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Class 10th Bharati Bhawan History Chapter 4 | Long Answer Question | भारत भारत में राष्ट्रवाद | कक्षा 10वीं भारती भवन इतिहास अध्याय 4 | दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के कारणों पर प्रकाश डालें? 
उत्तर- भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की प्रमुख घटना है। भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के प्रमुख कारण हैंहै
(i) अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध असंतोष- अंग्रेजी नीतियों के प्रति बढ़ता असंतोष भारतीय राष्ट्रवाद के विकास का प्रमुख कारण था। अंगरेजी सरकार की नीतियों के शोषण का शिकार देशी राजवाड़े ताल्लुकेदार, महाजन, कृषक मजदूर, मध्यमवर्ग सभी बनें/पूँजीपति वर्ग भी सरकार की भेदभाव आर्थिक नीति से असंतुष्ट था। ये सभी अंगरेजी शासन को अभिशाप मानकर इसका खात्मा करने का मन बनाने लगे।
(ii) आर्थिक कारण- भारतीय राष्ट्रवाद के उदय का एक महत्वपूर्ण कारण आर्थिक कारण था। सरकारी आर्थिक नीतियों के कारण कृषि और कुटीर उद्योग-धंधे नष्ट हो गए। किसानों पर लगान एवं कर्ज का बोझ बढ़ गया। किसानों को नगरी फसल उपजाने को बाध्य कर उसका भी मुनाफा सरकार ने उठाया। देशी उद्योगों की स्थिति भी दयनीय हो गयी। अंगरेजी आर्थिक नीतियों के कारण भारतीय धन का निष्कासन हुआ, जिससे भारत की गरीबी बढ़ी। इससे भारतीयों में प्रतिक्रिया हुई एवं राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ।
(iii) अंगरेजी शिक्षा का प्रसार- भारत में अंगरेजी शिक्षा के प्रचार के कारण भारतीय लोग भी अमेरिका, फ्रांस तथा यूरोप की अन्य महान क्रांतियों से परिचित हुए। रूसो, वाल्टेयर, मेजिनी, गैरीबाल्डी जैसे दार्शनिकों एवं क्रांतिकारियों के विचारों का प्रभाव उनपर पड़ा। वे भी अब स्वतंत्रता, समानता एवं नागरिक अधिकारों के प्रति सचेत होने लगे।
(iv) साहित्य एवं समाचारपत्रों का योगदान- राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में प्रेस और साहित्य का भी महत्वपूर्ण योगदान था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से अंगरेजी और भारतीय भाषाओं में अनेक समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ प्रकाशित होनी आरंभ हुई जैसे हिंदू पैट्रियाट, हिन्दू, आजाद, संवाद कौमुदी इत्यादि। इनमें भारतीय राजनीतिक एवं सामाजिक मुद्दों को उठाकर सरकारी नीतियों की आलोचना की गई।
(v) सामाजिक-धायार आंदोलन का प्रभाव- 19वीं शताब्दी के सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन ने भी राष्ट्रीयता की भावना विकसित की। इस समय तक भारतीय समाज एवं धर्म कुरीतियों और रूढ़ियों से ग्रस्त हो चुका था। राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द के प्रयासों से नई चेतना जगी। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन ने एकता, समानता एवं स्वतंत्रता की भावना जागृत की तथा भारतीयों में आत्म-सम्मान, गौरव एवं राष्ट्रीयता की भावना का विकास करने में योगदान दिया।
2. जालियाँवाला बाग हत्याकांड क्यों हुआ? इसने राष्ट्रीय आंदोलन को कैसे बढ़ावा दिया? 
