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Class 10th Bharati Bhawan History Chapter 8 | Long Answer Question | प्रेस-संस्कृति एवं राष्ट्रवाद | कक्षा 10वीं भारती भवन इतिहास अध्याय 8 | दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

Class 10th Bharati Bhawan History Chapter 8  Long Answer Question  प्रेस-संस्कृति एवं राष्ट्रवाद  कक्षा 10वीं भारती भवन इतिहास अध्याय 8  दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 
1. फ्रांसीसी क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार करने में मुद्रण की भूमिका की विवेचना करें। 
उत्तर-फ्रांस की क्रांति में बौद्धिक कारणों का भी काफी महत्वपूर्ण योगदान था। फ्रांस के लेखकों और दार्शनिकों ने अपने लेखों और पुस्तकों द्वारा लोगों में नई चेतना जगाकर क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। मुद्रण ने निम्नलिखित प्रकारों से फ्रांसीसी क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार करने में अपनी भूमिका निभाई
(i) ज्ञानोदय के दार्शनिकों के विचारों का प्रसार—पुस्तकों और लेखों ने ज्ञानोदय के चिंतकों के विचारों का प्रचार-प्रसार किया जिन्हें पढ़कर लोगों में नई चेतना जगी। फ्रांसीसी दार्शनिकों में रूढ़िगत सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक व्यवस्था की कटु आलोचना की। इन लोगों ने इस बात पर बल दिया कि अंधविश्वास और निरंकुशवाद के स्थान पर तर्क और विवेक पर आधृत को स्थापना हो। चर्च और राज्य की निरंकुश सत्ता पर प्रहार किया गया। वाल्टेयर और रूसों ऐसे महान दार्शनिक थे जिनके लेखन का जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ा। 
(ii) वाद-विवाद की संस्कृति—पुस्तकों और लेखों ने वाद-विवाद की संस्कृति को जन्म दिया। अब लोग पुरानी मान्यताओं की समीक्षा कर उनपर अपने विचार प्रकट करने लगे। इससे नई सोच उभरी। राजशाही, चर्च और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। फलतः क्रांतिकारी विचारधारा का उदय हुआ।
(iii) राजशाही के विरुद्ध असंतोष-1789 की क्रांति के पूर्व फ्रांस में बड़ी संख्या में ऐसा साहित्य प्रकाशित हो चुका था जिसमें तानाशाही राज व्यवस्था और इसके नैतिक पतन की कटु आलोचना की गयी थी। निरंकुशवाद और राजदरबार के नैतिक पतन का चित्रण भी इस साहित्य में किया गया। साथ ही सामाजिक व्यवस्था पर भी क्षोभ प्रकट किया गया। अनेक व्यंगात्मक चित्रों द्वारा यह दिखाया गया कि किस प्रकार आम जनता का जीवन कष्टों और अभावों से ग्रस्त था जकि राजा और उसके दरबारी विलासिता में लीन हैं। इससे जनता में राजतंत्र के विरुद्ध असंतोष बढ़ गया।
इस प्रकार फ्रांसीसी क्रांति की पृष्ठभूमि को तैयार करने में मुद्रण सामग्री की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही जिससे प्रभावित होकर जनता क्रांति के लिए तत्पर हो गयी।
2 भारत में धार्मिक-सामाजिक सुधारों को पुस्तकों एवं पत्रिकाओं ने किस प्रकार बढ़ावा दिया?
