1. ब्रिटेन में महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी पर क्यों हमले किए?
उत्तर- बेरोजगारी की आशंका से मजदूर कारखानेदारी एवं मशीनों के व्यवहार का विरोध कर रहे थे। इसी क्रम में ऊन उद्योग में स्पिनिंग जेनी मशीन का जब व्यवहार होने लगा तब इस उद्योग में लगी महिलाओं ने इसका विरोध आरंभ किया। उन लोगों को अपना रोजगार छिनने की आशंका दिखाई पड़ने लगी। अतः ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर आक्रमण कर उन्हें तोड़ना आरंभ किया।
2. लंदन को 'फिनिशिंग सेंटर' क्यों कहा जाता था ?
उत्तर- इंगलैंड के कपड़ा व्यापारी वैसे लोगों से जो रेशों के हिसाब से ऊन छांटते थे। (स्टेप्लसे) ऊन खरीदते थे। इस ऊन को वे सूत कातने वालों तक पहुँचाते थे। तैयार धागा वस्त्र बुनने वालों, चुन्नटो के सहारे कपड़ा समेटने वालों (पुलजे) और कपड़ा रंगने वालों (रंग साजों) के पास ले जाया जाता था। रंगा हुआ वस्त्र लंदन पहुँचता था। जहाँ उसकी फिनिशिंग होती थी। इसलिए लंदन को फिनिशिंग सेंटर कहा जाता था।
3. इंगलैंड ने अपने वस्त्र उद्योग को बढ़ावा देने के लिए क्या किया?
उत्तर- इंगलैंड में यांत्रिक युग का आरंभ सूती वस्त्र उद्योग से हुआ। 1773 में लंकाशायर के वैज्ञानिक जान के वे फ्लाइंग शट्ल नामक मशीन बनाई। इससे बुनाई की रफ्तार बढ़ी तथा सूत की मांग बढ़ गई। 1765 में ब्लैकबर्न के जेम्स हारग्रीव्ज ने स्पिनिंग जेनी बनाई जिससे सूत की कताई आठ गुना बढ़ गई। रिचर्ड आर्कराइट ने सूत कातने के लिए स्पिनिंग फ्रेम का आविष्कार किया जिससे अब हाथ से मूत कातने का काम बंद हो गया। क्रॉम्पटन ने स्पिनिंग म्युल नामक मशीन बनाई। इन मशीनों के आधार पर इंगलैंड में कम खर्च में ही बारीक सूत अधिक मात्रा में चनाए जाने लगे। इससे वस्त्र उद्योग में क्रांति आ गई। इन संयंत्रों की सहायता से इंगलैंड में वस्त्र उद्योगों को बढ़ावा मिला तथा 1820 तक इंगलैंड सूती वस्त्र उद्योगों का प्रमुख केन्द्र बन गया।
4. फ्लाईंगं शटल के व्यवहार का हाथ-करघा उद्योग पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर- औद्योगिक क्रांति के पहले सूत कातने और कपड़ा बनाने का काम हाथों से होता था। लोग यह काम अपने घरों में करते थे। परिवार के लोग इस काम में लगे रहते थे। घर पर ही कारखाने और दुकानें थीं। अधिकांश स्त्रियाँ चरखों पर सूत काता करती थी। पुरुष उन धागों से वस्त्र बुना करते थे। व्यापारी लोग जुलाहों को ऊन या रूई तथा कुछ अग्रिम धन राशि दे दिया करते थे। निर्मित वस्त्रों के मालिक वे व्यापारी थे जो उन्हें बाजारों में ले जा कर ऊँचे मुनाफे पर बेचा करते थे। चरखों के अतिरिक्त करघे, तकली आदि मोटे-मोटे हस्तचालित यंत्रों का प्रयोग किया जाता था। स्पष्ट है कि उत्पादन धीरे-धीरे और कम मात्रा में होता था। साथ ही कपड़ा मोटा और घटिया होता था तथा बड़े पैमाने पर माल तैयार नहीं होता था। आवश्यकता पड़ने पर बड़े पैमाने पर माल तैयार करना भी संभव नहीं था। बाहर के देशों में इंगलैंड के वस्त्र की माँग तो थी परंतु घरेलू पद्धति की त्रुटियों के कारण इंगलैंड इस बढ़ती हुई माँग को पूरा करने में असमर्थ सिद्ध हो रहा था। तब कताई और बुनाई तेजी से करने के लिए अनेक आविष्कार किए गए। परिणामस्वरूप कारखाना का जन्म हुआ और मशीनों के प्रयोग से वस्त्र उद्योग के । क्रांतिकारी परिवर्तन होने लगे।
1773 में लंकाशायर के जॉन के (John Kay) ने तेज चलनेवाली ठरकी 'फ्लाईंग शट्ल' का आविष्कार किया। यह मशीन ऐसी थी जिस पर अधिक लंबाई और चौड़ाई का कपड़ा बुना जाता था। इस आविष्कार के फलस्वरूप हस्त करघा उद्योग में अधिक बढ़ोतरी हुई और मनुष्य कम समय में अधिक वस्त्र तैयार करने लगा।
5. भारत में निरुद्योगीकरण क्यों हुआ
उत्तर- भारत इंगलैंड का सबसे महत्वपूर्ण उपनिवेशों में से श्रम था। सरकार ने भारत से कच्चे माल का आयात और इंगलैंड के कारखानों से तैयार माल का भारत में निर्यात करने की नीति अपनाई। इसके लिए सुनियोजित रूप से भारतीय उद्योगों विशेषत: वस्त्र उद्योग को नष्ट कर दिया गया। 1850 के बाद अंगरेजी सरकार की औद्योगिक नीतियाँ मुक्त व्यापार की नीति, भारतीय वस्तुओं के निर्यात पर सीमा और परिवहन शुल्क लगाने, रेलवे, कारखानों में अंगरेजी पूँजी निवेश, भारत में अंगरेजी आयात का बढ़ावा देने इत्यादि के फलस्वरूप भारतीय उद्योगों का विनाश हुआ। कारखानों की स्थापना की प्रक्रिया बढ़ी जिससे देशी उद्योग अपना महत्व खोने लगे। इससे भारतीय उद्योगों का निरूद्योगीकरण हुआ।
6. जॉबर कौन थे?