उत्तर-भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से सरकार ने 1919 में रॉलेट कानून (क्रांतिकारी एवं अराजकता अधिनियम) बनाया। इस कानून के अनुसार सरकार किसी को भी संदेह ने आधार पर पतार कर बिना मुकदमा चलाए उसको दंडित कर सकती थी तथा इसके खिलाफ कोई अपील भी नहीं की जा सकती थी। भारतीयों ने इस कानून का कड़ा विरोध किया। इसे 'काला कानून' की संज्ञा दी गई। गांधीजी ने इस कानून को अनुचित, अन्यायपूर्ण, स्वतंत्रता का हनन करनेवाला तथा नागरिकों के मूल अधिकारों की हत्या करने वाला बताया। उन्होंने जनता से शांतिपूर्वक इस कानून का विरोध करने को कहा। अमृतसर में एक बहुत ही बड़ा प्रदर्शन हुआ जिसकी अध्यक्षता डॉ. सत्यपाल और डॉ. किचलू कर रहे थे। सरकार ने दोनों को अमृतसर से निष्कासित कर दिया। जनरल डायर ने पंजाब में फौजी शासन लागू कर आतंक का राज्य स्थापित कर दिया। पंजाब के लोग अपने प्रिय नेता की गिरफ्तारी तथा सरकार की दमनकारी नीति के खिलाफ 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी मेले के अवसर पर जालियाँवाला बाग में एक विराट सम्मेलन का आयोजन कर विरोध प्रकट कर रहे थे जिसके कारण ही डायर ने निहत्थी जनता पर गोलियाँ चलवा दी। यह घटना जालियांवाला बाग हत्याकांड के नाम से जाना गया।
जालियांवाला बाग की घटना ने पूरे भारत को आक्रोशित कर दिया। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन और हड़ताल हुए। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने घटना के विरोध में अपना 'सर' का खिताब वापस लौटाने की घोषणा की। वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्य शंकरन नायर ने इस्तीफा दे दिया। गांधीजी ने कैंसर-ए-हिन्द की उपाधि त्याग दी। जालियांवाला बाग हत्याकांड ने राष्ट्रीय आंदोलन में एक नई जान फूंक दी।
3. खिलाफत आंदोलन क्यों हुआ? गांधीजी ने इसका समर्थन क्यों किया?
उत्तर- तुर्की का खलीफा जो आंदोलन साम्राज्य का सुल्तान भी था, संपूर्ण इस्लामी जगह का धर्मगुरू था। पैगंबर के बाद सबसे अधिक प्रतिष्ठा उसी की थी। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी के साथ तुर्की भी पराजित हुआ। पराजित तुर्की पर विजयी मित्रराष्ट्रों ने कठोर संधि थोप दी (सेब्र की संधि) ऑटोमन साम्राज्य को विखंडित कर दिया गया। खलीफा और ऑटोमन साम्राज्य के साथ किए गए व्यवहार से भारतीय मुसलमानों में आक्रोश व्याप्त हो गया। वे तुर्की के सुल्तान और खलीफा की शक्ति और प्रतिष्ठा की पुनः स्थापना के लिए संघर्ष करने को तैयार हो गए। इसके लिए ही खिलाफत आंदोलन आरंभ किया गया। खिलाफत आंदोलन एक प्रति क्रियावादी आंदोलन के रूप में आरंभ हुआ, लेकिन शीघ्र ही मध्य साम्राज्य विरोधी और राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में परिणत हो गया।
महात्मा गांधी खिलाफत आंदोलन को सत्य और न्याय पर आधारित मानते थे। इसलिए उन्होंने इसे अपना समर्थन दिया। 1919 में वह दिल्ली में आयोजित ऑल इंडिया खिलाफत सम्मेलन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने सरकार को धमकी दी कि यदि खलीफा के साथ न्याय नहीं किया जाएगा तो वह सरकार के साथ असहयोग करेंगे। गांधीजी ने इस आंदोलन को अपना समर्थन देकर हिन्दू-मुसलमान एकता स्थापित करने और एक बड़ा सशक्त राजविरोधी आंदोलन असहयोग आंदोलन आरंभ करने का निर्णय लिया।
4. असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन के स्वरूप में क्या अंतर था? महिलाओं की सविनय अवज्ञा आंदोलन में क्या भूमिका थी?
उत्तर- असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन के स्वरूप में काफी विभिन्नता थी। असहयोग आंदोलन में जहाँ सरकार के साथ असहयोग करने की बात थी वहीं सविनय अवज्ञा आंदोलन में न केवल अंग्रेजों का सहयोग न करने के लिए बल्कि औपनिवेशिक कानूनों का भी उल्लंघन करने के लिए आह्वान किया जाने लगा। असहयोग आंदोलन की तुलना में सविनय अवज्ञा आंदोलन व्यापक जनाधार वाला आंदोलन साबित हुआ।
सविनय अवज्ञा आंदोलन में पहली बार स्त्रियों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। वे घंटों की चहारदीवारी से बाहर निकलकर गांधीजी की सभाओं में भाग लिया। अनेक स्थानों पर स्त्रियों ने नमक बनाकर नमक-कानू, भंग किया। स्त्रियों में विदेशी वस्त्र एवं शराब के दुकानों की पिकेटिंग स्त्रियों ने चरखा चलाकर सूत काते और स्वदेशी को प्रोत्साहन दिया। शहरी क्षेत्रों में ऊँची जाति की महिलाएं आंदोलन में सक्रिय थी तो ग्रामीण इलाकों में संपन्न परिवार की किसान स्त्रियाँ।  
5. भारतीय राजनीति में साम्यवादियों की भूमिका की विवेचना कीजिए? 