उत्तर- 18वीं, 19वीं शताब्दी में प्रेस ज्वलंत राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक प्रश्नों को उठानेवाला एक सशक्त माध्यम बन गया। 19वीं सदी में बंगाल में "भारतीय पुनर्जागरण" हुआ। इससे सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन का मार्ग प्रशस्त हुआ। परंपरावादी और नई विचारधारा रखनेवालों ने अपने-अपने विचारों का प्रचार करने के लिए पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का सहारा लिया। राजा राममोहन राय ने अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए बंगाली भाषा में संवाद कौमुदी नामक पत्रिका का प्रकाशन 1821 में किया। उनके विचारों का खंडन करने के लिए रूढ़िवादियों ने समाचार द्रिका नामक पत्रिका प्रकाशित की। राममोहन राय ने 1822 में फारसी भाषा में मिरातुल अखबार तथा अंग्रेजी में ब्रासृनिकल मैंगजीन भी प्रकाशित किया। उनके ये अखबार सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन के प्रभावशाली अस्त्र बन गए। 1822 में ही बंबई से गुजराती दैनिक समाचारपत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। द्वारकानाथ टैगोर, प्रसन्न कुमार टैगोर तथा राममोहन राय के प्रयासों से 1830 में बंगदत्त की स्थापना हुई। 1831 में जामे जमशेद, 1851 में रास्ते गोफ्तार तथा अखबारे सौदागर प्रकाशित किया गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारी भारतीय समाचारपत्रों द्वारा सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक चेतना के विकास को शंका की दृष्टि से देखते थे। इसलिए 19वीं शताब्दी में भारतीय प्रेस पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास किया गया। भारतीय समाचार पत्रों ने सामाजिक धार्मिक समस्याओं से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों को उठाया। समाचारपत्रों ने न्यायिक निर्णयों में किए गए पक्षपातों, धार्मिक मामले में सरकारी हस्तक्षेप और औपनिवेशिक प्रजातीय विभेद की नीति की आलोचना कर राष्ट्रीय चेतना जगाने का प्रयास किया।
3. बदलते परिपेक्ष्य में भारतीय प्रेस की विशेषताओं पर प्रकाश डालें।
उत्तर- 19वीं शताब्दी से भारत में समाचार पत्रों के प्रकाशन में तेजी आई परंतु अबतक इसका प्रकाशन और वितरण सीमित स्तर पर होता रहा। इसका एक कारण यह था कि सामान्य जनता एवं समृद्ध कुलीन और सामंत वर्ग राजनीति में रूचि नहीं लेता था। इसी वर्ग के पास प्रेस चलाने के लिए धन और समय था परंतु यह वर्ग इस ओर उदासीन था। प्रेस चलाना घाटा का व्यवसाय माना जाता था। सरकार भी समाचार को कोई विशेष महत्व नहीं देती थी क्योंकि जनमत को प्रभावित करने में समाचार पत्रों की भूमिका नगण्य थी। इसके बावजूद भारतीय समाचिार पत्रों ने सामाजिक-धार्मिक समस्याओं से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों को उठाया। समाचार पत्रों ने न्यायिक निर्णयों में किए गए पक्षपातों, धार्मिक मामलों में सरकारी हस्तक्षेप और औपनिवेशिक प्रजातीय विभेद की नीति की आलोचना कर राष्ट्रीय चेतना जगाने का प्रयास किया। 
यद्यपि 1857 के विद्रोह के बाद भारतीय समाचार पत्रों की संख्या में वृद्धि हुई परंतु ये प्रजातीय आधार पर दो वर्गों एंग्लो इंडियन और भारतीय प्रेस में विभक्त हो गई। ऐंग्लो इंडियन प्रेस ने सरकार समर्थन रूख अपनाया। इसे सरकारी समर्थन और संरक्षण प्राप्त था। ऐंगलो-इंडियन प्रेस को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे। यह अंगरेजों के 'फूट डालो और शासन करो' की नीति को बढ़ावा देता था तथा सांप्रदायिक एकता को बढ़ावा देनेवाले प्रयासों का विरोध करता था। इसका एकमात्र उद्देश्य ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी की भावना का विकास करना था। इस समय अंग्रेजी भाषा और अंगरेजों द्वारा संपादित समाचार पत्रों में प्रमुख थे टाइम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्स मैन, इंगलिशमैन, मद्रासमेल, फ्रेंड ऑफ इंडिया, पायनियर, सिविल एंड मिलिट्री गजट इत्यादि। इनमें इंगलिशमैन सबसे अधिक रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी समाचार पत्र था। पायनि पर सरकार का समर्थक और भारतीयों का आलोचक था।
ऐंग्लों इंडियन समाचार पत्रों के विपरीत अंग्रेजी और देशी भाषाओं में प्रकाशित समाचार पत्रों में अंगरेजी सरकारी नीतियों की आलोचना की गयौ। भारतीय दृष्टिकोण को ज्वलंत प्रश्नों को रखा गया तथा भारतीयों में राष्ट्रीयता एवं एकता की भावना जागृत करने का प्रयास किया गया। ऐसे समाचार-पत्रों में प्रमुख थे हिन्दू पैट्रियट, अमृत बाजार पत्रिका इत्यादि। अनेक प्रबुद्ध भारतीयों ने 19वीं, 20वीं शताब्दियों में भारतीय प्रेस को अपने लेखों द्वारा प्रभावशाली एवं शक्तिशाली बनाया।
4. औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय प्रेस को प्रतिबंधित करने के लिए क्या किया? 
