1. 19वीं शताब्दी में यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों के बजाए हाथ से काम करनेवाले श्रमिकों को प्राथमिकता देते थे। इसका क्या कारण था?
उत्तर-19वीं शताब्दी में औद्योगीकरण के बावजूद हाथ से काम करनेवाले श्रमिकों की मांग बनी रही। अनेक उद्योगपति मशीनों के स्थान पर हाथ से काम करनेवाले श्रमिकों को ही प्राथमिकता देते थे। इसके प्रमुख निम्नलिखित कारण थे
(i) इंगलैंड में कम मजदूरी पर काम करनेवाले श्रमिक बड़ी संख्या में उपलब्ध थे। उद्योगपतियों को इससे लाभ था। मशीन लगाने पर आनेवाले खर्च से कम खर्च पर ही इन श्रमिकों से काम करवाया जा सकता था। इसलिए उद्योगपतियों ने मशीन लगाने में अधिक उत्साह नहीं दिखाया।
(ii) मशीनों को लगवाने में अधिक पूंजी को आवश्यकता थी। साथ ही मशीन के खराब होने पर उसकी मरम्मत कराने में अधिक धन खर्च होता था। मशीनें उतनी अच्छी नहीं थी, जिसका दावा आविष्कारक करते थे।
(iii) एक बार मशीन लगाए जाने पर उसे सदैव व्यवहार में लाना पड़ता था, परंतु श्रमिकों की संख्या आवश्यकतानुसार घटाई-बढ़ाई जा सकती थी। मौसमी आधार पर श्रमिकों की संख्या की आवश्यकता पड़ती थी। उदाहरण के लिए इंगलैंड में जाड़े के मौसम में गैस घटों और शराबखानों में अधिक काम रहता था। बंदरगाहों पर जाड़ा में ही जहाजों की मरम्मत तथा सजावट का काम किया जाता था। क्रिसमस के अवसर पर बुक बाइंडरों और प्रिटरों को अतिरिक्त श्रमिकों की जरूरत पड़ती थी। उद्योगपति मौसम के अनुसार उत्पादन में कमी-बेशी को ध्यान में रखकर आसानी से मजदूरों की संख्या घटा-बढ़ा सकते थे। इसलिए उद्योगपति मशीनों के व्यवहार से अधिक हाथ से काम करनेवाले मजदूरों को रखना ज्यादा पसंद करते थे।
(iv) विशेष प्रकार के सामान सिर्फ कुशल कारीगर ही हाथ से बना सकते थे। मशीन विभिन्न डिजाइन और आकार के सामान नहीं बना सकते थे।
(v) विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन में हाथ से बनी चीजों की बहुत अधिक मांग थी। हाथ से बने सामान परिवष्कृत, सुरूचिपूर्ण, अच्छी फिनिशवाली, बारीक डिजाइन और विभिन्न आकार की होती थी। कुलीन वर्ग इसकी उपयोग करना गौरव की बात मानते थे।
इसलिए आधुनिकीकरण के युग में मशीनों के व्यवहार के बावजूद हाथ से काम करनेवाली श्रमिकों की मांग बनी रही।
2. 18वीं शताब्दी तक अंतराष्ट्रीय बाजार में भारतीय वस्त्रों की मांग बने रहने का क्या कारण था?
उत्तर- प्राचीन काल से ही भारत का वस्त्र उद्योग अत्यंत विकसित स्थिति में था। यहाँ विभिन्न प्रकार के वस्त्र बनाए जाते थे। उनमें महीन सूती (मलमल) और रेशमी वस्त्र मुख्य थे। उनकी माँग अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काफी थी। कंपनी सत्ता की स्थापना एवं सुदृढीकरण के आरंभिक चरण तक भारत के वस्त्र निर्यात में गिरावट नहीं आई। भारतीय वस्त्रों की मांग अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बनी हुई थी जिसका मुख्य कारण था कि ब्रिटेन में वस्त्र उद्योग उस समय तक विकसित स्थिति में नहीं पहुंचा था। एक अन्य कारण यह था कि जहाँ अन्य देशों में मोटा सूत बनाया जाता था, वहीं भारत में महीन किस्म का सूत बनाया जाता था जिससे महीन सूती वस्त्र बनाया जाता था। इसलिए आर्मीनियम और फारसी व्यापारी पंजाब, अफगानिस्तान, पूर्वी फारस और मध्य एशिया के मार्ग से भारतीय सामान ले जाकर इसे बेचते थे। महीन कपड़ो के धान ऊँट की पीठों पर लादकर पश्चिमानर सीमा प्रांत से पहाड़ी दरों और रेगिस्तानों के पार ले जाए जाते थे। मध्य एशिया में इन्हें यूरोपीय मंडियों में भेजा जाता था।
3. ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी वस्त्र की नियमित आपूर्ति के लिए क्या व्यवस्था की?