उत्तर-1917 को महान रूसी क्रांति के बाद पूरे विश्व में साम्यवादी विचारधारा का प्रसार हुआ। 20वीं शताब्दी के आरंभ में भारत भी साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आया। देश के अनेक भागों में बुद्धिजीवी साम्यवादी दर्शन से प्रभावित लोगों का समूह बनाकर इस विचारधारा को प्रोत्साहन दे रहे थे। विख्यात क्रांतिकारी एम. एन. राय ने 1920 में ताशकंद में हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। भारत में इसका प्रचार करने के लिए कलकत्ता, बंबई, मद्रास लाहौर में साम्यवादी सभाएँ बननी शुरू हो गई। साम्यवादियों ने श्रमिकों और किसानों की ओर अपना ध्यान दिया। क्रांतिकारी आंदोलनों पर इनका प्रभाव पड़ा। अक्टूबर 1920 में बंबई में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) की स्थापना हुई। इसमें फूट पड़ने के बाद एन. एम. जोशी ने ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन फेडरेशन (AITUF) का गठन किया। इस तरह वामपंथ का प्रसार मजदूर संघों पर बढ़ रहा था। वामपंथ को प्रभाव । में इन श्रमिक संगठनों ने मजदूरों की स्थिति में सुधार लाने का प्रयास किया। आगे चलकर 1934 में समाजवादियों के प्रयास से सभी श्रमिक संघों को मिलाकर ऑल इंडिया ट्रेड युनियन कांग्रेस की स्थापना की गई। साम्यवादियों ने किसानों की समस्याओं की ओर भी ध्यान दिया। लेबर स्वराज पार्टी भारत में पहली किसान मजदूर पार्टी थी लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर दिसम्बर, 1928 में अखिल भारतीय मजदूर किसान पार्टी बनी।
साम्यवादियों ने किसान मजदूरों की स्थिति में सुधार लाने के अतिरिक्त साम्राज्यवाद एवं पूंजीवाद का विरोध भी किया। क्रांतिकारी आंदोलनों को भी इनका समर्थन मिला। फलतः असहयोग आंदोलन के बाद सरकार ने साम्यवादियों पर कड़ी कारवाई की। पेशवर षड्यंत्र केस (1922-23), कानपुर षड्यंत्र केस (1924) तथा मेस्ट बड्यंत्र कस (1929-33) में मुकदमा चलाकर कुछ साम्यवादियों को दंडित किया गया। साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव कांग्रेस के युवा वर्ग पर भी पड़ा। इन लोगों ने कांग्रेस पर अधिक सशक्त नीति अपनाने की मांग की। साथ ही किसानों मजदूरों की समस्याओं को भी उठाने का प्रयास किया। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान साम्यवादियों ने कांग्रेस का विरोध करना शुरू किया जिसकी अंतिम परिणति सुभाष चन्द्र बोस द्वारा फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना के रूप में हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन में भी साम्यवादियों ने अपनी भूमिका का निर्वहन किया।
6. 29वीं शताब्दी के किसान आंदोलन का संक्षिप्त परिचय दें।
उजर-19वीं, 20वीं शताब्दी के किसान आंदोलनों ने किसानों में हम नई जागृति ला दी। वे अपने ामाजिक-आर्थिक हितों के सुरक्षा के लिए संगठित होने लगे। यद्यपि महात्मा गांधी ने किसानों के हितों की बात की तथा चंपारण और खेड़ा में सत्याग्रह भी किया परंतु कांग्रेस किसानों की समस्याओं के प्रति उदासीन रही। इसी बीच वामपंथियाँ (साम्यवादियों और समाजवादियों) का प्रभाव किसानों-श्रमिकों पर बढ़ता जा रहा था। अत: उनके प्रभाव में 20वीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक में किसान सभाओं का गठन हुआ। किसान सभाओं का गठन -बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश में हुआ जहाँ जमींदारी अत्याचार और शोषण पराकाष्ठा पर था। 1920-21 में अवध किसान सभा का गठन किया गया। 1922-23 में मुंगेर में शाह मुहम्मद जुबेर ने किसान सभा का गठन किया। 1928 में पटना के बिहटा में स्वामी सहजानंद ने किसान सभा का गठन किया। 1929 में उन्हीं के नेतृत्व में सोनपुर में प्रांतीय किसान सभा की स्थापना की गई। अप्रैल 936 में स्वामी सहजानंद की अध्यक्षता में लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ।