उत्तर- औपनिवेशिक काल में प्रकाशन के विकास के साथ-साथ इसे नियंत्रित करने का भी प्रयास किया गया। ऐसा करने के पीछे दो कारण थे—पहला, सरकार वैसी कोई पत्र-पत्रिका अथवा समाचार पत्र मुक्त रूप से प्रकाशित नहीं होने देना चाहती थी जिससे सरकारी व्यवस्था और नीतियों की आलोचना हो। तथा दूसरा, जब अंग्रेजी राज की स्थापना हुई उसी समय से भारतीय राष्ट्रवाद का विकास भी होने लगा। राष्ट्रवादी संदेश के प्रसार को रोकने के लिए प्रकाशन पर नियंत्रण लगाना सरकार के लिए आवश्यक था। अत: समय-समय पर सरकार विरोधी प्रकाशनों पर नियंत्रण लगाने का प्रयास किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी सुरक्षात्मक और राजनीतिक कारणों से प्रेस पर नियंत्रण लगाने के प्रयास किए गए। 1857 के विद्रोह के परिणामस्वरूप सरकार का रूख प्रेस के प्रति पूर्णतः बदल गया। राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रसार को रोकने के लिए प्रेस को कुठित करने के प्रयास किए गए। प्रेस को नियंत्रित करने के लिए पारित विभिन्न अधिनियम उल्लेखनीय हैं
(i) 1799 का अधिनियम- प्रांसीसी क्रांति के प्रभाव को भारत में फैलने से रोकने के लिए गवर्नर जनरल वेलेस्ली ने 1799 में एक अधिनियम पारित किया। इसके अनुसार समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लगा दिया गया।
(ii) 1823 का लाइसेंस अधिनियम- इस अधिनियम द्वारा प्रेस स्थापित करने से पहले सरकारी अनुमति लेना आवश्यक बना दिया गया।
(iii) 1867 का पंजीकरण अधिनियम- इस अधिनियम द्वारा यह आवश्यक बना दिया गया कि प्रत्येक पुस्तक, समाचार-पत्र एवं पत्र-पत्रिका पर मुद्रक, प्रकाशक तथा मुद्रण के स्थान का नाम अनिवार्य रूप से दिया जाए। साथ ही प्रकाशित पुस्तक की एक प्रति सरकार के पास करना आवश्यक बना दिया गया। जमा
(iv) बर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (1878)- लार्ड लिटन के शासनकाल में पारित प्रेस को प्रतिबंधित करनेवाला सबसे विवादास्पद अधिनियम यही था। इसका उद्देश्य देशी भाषा के समाचार पत्रों पर कठोर अंकुश लगाना था। अधिनियम के अनुसार भारतीय समाचार पत्र ऐसा कोई समाचार प्रकाशित नहीं कर सकती थी जो अंगरेजी सरकार के प्रति दुर्भावना प्रकट करता हो। भारतीय राष्ट्रवीदयों ने इस अधिनियम का कड़ा विरोध किया।
सरकार ने प्रेस पर अंकुश लगाने के लिए समय-समय पर अन्य कानून भी बनाए। द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ होने पर भारत रक्षा अधिनियम बनाया गया। इसके द्वारा युद्ध संबंधी समाचारों के प्रकाशन को नियंत्रित किया गया। 'भारत छोड़ आंदोलन' के दौरान सरकार ने समाचार पत्रों पर कठोर नियंत्रण स्थापित किया। 1942 में लगभग 90 समाचार पत्रों का प्रकाशन रोक दिया गया। इस प्रकार औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय प्रेस को प्रतिबंधित करने के लिए विभिन्न अधिनियों के द्वारा काफी प्रयास किए।
5. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में प्रेस की भूमिका एवं इसके प्रभावों की समीक्षा की
उत्तर- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्धव एवं विकास में प्रेस की प्रभावशाली भूमिका थी। इसने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं अन्य मुद्दों को उठाकर उन्हें जनता के समक्ष लाका उनमें राष्ट्रवादी भावना का विकास किया तथा लोगों में नई जागृति ला दी।