उत्तर- बंगाल में राजनीतिक सत्ता की स्थापना के पहले ईस्ट इंडिया कंपनी को भारतीय बुनकरों से कपड़ा प्राप्त कर उनका निर्यात करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। बुनकरों से वस्त्र प्राप्त करने के लिए यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों में प्रतिद्वंद्विता होती थी। इसका लाभ स्थानीय व्यापारी भी उठाते थे। बुनकरों से वस्त्र खरीदकर वे ऊँची कीमत देनेवाली कंपनी को बेचते थे। कंपनी राज्य की स्थापना से परिदृश्य बदल गया। सूती वस्त्र उद्योग में व्याप्त प्रतिद्वंद्विता को समाप्त कर उसपर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने नियंत्रण एवं प्रबंधन की नई नीति अपनाई जिससे उसे वस्त्र की आपूर्ति लगातार होती रही। इसके लिए कंपनी ने निम्नलिखित कदम उठाए
(i) गुमाश्तों को नियुक्ति- कपड़ा व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करने के लिए विचौलियाँ को समाप्त करना एवं बुनकरों पर सीधा नियंत्रण रखना आवश्यक था। इसके लिए कंपनी ने अपने नियमित कर्मचारी नियुक्त किए जो गुमाश्ता कहे जाते थे। इनका मुख्य काम बुनकरों पर नियंत्रण रखना, उनसे कपड़ा इकट्ठा करना तथा बुने गए वस्त्रों की गुणवत्ता का जांच करता था।
(ii) बुनकरों की पेशंगी की व्यवस्था- बुनकरों से स्वयं तैयार सामान प्राप्त करने के लिए। कंपनी ने उन्हें अग्रिम राशि या पेशगी देने की नीति अपनाई। अग्रिम राशि प्राप्त कर बुनकर अब सिर्फ कंपनी के लिए ही वस्त्र तैयार कर सकते थे। वे अपना माल कंपनी के अतिरिक्त अन्य किसी कम्पनी या व्यापारी को नहीं बेच सकते थे। बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए ऋण भी उपलब्ध कराया गया। अग्रिम राशि और कर्ज से कपड़ा तैयार कर बुनकरों को माल गुमाश्तों को सौंपना पड़ा।
4. प्रथम विश्वयुद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन क्यों बढ़ा? व्याख्या कीजिए।
उत्तर- प्रथम विश्वयुद्ध तक भारत का औद्योगिक उत्पादन की धीमा रहा। परंतु युद्ध के दौरान और उसके बाद भारत का औद्योगिक उत्पादन में काफी तेजी आई जिसके निम्नलिखित प्रमुख कारण थे
(i) प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन में सैनिक आवश्यकता के अनुरूप अधिक सामान बनाए जाने लगे जिससे मैनचेस्टर में बनने वाले वस्त्र उत्पादन में गिरावट आई। इसस भारतीय उद्यमियों को अपने बनाए गए वस्त्र की खपत के लिए देश में ही बहुत बड़ा बाजार मिल गया। फलतः सूती वस्त्रों का उत्पादन तेजी से बढ़ा।
(ii) विश्वयुद्ध के लम्बा खींचने पर भारतीय उद्योगपतियों ने भी सैनिकों की आवश्यकता के लिए सामान बनाकर मुनाफा कमाना आरंभ कर दिया। सैनिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए देशी कारखानों में भी सैनिकों के लिए वर्दी, जूते, जूट की बोरियाँ, टेन्ट, जीन इत्यादि बनाए जाने लगे। इससे देशी कारखानों में उत्पादन बढ़ा।
(iii) युद्धकाल में कारखानों में उत्पादन बढ़ाने के अतिरिक्त अनेक नये कारखाने खोले गए। मजदूरों की संख्या में भी वृद्धि की गई। इनके कार्य करने की अवधि में भी बढ़ोतरी । हुई। फलस्वरूप प्रथम विश्वयुद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन ये तेजी से वृद्धि हुई।