अखिल भारतीय किसान सभा ने किसानों को संगठित करने एवं उनमें चेतना जगाने के लिए किसान बुलेटिन एवं किसान घोषणा पत्र जारी किया। किसानों की मुख्य माँगे जमींदारी समाप्त करने, किसानों को जमीन का मालिकाना हक देने, बेगार प्रथा समाप्त करने एवं लगान में कमी करने की थी। अपनी मांगों के समर्थन में किसानों ने प्रदर्शन तथा व्यापक आंदोलन किए। सितंबर 1936 को पूरे देश में किसान दिवस मानाया गया। उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य स्थानों में किसानों की जमीन को बकाश्त जमीन में बदलने के विरूद्ध एक बड़ा आंदोलन हुआ। 1937 में किसानों ने बिहार विधान सभा के सामने विशाल प्रदर्शन किया। किसान आंदोलन की व्यापकता और इसके प्रभाव को देखते हुए काँग्रेस ने 1937 के अपने फैजपुर अधिवेशन में किसानों को हित में कार्यक्रमों को स्वीकृति प्रदान की।
7. श्रमिक वर्ग के आंदोलन पर निबंध लिखें।
उत्तर-20वीं शताब्दी के शुरूआती चरण में किसानों के समान श्रमिकों के भी आंदोलन हुए तथा उनके संगठन बने। श्रमिक आंदोलन को भी वामपंथियों का सहयोग एवं संरक्षण प्राप्त हुआ। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में उद्योगों की स्थापना के साथ ही श्रमिक वर्ग का उदय हुआ था। भारत में श्रमिक आसानी से और कम मजदूरी पर ही उपलब्ध थे क्योंकि रोजगार की तलाश में किसान और शिल्पी शहरों में आकर कारखानों में नौकरी ढूँढने लगे। कारखानों के अतिरिक्त रेलवे और बागानों में भी वे काम करने लगे। औद्योगिक इकाइयों में मजदूरों का शायण होता था। उन्हें कम मजदूरी पर अस्वास्थ्य कर परिस्थितियों में काम करना पड़ता था। काम के घंटे अधिक थे तथा बाल मजदूरी की प्रथा प्रचलित थी। धीरे-धीरे श्रमिक वर्ग अपने अधिकारों के प्रति सजग हुआ। अपनी मांगों की पूर्ति के लिए इन्होंने हड़ताल को अपना शस्त्र बनाया। बंग-भंग और स्वदेशी आंदोलन के दौरान बंगाल में बड़े स्तर पर हड़ताले हुई। इनका प्रभाव बंगाल के बाहर भी पड़ा। 1907 में रेल कर्मियों एवं 1908 में बंबई के मजदूरों ने हड़ताल की। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद महंगाई और अन्य कारणों से हड़तालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। 1918 में अहमदाबाद में मिल मजदूरों की बड़ी हड़ताल हुई। अहमदाबाद में गांधीजी और रमिकों की सफलता ने श्रमिकों में जुझारू प्रवृत्ति जगा दी। अपनी मांगों के लिए हड़ताल का सहारा लेने के अतिरिक्त मजदूर संगठित होने एवं अपना संगठन बनाने का भी प्रयास करने लगे।
8. पृथक निर्वाचन के प्रश्न पर भारतीय नेता एकमत क्यों नहीं थे? 
उत्तर- पृथक्क निर्वाचन का प्रस्ताव 1909 में इंडियन कौंसिल एक्ट (Indian Council Act) के अंतर्गत लाया गया था। सरकार ने एक ओर दमन की नीति अपनाई तो दूसरी ओर नरम दल बालों को सलाष्ट करने की कोशिश की। इस एक्ट के अनुसार केंद्रीय तथा प्रांतीय विधानपरिषदों में सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। परिषदों में कुछ सीटें मुसलमान मतदाताओं द्वारा चुने जानेवाले मुस्लिम प्रतिनिधियों के लिए सुरक्षित रखी गई। अंगरेज सोचते थे कि ऐसा करके वे राष्ट्रीय आंदोलन से मुसलमानों को अलग करने में सफल होंगे। उन्होंने मुसलमानों को बताया कि उनके हित अन्य भारतीयों के हितों से भिन्न हैं। राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर बनाने के लिए अंगरेजों ने भारत में पृथक निर्वाचन देने की नीति अपनाई। पृथक निर्वाचन के फलस्वरूप सांप्रदायिकता की वृद्धि हुई। भारतीय नेता इसके परिणाम को जानते थे इसिलए वे सभी इस प्रश्न पर एकमत नहीं थे। सांप्रदायिकता की बू आ रही थी। बंगाल विभाजन से.ही मुस्लिम लीग (1906) के नेता सचेत हो रहे थे क्योंकि इसके परिणाम अखंड भारत के लिए घातक सिद्ध होते इसलिए उनके प्रति नाराजगी जताना जाहिर-सा हो गया। वायसराय मिंटों का यह मानना था कि पृथक निर्वाचन के । द्वारा मुस्लिम जनता को राष्ट्रीय आंदोलन से पृथक करके राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर किया जा सकता था। उसकी यह नीति भारतीय नेताओं को आगाह कर रही थी जिससे वे एकजुट नहीं हो पा रहे थे।