(i) राजनीतिक क्षेत्र में योगदान-प्रेस में प्रकाशित लेखों और समाचार-पत्रों से भारतीय औपनिवेशिक शासन के वास्तविक स्वरूप से परिचित हुए। समाचार पत्रों ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के घिनौने मुखौटे का पर्दाफाश कर दिया तथा इनके विरूद्ध लोकमत को संगठित किया। जनता को राजनीतिक शिक्षा देने का दायित्व समाचारपत्रों ने अपने ऊपर ले लिया। समाचार पत्रों ने देश में चलनेवाले विभिन्न आंदोलनों एवं राजनीतिक कार्यक्रमों से जनता को परिचित कराया। काँग्रेस के कार्यक्रम हो या उसके अधिवेशन, बंग-भंग आंदोलन अथवा असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह या भारत छोड़ो आंदोलन, समाचारों द्वारा ही लोगों को इनमें भाग लेने की प्रेरणा मिलती थी। काँग्रेस की भिक्षाटन नीति का प्रेस ने विरोध किया तथा स्वदेशी और बहिष्कार की भावना को बढ़ावा देकर राष्ट्रवाद का प्रसार किया। भारतीयों की नजर में महात्मा गांधी भी प्रेस के माध्यम से ही आए।
(ii) आर्थिक क्षेत्र में योगदान- आर्थिक क्षेत्र में भी प्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। इसने अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के आर्थिक शोषण की घोर निंदा की। धन-निष्कासन की नीति, आयात-निर्यात एवं औद्योगिक नीति की आलोचना समाचार पत्रों में प्रमुखता से की गई। अनेक समाचार पत्रों ने भारत की आर्थिक दुर्दशा के लिए सरकारी आर्थिक नीतियों को उत्तरदायी बताकर उनमें परिवर्तन की मांग की। समाचार-पत्रों ने आदिवासिया स्वदेशी की भावना को समर्थन किसानों के शोषण और उनके आंदोलनों को प्रमुखता से छापा। समाचार-पत्रों ने बहिष्कार । दकर एक ओर राष्ट्रीयता की भावना को विकसित किया तो दूसरी ओर ब्रिटिश आर्थिक हितों पर कुठाराघात किया। -
(iii) सामाजिक क्षेत्र में योगदान- सामाजिक सुधार आंदोलनों को भी समाचार पत्रों ने समर्थन दिया। इसने रूढ़िगत परंपरावादी समाज में सुधार लाने के लिए किए गए प्रयासों को अपना समर्थन दिया। इसने जाति प्रथा, छुआछुत की आलोचना की समाचार पत्रों का एक महत्वपूर्ण योगदान यह था कि इसने सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने तथा हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों की सराहना कर इसे प्रोत्साहित किया। इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन में प्रेस ने अपनी सराहनीय भूमिका निभाई।
6. स्वातंत्र्योत्तर भारत में प्रेस की भूमिका की व्याख्या करें।
उत्तर- वैश्विक स्तर पर मुद्रण अपने आदि काल से भारत में स्वाधीनता आंदोलन तक भिन्न-भिन्न परिस्थितियों से गुजरते हुए आज अपनी उपादेयता के कारण ऐसी स्थिति में पहुंच गया है जिससे ज्ञान जगत की हर गतिविधियाँ प्रभावित हो रही है। आज पत्रकारिता साहित्य, मनोरंजन ज्ञान-विज्ञान, प्रशासन, राजनीति आदि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है।
स्वातत्र्योत्तर भारत में पत्र-पत्रिकाओं का उद्देश्य भले ही व्यवसायिक रहा हो किन्तु इसने साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अभिरूचि जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। पत्र-पत्रिकाओं ने दिन-प्रतिदिन घटने वाली घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में नई और सहज शब्दावली का प्रयोग करते हुए भाषाशास्त्र के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रेस ने समाज में नवचेतना पैदा कर सामाजिक धार्मिक राजनीतिक एवं दैनिक जीवन में क्रांति का सूत्रपात किया। प्रेस ने सदैव सामाजिक बुराइयों जैसे दहेज प्रथा, विधवा विवाह, बालिकावधु, बालहत्या, शिशु विवाह जैसे मुद्दों को उठाकर समाज के कुप्रथाओं को दूर करने में मदद की तथा व्याप्त अंधविश्वास को दूर करने का प्रयास किया।