5. इंगलैंड में औद्योगिक क्राांति के किन्हीं पाँच कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति के पाँच प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
(i) इंगलैंड की भौगोलिक स्थिति- इंगलैंड की भौगोलिक स्थिति उद्योग-धंधों के विकास के लिए अनुकूल थी। कटे हुए समुद्री किनारों के कारण उसके पास अच्छे बंदरगाह थे। अतः समुद्री । मार्ग से कच्चा माल आयात करने एवं निर्मित वस्तुओं के निर्यात, जो औद्योगिकीकरण के आवश्यक वत्व हैं की सुविधा इंगलैंड में थी। इंगलैंड बाहरी आक्रमणों से भी सुरक्षित था।
(ii) खनिज पदाथों की उपलब्धता -इंगलैंड में प्राकृतिक साधन (खनिज पदार्थ) प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। इंगलैंड के उत्तरी और पश्चिमी भाग में लोहा और कोयला की खाने उपलब्ध थी। इनसे औद्योगिक विकास के लिए खनिज आसानी से उपलब्ध हो गए।
(iii) मजदूरों की उपलब्धता- बाड़ाबंदी कानून से जहाँ कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई एवं भूमिपतियों को लाभ हुआ वहीं छोटे किसान अपनी भूमि से बेदखल हो गए। उनके सामने आजीविका का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। ये किसान औद्योगिक केन्द्रों की ओर जाने और कारखानों में काम करने को विवश हो गए। इसलिए इंगलैंड में कल-कारखानों के लिए सस्ते मजदूर सुलभ हो गए।
(iv) नए-नए मशीनों का आविष्कार- औद्योगिक क्रांति लाने में इंगलैंड के वैज्ञानिकों का भी महत्वपूर्ण योगदान था। इन लोगों ने नए-नए मशीनों का आविष्कार किया जिनसे वस्त्र उद्योग, व्यवस्था एवं खनन उद्योगों में प्रगति हुई। उद्योग धंधों में नई मशीनों का व्यवहार आरंभ हुआ। इससे कल-कारखाने स्थापित हुए तथा कारखानेदारी की प्रथा का विकास हुआ।
(v) परिवहन की सुविधा- कारखानों में उत्पादित वस्तुओं तथा कारखानों तक कच्चा माल पहुँचाने के लिए आवागमन के साधनों का विकास किया गया। सड़कों एवं जहाजरानी का विकास हुआ। आगे चलकर रेलवे का भी विकास हुआ जिससे औद्योगोकीकरण में सुविधा हुई। इस प्रकार इंगलैंड में अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में वैसी परिस्थितियाँ विद्यमान थी जिनसे औद्योगिक क्रांति हुई।
6. औद्योगीकरण का इंगलैंड पर क्या प्रभाव पड़ा? विवेचना कीजिए।
उत्तर- औद्योगिकीकरण ने व्यापक रूप से इंगलैंड के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को प्रभावित किया। कालांतर में विश्व के अन्य देशों पर भी इसका प्रभाव पड़ा। इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति के अग्रलिखित महत्वपूर्ण परिणाम हुए-
औद्योगिकीकरण के परिणाम (प्रभाव)
(i) कारखानेदारी प्रथा (फैक्टरी व्यवस्था) का विकास, (ii)नगरों के स्वरूप में परिवर्तन (iii) पूँजीपति वर्ग का विकास, (iv) श्रमिक वर्ग का उदय, (v) बाल-श्रम की प्रथा का विकास, (vi) स्त्री-श्रम का विकास, (vii) श्रमिक आंदोलन का उदय, (viii) उपनिवेशवाद का विकास
(i) कारख़ानेदारी प्रथा ( फैक्टरी व्यवस्था) का विकास- औद्योगिक क्रांति के इंगलैंड में बड़ी संख्या में विशाल कारखाने खुले जिनमें बड़े स्तर पर उत्पादन होने लगा। इससे इंगलैंड का भूदृश्य परिवर्तित हो गया।
(ii) नगरों के स्वरूप में परिवर्तन- कारखानों की स्थापना से तत्कालीन नगरों का स्वरूप बदल गया। अब आधुनिक नगरों का उदय हुआ। नगरों में जनसंख्या का घनत्व बढ़ गया। अनेक नगर औद्योगिक केंद्र बन गए।