9. असहयोग आंदोलन का विवरण दें।
उत्तर- गाँधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन (1920-22) को अंजाम दिया गया। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात सरकार ने भारत की जनता को स्वराज्य देने के स्थान पर काला कानून के रूप में रॉलेट एक्ट दे दिया। प्लेग जैसी भयंकर बीमारी फैल गई थी, पर सरकार ने जनता की कठिनाई को दूर करने के लिए कोई कदम नहीं उठाई।
1920 में जब खिलाफत कमिटी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध खिलाफत आंदोलन शुरू किया तब गाँधीजी ने इस आंदोलन को हिंदू-मुस्लिम एकता बढ़ाने के लिए उपयुक्त अवसर समझा। वस्तुतः ये दोनों आंदोलन शीघ्र ही एक हो गए तथा इनके नेताओं ने मिला-जुला कार्यक्रम चलाया। उद्दश्य
(i) जालियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा किए जा रहे अन्यायपूर्ण कार्यों का विरोध करना।
(ii) तुर्की के प्रति ब्रिटिश सरकार के अन्याय को समाप्त करना तथा उसे न्याय दिलवाना। 
(iii) ब्रिटिश सरकार को स्वराज्य देने के लिए राजी करना। 
(iv) देश में हिंदू-मुस्लिम एकता को सुदृढ़ करना। 
कार्यक्रम
(i) सरकारी उपाधियों और वैतनिक पदों का त्याग।
(ii) सरकारी दरबारों और सरकारी उत्सवों का बहिष्कार। 
(iii) सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार। 
(iv) सरकारी न्यायालयों का बहिष्कार और पंचायत की स्थापना। 
(v) विदेशी माल का बहिष्कार और चरखा चलाना। 
(vi) राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना 
(vii) तिलक स्वराज्य कोष में दान देना इत्यादि।
इस प्रकार 1920 में प्रथम जन-आंदोलन आरंभ हुआ। और हजारों की संख्या में वकील, विद्यार्थी और सरकारी कर्मचारी इस आंदोलन में कूद पड़े। सरकार ने दमनात्मक कार्रवाई शुरू किया। 
असहयोग आंदोलन को सफलताएँ
1. विधानमंडल के चुनावों में लगभग दो-तिहाई मतदाताओं ने मतदान में भाग नहीं लिया। 
2. स्वदेशी कार्यक्रम को प्रोत्साहन दिया गया।
3. मांदोलन चलाने के लिए तिलक स्वराज्य फंड की स्थापना कर इसमें 1 करोड़ रुपए जमा कराए गए।
4. चरखा एवं कताई-बुनाई का प्रचार किया गया तथा 20 लाख चरखे बाँटे गए। 
5. हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया गया।
6. सरकारी उपाधियों और अवैतनिक पदों को त्यागने, स्थानीय संस्थाओं को छोड़ने, सरकारी दरबारों, उत्सवों का बहिष्कार, सरकारी शिक्षण संस्थाओं, अदालतों तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार एवं मेसोपोटामिया युद्ध में भर्ती होने से इनकार के लिए कहा गया। ऐसा लग रहा था कि सारा देश एकता के सूत्र में बँध गया है। सरकार ने अपनी पूरी शक्ति से इस आंदोलन को दबाने का प्रयास किया।
किंतु, असहयोग आंदोलन के उद्देश्य का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसने कांग्रेस के आंदोलन को पहली बार जन आंदोलन बना दिया। ए. आर. देसाई के शब्दों में"1917 से पहले जो राष्ट्रीय आदाला उच्च तथा मध्यम वर्ग तक सीमित था, वह अब पहली बार किसानों तथा कारीगरों तक पहुँचा और इस प्रकार जनआंदोलन बन गया।
10. सविनय अवज्ञा आंदोलन पर प्रकाश डालें।
उत्तर-सविनय अवज्ञा आंदोलन गाँधीजी के द्वारा शुरू हुआ था। यह भी एक जनआंदोलन था क्योंकि इसमें भी सभी स्त्री-पुरुष तथा सभी प्रकार के व्यवसायियों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार हेतु जनआंदोलन चलाया। इसके प्रारंभ में बहुत-से कारक सहायक हैं। असंतोष की व्यापकता ने इस आंदोलन को शुरू करने के लिए बाध्य कर दिया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन को मुख्यतः दो चरणों में विभक्त कर सकते हैं