आज प्रेस समाज में रचनात्मकता का प्रतीक भी बनता जा रहा है। यह समाज की नित्यप्रति की उपलब्धियों, वैज्ञानिक अनुसंधानों, वैज्ञानिक उपकरणों एवं साधनों से परिचित कराता है। आज के आधुनिक दौर में प्रेस साहित्य और समाज की समृद्ध चेतना की धरोहर है। प्रेस लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने हेतु सजग प्रहरी के रूप में हमारे सामने खड़ा है।
7. भारत में प्रिंट का गरीब जनता पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर- प्रिंट ने समाज के किसी वर्ग को अपने प्रभाव से अछूता नहीं छोड़ा। सबको अपने रंग में रंग लिया। प्रिंट ने चर्च को हिला दिया और महाराजाओं को झुका दिया। इसकी शक्ति के सामने सब नतमस्तक हो गए। गरीब जनता के लिए सस्ती और मनोरंजक किताबें छापी जाने लगी जिससे वे भी साहित्य में अपनी रुचि दिखा सकें। मद्रास के शहरों में सस्ती किताबें चौक-चौराहों पर बेची जा रही थीं जिसे गरीब भी खरीद सके। सार्वजनिक पुस्तकालय खुलने लगे थे, जिससे किताबों की संख्या बढ़ी। ये पुस्तकालय अधिकतर शहरों या कस्बों में होते थे और कहीं-कहीं संपन्न गाँवों में भी पुस्तकालय स्थापित होने लगे। स्थानीय अमीरों के लिए पुस्तकालय खोलना प्रतिष्ठा की बात थी।
कारखानों के मजदूरों से बहुत ज्यादा काम लिया जा रहा था और उन्हें अपने बारे में लिखने की शिक्षा तक नहीं मिली थी। लेकिन कानपुर के मजदूर काशीबाबा ने 1938 में छोटे और बड़े सवालों पर लिखा और उसे प्रकाशित करवाया। इस लेख में, जातीय और वर्गीय शोषण के बीच का रिश्ता समझाने की कोशिश की।
1935 से 1955 के बीच सुदर्शन चक्र के नाम से लिखनेवाले एक और मिल-मजदूर का लेखन 'सच्ची कविताएँ' नामक एक संग्रह में छापा गया। बंगलोर के सूती-मजदूरों ने खुद को शिक्षित करने के ख्याल से पुस्तकालय बनाया, जिसकी प्रेरणा उन्हें बंबई के मिल मजदूरों से मिली थी। यह सब प्रिंट के कारण ही संभव हो सका।
देश के राजनेताओं और समाज-सुधारकों को पता था कि जब तक भारत की गरीब जनता जागृत नहीं होती, देश का कल्याण नहीं हो सकता। उनका कल्याण करने के लिए नेताओं और सुधारकों ने पहले गरीब जनता में पाई जानेवाली नशाखोरी, अज्ञानता, अशिक्षा को दूर करने और राष्ट्रवाद का संदेश पहुँचाने का प्रयत्न किया जिसमें प्रिंट की सराहनीय भूमिका रही।  
8. भारतीय उपन्यासों में निम्न जाति के मुद्दे को किस प्रकार उठाया गया? ऐसे किन्हीं दो उपन्यासों का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर- भारत में वर्ण और जाति-व्यवस्था प्राचीन काल से ही विद्यमान है। इसने सामाजिक विभेद और असमानता को जन्म दिया है। जातिप्रथा ने बहुत समय तक हिंदू समाज को काफी प्रभावित किया है। जब इस प्रथा में अनेक बुराइयाँ आ गई तो उससे समाज को बड़ी हानि उठानी पड़ी। विशेषकर ऊंच-नीच के भेदभाव ने समाज को आपस में बाँट कर रख दिया और छुआछूत का अभिशाप हिंदु जाति के नाम मढ़ दिया। 18वीं 19वीं शताब्दी के समाज-सुधारकों में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद आदि ने भी इस बुराई को जड़ से उखाड़ फेंकने पर जोर दिया।