(iii) पूँजीपति वर्ग का विकास- औद्योगिकीकरण के परिणाम स्वरूप पूँजीपति वर्ग का विकास हुआ। कुलीन, संपन्न एवं व्यापारी अपनी अतिरिक्त पूँजी उद्योगों में निवेश करने लगे। इससे उद्योगों पर पूँजीपति वर्ग का नियंत्रण स्थापित हुआ। सामाजिक-राजनीतिक जीवन पर भी उनका प्रभाव बढ़ गया।
(iv) श्रमिक वर्ग का उदय- औद्योगिकीकरण के कारण कारखानों में काम करनेवाले श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। ये अपना घर-गाँव छोड़कर शहरों में आकर कारखानों में काम करने लगे। परंतु, इनकी स्थिति शोचनीय थी। वे शोषण, गरीबी और भुखमरी के शिकार बने रहे।
(v) बाल-श्रम की प्रथा का विकास- कारखानेदारी प्रथा के विकास ने बाल-श्रम की प्रथा बढ़ावा दिया। उद्योगपति इन्हें कम मजदूरी पर ही बहाल कर इनसे कारखानों में काम लेते थे जिससे उन्हें मुनाफा होता था। बच्चों के अभिभावक भी इन्हें अतिरिक्त आमदनी के लोभ में कारखानों में भेजने लगे। इनकी स्थिति भी दयनीय थी।
(vi) स्त्री-श्रम का विकास-बच्चों के समान स्त्रियों को भी कारखानेदारी ने कम मजदूरी पर काम में लगाया। इनकी बड़ी संख्या थी। इनका जीवन कष्टदायक था।
(vii) श्रमिक आंदोलन का उदय- अपनी स्थिति में सुधार के लिए श्रमिक संगठित होकर आंदोलन करने लगे। इन लोगों ने अपनी मांगों की पूर्ति के लिए हड़ताल एवं प्रदर्शन का सहारा लिया।
(viii) उपनिवेशवाद का विकास- औद्योगिक क्रांति ने उपनिवेशवाद को बढ़ावा दिया। कारखानों को चलाने के लिए कच्चे माल की आपूर्ति एवं उत्पादित सामान की खपत के लिए बाजार की खोज के लिए एशिया और अफ्रीका में उपनिवेश स्थापित किए गए। स्वयं भारत इंगलैंड का उपनिवेश बन गया।
7. औद्योगीकरण का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर- औद्योगीकरण का भारत पर व्यापक प्रभाव पड़ा। औद्योगिकीकरण के भारत पर प्रभाव निम्नलिखित हुए
(i) उद्योगों का विकास- औद्योगिकीकरण के विकास के पूर्व भारत में उत्पादन का कार्य छोटे गृह उद्योगों में होता था। अब उत्पादन कारखानों में होने लगा। कपड़ा बुनने, सूत कातने के मिल स्थापित हुए। मशीनों का व्यवहार कर कपड़ा, लोहा एवं इस्पात, कोयला, सीमेंट, चीनी, कागज, शीशा और अन्य उद्योग स्थापित हुए जिनमें बड़े स्तर पर उत्पादन हुआ। इस प्रकार औद्योगिकीकरण से भारतीय उद्योगों का विकास हुआ।
(ii) नगरीकरण को बढ़ावा- औद्योगीकरण नै नगरीकरण को बढ़ावा दिया। औद्योगिक केन्द्र नगर के रूप में परिवर्तित हुए। वहाँ बाहर के लोगों के आकार बसने से जनसंख्या में वृद्धि हुई। औद्योगिकीकरण के कारण पुराने नगरों जैसे—बंबई, कलकत्ता की समृद्धि में वृद्धि हुई तो नए नगर भी विकसित हुए जैसे, जमशेदपुर, बोकारो, सिंदरी, धनबाद, डालमियानगर इत्यादि।
(iii) कुटीर उद्योगों की अवनति-कारखानों की स्थापना ने परंपरागत कुटीर एवं लघु उद्योगों का पतन कर दिया। इसका एक मुख्य कारण था कारखानों में उत्पादित सामान सस्ते थे जबकि कुटीर उद्योगों में उत्पादित सामान महंगे होते थे। इसलिए बाजार में इनकी माँग घट गई। सरकारी नीतियों के कारण कुटीर उद्योगों को कच्चा माल मिलना भी दुर्लभ हो गया। फलतः वै बंद प्रायः हो गए।