प्रथम चरण- दांडी यात्रा करके महात्मा गाँधी और उनके सहयोगियों ने नमक कानून भंग किया और सरकार को चेतावनी देकर कहा कि अगर उनकी माँगें पूरी नहीं की जाएंगी तो वे सविनय अवज्ञा आंदोलन का मार्ग अपनाएँगे।
आंदोलन की तीव्रता- सारे देश में सरकारी कानूनों का उल्लंघन तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार होने लगा जिससे आंदोलन में काफी तेजी आई।
गोलमेज़ सम्मेलन- सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए तथा संवैधानिक सुधारों पर विचार-विमर्श करने के लिए गोलमेज सम्मेलन बुलाने की घोषणा की किंतु, कांग्रेस ने इसमें भाग नहीं लिया। इसके परिणामस्वरूप 5 मार्च, 1931 को गाँधी-इरविन समझौता अथवा दिल्ली-पैक्ट हुआ। सरकार ने राजनीतिक बंदियों की रिहाई करने, दमनचक्र बंद करने, जब्त संपत्ति लौटाने, मुकदमे वापस लेने और नौकरी से त्यागपत्र देनेवालों को पुनः नौकरी में वापस लेने को तैयार हो गई। गाँधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस लेने, बहिष्कार की नीति त्यागने ए द्वितीय 'गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने पर सहमति व्यक्त की। इस प्रकार 1931 में सविनय अवज्ञा गंदोलन का प्रथम चरण समाप्त हो गया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन का दूसरा चरण- इरविन समझौता के बाद गाँधीजी द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने लंदन गए जिसमें सांप्रदायिक मुद्दों के प्रश्न पर वे नाखुश हो गए। वे सोचते थे कि राष्ट्र शब्द का मतलब सार्वभौमिक सम्मिश्रण से है। अगर ऐसा होगा तो अखंड राष्ट्र एक राष्ट्र के रूप में नहीं रह जाएगा। फिर भी बिना इसकी परवाह किए मैक्डोनाल्ड द्वारा सांप्रदायिक निर्णय (14 अगस्त 1932) की घोषणा कर दी गई। इसमें सभी अल्पसंख्यकों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गई। इससे गाँधीजी बड़े मर्माहत हुए और आमरण अनशन पर बैठ गए।
काफी उथल-पुथल के बाद पुन: तीसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ जिसका कांग्रेस ने बहिष्कार किया। विफल हो गया। गाँधीजी के पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति का प्रयास विफल हो गया परंतु इसी उत्प्रेरित लताओं में गाँधीजी को पुनः नए अस्त्रों के साथ स्वाधीनता-संग्राम में उतरने को उत्प्रेरित किया। इस प्रकार सविनय अवज्ञा आंदोलन की समाप्ति हो गई।  
11. 20 वीं शताब्दी के किसान आंदोलन का परिचय दें। 
उत्तर- अंगरेजों ने भारतीय कृषि व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया। 19वीं-20वीं शताब्दी उत्तरमें अपनी दयनीय स्थिति से क्षुब्ध होकर किसानों ने अनेक बार विद्रोह एवं आंदोलन किए। इनमें बंगाल में नील विद्रोह, दक्कन के किसानों का आंदोलन अथवा मराठा विद्रोह, पबना और मोपला विद्रोह तथा चंपारण, खेड़ा और दरभंगा का किसान आंदोलन शामिल था। महात्मा गाँधी राजनीति में प्रवेश करते ही किसानों और श्रमिकों के लिए संघर्ष करने लगे। भारत में सत्याग्रह का पहला प्रयोग उन्होंने चंपारण के किसानों की समस्या को लेकर किया जिसमें वे सफल रहे।