निम्न जाति पर किए गए अत्याचारों की निंदा पर आधारित उपन्यास सरस्वतीविजयम 1892 में प्रकाशित हुआ। इसके लेखक पोथरी कुंजाम्बु जो स्वयं निम्न जाति के थे। इस उपन्यास का नायक अछूत जाति का है जो ब्राह्मण जमींदार के अत्याचार से बचने के लिए गाँव छोड़कर भाग जाता है और धर्म-परिवर्तन कर ईसाई बन जाता है तथा उच्च अंगरेजी शिक्षा प्राप्त कर न्यायाधीश बनकर अपने गाँव की स्थानीय कचहरी में आता है जहाँ पर जमींदार हत्या के आरोप में कचहरी में आता है। मामले की सुनवाई के अंत में नायक अपनी पहचान बताता है जिससे जमींदार लज्जित होकर माफी मांगता है इस घटना के बाद जमींदार सुधर जाता है। इस उपन्यास के द्वारा लेखक है के ने निम्न जातियों के लिए शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित किया है।
1956 में अद्वैत मल्ला बर्मन ने तीताश एकटी नदीरनाम नामक उपन्यास लिखा। यह एक महाकाव्यात्मक उपन्यास था जो मल्लाहों के जीवन पर आधारित था। इस उपन्यास में मल्लाहों क तीन पीढ़ियों की त्रासदी की कहानी मार्मिक ढंग से प्रस्तुत की गई है। इस उपन्यास का नायक अनंत अपना गाँव त्यागकर शहर में जाकर पढ़ाई करता है। उपन्यास में मल्लाहों के जीवन, नौका-दौड़, उनके पर्व-उत्सवों, किसानों के साथ संबंध, उच्च जातियों से विद्वेष तथा मल्लाहों के समुदाय पर शहरीकरण के प्रभाव का वर्णन किया गया है। लेखक ने मल्लाह समुदाय और नदी के बीच के संबंधों में समानता ढूँढने का प्रयास किया है।
इन उपन्यासों पर नजर डालने से यह निष्कर्ष निकलता है कि समाज में एकता बनाए रखने के लिए ऊँच-नीच के भेदभाव को छोड़कर आपस में मिलजुलकर रहना चाहिए।
9. भारत में औरतों के द्वारा उपन्यास पढ़ने के प्रति समाज का क्या दृष्टिकोण था? भारतीय उपन्यासों में महिलाओं का चित्रण किस प्रकार किया गया? 
उत्तर-भारत में उपन्यास पढ़ने के प्रति समाज का उत्साहवर्द्धक दृष्टिकोण नहीं था। लोग मानते थे कि उपन्यास का परिवार और समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता था। औरतों और बच्चों के लिए यह निषिद्ध माना गया, क्योंकि उनके अपरिपक्व दिमाग पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता था। परंपरावादियों ने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से स्त्रियों को उपन्यास पढ़ने से मना किया। थीरू वी. का. द्वारा लिखित लेख में कहा गया कि उपन्यासों से स्त्रियों की जिंदगी तबाह हो जाएगी, वे घृणा की पात्र बन जाएँगी। साथ ही, उन्हें उनके कर्तव्यों को याद दिलाई गई। स्त्रियों की पहुंच से बाहर उपन्यासों को रखा गया। इसके बावजूद स्त्रियाँ उपन्यास पढ़ती थी। 
19वीं सदी के अंत में भारतीय उपन्यासों में स्त्रियों का चित्रण एकांत में बैठकर पढ़ते हुए दिखाया गया है। 20वीं सदी में सामान्यतः उपन्यासों में नारी को नए स्वरूप में प्रस्तुत किया गया। नए स्वरूप में अपना विवाह स्वेच्छा से करना तथा पारिवारिक बंदिशों को छोड़कर अपने मन मुताबिक जीवन बितानेवाली स्त्रियों का चित्रण किया गया है। स्त्रियों का चित्रण कुछ उपन्यासों में इस प्रकार किया है कि उनके प्रभाव से पुरुष की जिंदगी बदल गई। उपन्यास में और उपन्यासों द्वारा महिला जगत की, उसकी भावनाओं तथा उसके अनुभवों पहचान की।

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