किया है। उसकी पुस्तक "प्रेज ऑफ फॉली में पादरियों के दोषमय जीवन की हँसी उड़ाते हुए कहा गया है, "इरैस्मस के मजाकों ने पोप की मान-मर्यादा को लूथर के क्रोध से भी कहीं अधिक हानि पहुँचाया।"
छपी कितावों को लेकर इरैस्मस के विचार इस प्रकार हैं-उन्होंने 1508 में कहा, "किताबें भिनभिनाती मक्खियों की तरह है, "दुनिया का कौन-सा कोना है, जहाँ ये नहीं पहुँच जाती ? हो सकता है कि जहाँ-तहाँ एकाध जानने लायक चीजें भी बताएँ, लेकिन इनका ज्यादा हिस्सा तो विद्वता के लिए हानिकारक ही है। बेकार ढेर हैं, क्योंकि अच्छी चीजों की अति भी हानिकारक ही है, इनसे बचना चाहिए....... (मुद्रक) दुनिया को सिर्फ तुच्छ (जैसे कि मेरी लिखी, चीजों से ही नहीं ( पाट रहे, बल्कि बकवास, बेवकूफ, सनसनीखेज, धर्मविरोधी, अज्ञानी और षड़यंत्रकारी किताबें छापते हैं, और उनकी तादाद ऐसी है कि मूल्यवान साहित्य का मूल्य ही नहीं रह जाता।"  
13. ब्रिटेन में आए सामाजिक बदलावों से महिला पाठकों की संख्या में कैसे वृद्धि हुई?
उत्तर- उपन्यास महिला पाठकों में बहुत लोकप्रिय था। 18वीं शताब्दी में महिलाओं को लिखने-पढ़ने के अवसर उपलब्ध हुए। उपन्यासों में महिला पात्रों की जिंदगी तथा उनकी समस्याओं का चित्रण किया गया। महिलाओं के लिए लिखे गए उपन्यासों में उनके घरेलू जीवन को आधार बनाया गया। इनके द्वारा वे अपनी भावनाओं को प्रकट करने एवं अपने अधिकारों की वकालत करने में सक्षम हुई। जैसे-जैसे महिला पाठकों की गिनती बढ़ती गई वैसे-वैसे उपन्यासकारों का ध्यान भी उनकी ओर आकर्षित होने लगा। यूरोप और भारत में पारिवारिक जीवन, जिसमें महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है, उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण विषय बन गया। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को घर में काफी समय मिल जाता है, जब वे अकेले बैठकर उपन्यास का लुत्फ उठा सकती थी। अनेक उपन्यास महिलाओं के लिए महिला उपन्यासकारों ने लिखी। इनमें जेन ऑस्टिन के प्राइड एवं प्रेज्युडिम तथा शारलॉट ब्रॉण्ट का जेन आयर विख्यात है।
14. भारत में पांडुलिपियाँ कैसे बनाई जाती थी ? 
उत्तर-भारत में पुस्तकों की छपाई का आरंभ देर से हुआ, यद्यपि प्राचीन काल से ही लोग लिपि और लेखन कला जानते थे। धातु-पत्थर पर अभिलेख लिखने के अलावा भोजपत्र तथा ताड़ के पत्तों पर भी लिखाई की जाती थी। बाद में हाथ से बने कागज पर भी पांडुलिपियाँ तैयार की जाने लगी। पांडुलिपियों की पुरानी एवं समृद्ध परंपरा से यहाँ संस्कृत, अरबी एवं फारसी साहित्य को अनेकानेक तस्वीरयुक्त सुलेखन कला से परिपूर्ण साहित्यों की रचनाएँ होती थीं। इनके किनारों को सुंदर एवं रंगीन चित्रों से सुसज्जित किया जाता था। इन्हें मजबूती प्रदान करने के लिए इनके पन्नों को सिल कर उन पर जिल्द चढ़ा दी जाती थी। एक पांडुलिपि की नकल कर उसकी अनेक प्रतियाँ बनाई जाती थीं। पांडुलिपियों की नकल करना कठिन कार्य था। इसे विद्वान लोग परिश्रमपूर्वक करते थे। उदाहरणस्वरूप बिहार के विख्यात अंतरराष्ट्रीय नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध भिक्षुक पांडुलिपियों की नकल का काम करते थे। मुगल सम्राट अकरबर ने एक किताबखाना खोल रस्ता था जहाँ पांडुलिपियाँ बनाई जाती थीं और महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के अनुवाद किए जाते थे। पांडुलिपियाँ महँगी और नाजुक होती थीं। सबके लिए उन्हें पढ़ना आसान नहीं था। इसलिए ये सर्वसाधारण की पहुँचे से बाहर थीं। 17वीं-18वीं शताब्दी तक बहुत कम लोग पढ़े-लिखे होते थे। परंपरागत पाठशालाओं और गुरुकुलों में मौखिक शिक्षा दी जाती थी।

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