नील विद्रोह- नील की खेती एक अत्यंत लाभदायक व्यवसाय था। इसलिए अंगरेजों ने भारत में इसकी खेती आरंभ करवाई। इसके लिए किसानों को जबर्दस्ती बाध्य कर उनका आर्थिक और शारीरिक शोषण किया। नील की खेती करनेवाले किसानों ने इनका विद्रोह किया। किसान नील उपजाना नहीं चाहते थे क्योंकि इससे जमीन की उर्वरता कम हो जाती थी। किसानों को उपज का उचित मूल्य भी नहीं मिलता था। निलहे साहबों ने अपनी कोठियाँ स्थापित कर रखी थी। वे किसानों को “तीनकठिया" प्रणाली के अंतर्गत नील की खेती करने को बाध्य करते थे। बिहार तथा बंगाल के किसानों की खेती से बागान-मालिकों को बहुत अधिक लाभ हुआ। निलहे साहब एक पौंड नील करीब एक रुपया चार आना में खरीदते और उसे इंगलैंड के बाजार में 5-7 रुपये में बेचते थे। इस लाभप्रद व्यवसाय पर वे अपना शिकंजा जमाए रखना चाहते थे। इसके लिए वे किसानों को मूर्ख बनाते तथा उन पर अमानवीय अत्याचार भी करते थे। किसानों की सहायता करनेवाला कोई नहीं था।
किसानों की दुर्दशा का समाचार पाकर गाँधीजी अपने अनेक सहयोगियों के साथ 1917 में चंपारण गए। सरकारी अधिकारियों ने गाँधीजी के कार्यों का विरोध कर उन्हें चंपारण छोड़ने को कहा। गाँधीजी नहीं माने तो उन्हें गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया। लाचार होकर सरकार ने "चंपारण एग्रेरीयन कानून" पारित कर निलहों के अत्याचार को रोक दिया एवं तीनकठिया प्रणाली समाप्त कर दिया। इससे गाँधीजी की ख्याति बढ़ी और गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें "महात्मा" कहा।
खेड़ा का किसान आदोलन—चंपारण के बाद खेड़ा (गुजरात) में भी 1918 में किसान आंदोलन हुआ। गाँधीजी ने वहाँ भी किसानों की स्थिति सुधारने के लिये कार्य किए। खेड़ा में तंबाकू और रूई की उपज बहुत अधिक होती थी। 1918 में वहाँ वर्षा नहीं होने से फसल नष्ट हो गई थी और किसान लगान चुकाने में असमर्थ थे। किसानों में भुखमरी को स्थिति उत्पन्न हो गई थी। परंतु सरकारी कर्मचारी लगान की वसूली के लिए किसानों पर दबाव डाल रहे थे। खेड़ा के किसानों को चंपारण में गाँधीजी के कार्यों के बारे में पता चला तो उनलोगों ने गाँधीजी को बुलाया। उन्होंने किसानों को सत्याग्रह के लिए संगठित कर सरकारी सख्ती, धमकी और कुर्की के बावजूद किसानों को लगान देने से इनकार करने को कहा। बड़ी संख्या में किसानों ने सत्याग्रह आंदोलन चलाया। कई किसान जेल भी गए अंत में बाध्य होकर 1918 में किसान आंदोलन के व्यापक रूप को देखकर सरकार को झुकना पड़ा और किसानों को सरकार ने लगान से राहत दे दिया। इसी आंदोलन के दौरान सरदार वल्लभभाई पटेल गाँधीजी के संपर्क में आए और उनके पक्के अनुयायी बन गए।
बारदोली सत्याग्रह- खेड़ा के किसान आंदोलन के बाद गुजरात के बारदोली में भी व्यापक किसान आंदोलन हुआ। बारदोली गुजरात के सूरत जिला में था। यहाँ भी लगान में तीस प्रतिशत वृद्धि कर दी गई थी। किसानों ने लगान की बढ़ोतरी के खिलाफ लगान देने से इनकार कर दिया। किसान आंदोलन पर उतारू हो गए। सरदार वल्लभभाई पटेल ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। उनकी निष्ठा को देखकर उन्हें 'सरदार' की उपाधि मिली। सरकार ने इस आंदोलन को देखकर 'बारदोली जाँच आयोग' गठित किया। सरदार वल्लभभाई पटेल ने किसानों को संगठित कर सत्याग्रह द्वारा सरकार पर दबाव बनाया कि वह बढ़ी हुई लगान की दर वापस ले। सरकार ने आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया। इस आंदोलन में महिलाओं ने भी भाग लिया। सरकार ने आंदोलन को विफल बनाने के लिए सरदार पटेल की गिरफ्तारी की योजना बनाई परंतु बाद में वह झुक गई तथा लगान की राशि 30 प्रतिशत से घटा कर 6.3 प्रतिशत कर दी गई।
एका आंदोलन-1920 के लगभग बंगाल, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में किसानों के संगठन स्थापित किए गए। उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का व्यापक प्रभाव पड़ा। ऐसा ही एक आंदोलन उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में हुआ। असहयोग आंदोलन के दौरान भारत के विभिन्न भागों में किसानों ने लगान चुकाने से इनकार कर दिया था। लगान की ऊँची दर तथा जमींदारों के शोषण के विरुद्ध किसान संगठित होकर आंदोलन चलाने लगे। यह आंदोलन 'एका आंदोलन' कहलाया। इसे 'एकता आंदोलन' भी कहते हैं। किसानों को संगठित करने के लिए धार्मिक रीति-रिवाजों का सहारा लिया गया। उन्हें ईश्वर की शपथ दिला कर संगठित रूप से सरकारी एवं जमींदारी शोषण का विरोध करने को कहा गया। परंतु, 1922 तक सरकार ने इस आंदोलन को दबा दिया।