(iv) सामाजिक विभाजन- भारत में औद्योगिकीकरण के विकास के साथ ही नए-नए सामाजिक वर्गों का उदय और विकास हुआ। कल-कारखानों के विकास के कारण समाज में पूँजीपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। दोनों के अतिरिक्त मध्यमवर्ग या बुर्जुआ वर्ग का भी उदय हुआ। इस वर्ग ने पूँजीपतियों के शोषण का विरोध किया तथा श्रमिकों के हल में आवाज उठाई। राष्ट्रीय आंदोलन में इस वर्ग की प्रभावशाली भूमिका रही।
8. भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर उद्योगों के महत्व पर प्रकाश डालें?
उत्तर-औद्योगीकरण और कारखाने दारी व्यवस्था ने कुटीर उद्योगों एवं इससे कार्यरत श्रमिकों की आजीविका को बुरी तरह प्रभावित किया, उन्हें विनाश के कगार पर पहुँचा दिया, तथापि वे पूर्णत: नष्ट नहीं हुए। स्थानीय स्तर पर वे कार्यरत रहे। बुनकरों का व्यवसाय तो फलता फूलता रहा। 1905 में बंगाल विभाजन बंग-भंग और स्वदेशी आन्दोलन ने कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित कर दिया। महात्मा गांधी जब राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व संभाला तो उन्होंने कुटीर उद्योगों के विकास पर बल दिया। उनका मानना था कि “कुटीर उद्योग भारतीय सामाजिक दशा के अनुकूल है।" राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। ये न सिर्फ लाखों लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराते हैं बल्कि उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। साथ ही राष्ट्रीय आय का समान वितरण भी ये सुनिश्चित करते हैं। कुटीर उद्योगों का एक लाभ यह है कि इनकी थापना में पंजी भी कम लगती है। सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का समाधान | कुटीर उद्योगों द्वारा ही होता है। यह सामाजिक, आर्थिक प्रगति व क्षेत्रवार संतुलित विकास के लिए एक शक्तिशाली हथियार है। कुटीर उद्योगों से शिल्पियों एवं कारीगरों के शहरों की ओर पलायन करने की प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगता है। कुटीर उद्योगों में निर्मित कपड़ों और कलात्मक वस्तुओं है का निर्यात भी होता है।
स्वदेशी आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलनों ने कुटीर उद्योगों को नया जीवन दिया। गांधीजी के प्रयास से घर-घर में चरखा और खादी के वस्त्रों का व्यवहार बढ़ गया। गांधी द्वारा अपनाई गई विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की नीति से भी कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिला। दो विश्वयुद्धों के मध्य कुटीर उद्योग में उत्पादित वस्तुओं के उत्पादन और मांग में वृद्धि हुई। क्षेत्रीय स्तर पर कुटीर उद्योग आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।
कुटीर उद्योगों की उपयोगिता और उनके महत्व को देखते हुए स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार और राज्य सरकारों ने कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक प्रयास किए हैं। 1948 की औद्योगिक नीति के द्वारा लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन दिया गया है। ।
Hello My Dear, ये पोस्ट आपको कैसा लगा कृपया अवश्य बताइए और साथ में आपको क्या चाहिए वो बताइए ताकि मैं आपके लिए कुछ कर सकूँ धन्यवाद |