मोपला विद्रोह- दक्षिण मालाबार (मद्रास प्रेसिडेंसी) के किसान मजदूरों एवं चाय-कॉफी बागानों के श्रमिकों को खेतिहरों को लोग प्राय: मोपला कहते थे। दक्कन में ये हिंदुओं की निम्न जाति के थे जो मुसलमान बन गए थे। ये लोग प्रायः खेती करते थे अथवा हिंदू जमींदारों के पट्टेदार या बँधुआ मजदूर थे।
19वीं शताब्दी में दक्कन के किसानों (मराठा विद्रोह) तथा बंगाल के पबना के किसानों का विद्रोह भी हुआ। 19वीं-20वीं शताब्दी में मोपलाओं ने भी विद्रोह किये। मोपला वर्ग में कृषक मजदूर, चाय-कॉफी बागानों में काम करनेवाले श्रमिक तथा छोटे किसान शामिल थे। मोपलाओं का आक्रोश सरकार के साथ-साथ जमींदारों के विरुद्ध भी था। धर्म की इस आंदोलन में प्रमुख भूमिका थी। 1887 के पूर्व मोपलाओं ने करीब 22 बार विद्रोह किए। सरकार ने एक समिति गठित ने की। समिति के अनुसार विद्रोहों का मुख्य कारण जमींदारों द्वारा किसानों को जमीन से बेदखल करना एवं लगान में वृद्धि करना था। परंतु सरकार ने इस पर नियंत्रण नहीं लगाया। फलस्वरूप, मोपलाओं का आक्रोश सरकार और जमींदार के प्रति बढ़ता गया।
1921 में मोपलाओं का सबसे बड़ा विद्रोह हुआ। ब्रिटिश सरकार द्वारा खलीफा' के प्रति किए गए अन्याय से वे नाराज थे। वे खिलाफत आंदोलन से जुड़कर विद्रोह पर उतारू हो गए। 20 अगस्त 1921 को डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने एक मस्जिद में प्रवेश कर मोपलाओं के नेता मुसालियार को गिरफ्तार कर लिया। इससे मोपलाओं ने क्रोधित होकर जमींदारों तथा महाजनों की संपत्ति लूट ली तथा सरकारी संपत्ति को भी नुकसान पहुँचाया। अंग्रेज अधिकारियों पर भी हमले किए। बलात धर्म-परिवर्तन कराने का भी प्रयास किया गया। मोपला विद्रोह में सांप्रदायिकता के प्रवेश तथा हिंसात्मक घटनाओं को देखकर कांग्रेस इस विद्रोह से अलग हो गया। परिणामस्वरूप सरकार ने दमनात्मक कार्रवाई की। हजारों मोपला सेना के द्वारा मार दिए गए तथा हजारों को गिरफ्तार कर लिया गया। अनेक मोपलाओं ने आत्मसमर्पण किया। इस प्रकार सरकार ने इस विद्रोह को कुचल डाला।
किसान सभाओं का गठन- किसान आंदोलन से किसानों में एक नई जागृति पैदा हुई। किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन किए। 1 सितंबर 1936 को पूरे देश में किसान दिवस मनाया गया। 20वीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक में किसान सभाओं का गठन बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश में हुआ जहाँ जमींदारों का अत्याचार और शोषण पराकाष्ठा पर था। 1928 में पटना के बिहटा में स्वामी सहजानंद ने किसान सभा का गठन किया। 1937 में जब लोकप्रिय सरकारें बनी तो कृषकों को इनसे बहुत आशाएँ थीं परंतु उन्हें निराशा हुई। अपनी मांगों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए बिहार विधानसभा के अधिवेशन के पहले दिन 23,000 किसान विधान सभा के सामने एकत्रित होकर नारा लगाने लगे। उनके नारे थे, "हमें पानी दो हम प्यासे हैं, हमे रोटी दो हम भूखे हैं।" "हमारे सभी कृषि ऋण छोड़ दो और हमें जमींदारों के शोषण से बचाओ।" विकास आंदोलन की व्यापकता और इसके प्रभाव को देखते हुए काँग्रेस ने 1937 में अपने फैजपुर अधिवेशन में किसानों के हित में कार्यक्रमों को स्वीकृति प्रदान की। किसान सभाओं ने जमींदारी उन्मूलन, बेगारी प्रथा और लगान में कमी करने को लेकर व्यापक आंदोलन चलाया। स्वतंत्रता के पश्चात भी किसान अपने हितों की सुरक्षा के लिए संघर्ष करते रहे।

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