उत्तर- कारखानों तथा मिलों में मजदूरों और कामगारों की नियुक्ति का माध्यम जॉबर होते थे। प्रत्येक मिल मालिक जॉबर को नियुक्त करते थे। यह मालिक का पुराना तथा विश्वस्त कर्मचारी होता था। वह आवश्यकतानुसार अपने गाँव से लोगों को लाता था और उन्हें कारखानों में नौकरी दिलवाता था। मजदूरों को शहर में रहने और उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने का काम जॉबर ही करते थे।
7. ट्रेड यूनियन से आप क्या समझते हैं ? ट्रेड यूनियन के किन्हीं चार उद्देश्यों का वर्णन करें ।
उत्तर- औद्योगिक क्रांति के पश्चात कारखानों में काम करने के लिए श्रमिकों की आवश्यकता पड़ी। कारखानों में काम करनेवाले मजदूरों पर काम का अत्यधिक बोझ हो गया जिससे उनकी स्थिति बिगड़ती चली गई। सरकार भी उनकी स्थिति नहीं सुधार सकी, परिणामस्वरूप मजदूरों ने खुद ही अपना एक ट्रेड यूनियन गठित किया। ट्रेड यूनियन एक प्रकार का मजदूर संघ है जो मजदूरों की अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए बनाया। ये संघ इनकी समस्याओं को दूर करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। ट्रेड यूनियन के चार मुख्य उद्देश्य थे-
1. मजदुरों को उचित वेतन दिलवाना, 2. कारखानों की स्थिति में सुधार की माँग, 3. श्रमिकों की कार्य अवधि को निश्चित करना, 4. मिल-मालिकों के मनमाने शोषण से मजदूरों की रक्षा करना, 5. कारखाने में काम करने के लिये मजदूरों की उचित सुविधाओं की माँग करना।
8. औद्योगिक क्रांति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर- 'औद्योगिक क्रांति' शब्द का प्रयोग सबसे पहले फ्रांस के विख्यात समाजवादी चिंतक लुई ब्लॉक ने किया। औद्योगिक क्राति का अर्थ महत्त्वपूर्ण आविष्कारों तथा परिवर्तनों से है, जिनके द्वारा । वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तकनीक और संगठन में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन लाए गए। ये परिवर्तन इतनी तेजी से आए और इतने प्रभावशाली सिद्ध हुए कि उन्हें क्रांति का नाम दिया गया। औद्योगिक क्रांति की एक विशेषता है कि यह एक, “वर्ग-विहीन" क्रांति थी। इसे न तो बुर्जुआ, सर्वहारा अथवा अभिजात और मध्यवर्गीय क्रांति कहा जा सकता है। यह क्रांति वैज्ञानिकों और आविष्कारों की देन थी। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से इंगलैंड में तकनीकी विकास और आविष्कारों को श्रृंखला बनी जिससे मानव-चालित औजारों का स्थान जलशक्ति अथवा वाष्पशक्ति-चालित संयंत्रों ने ले लिया। इसी प्रकार घरेलू उद्योगों का स्थान कारखानों ने ले लिया। इसके फलस्वरूप औद्योगिक क्रांति प्रारंभ हुई। यह क्रांति रक्तहीन क्रांति थी। औद्योगिक क्रांति सर्वप्रथम इंगलैंड में हुई और बाद में फ्रांस बेल्जियम, जर्मनी आदि देश में विकसित हुई।
9. 19वीं सदी के निर्माता अपने उत्पादों को बेचने के लिए कैलेंडर क्यों छपवाने लगे थे?
उत्तर- 19वीं सदी के अंतिम चरण से उत्पादकों ने अपने-अपने उत्पाद के प्रचार के लिए आकर्षक कैलेंडर छपवाने आरंभ कर दिए। चूँकि अखबारों और पत्रिकाओं को पढ़कर उत्पादन के विषय में समझा जाता था, परंतु इसे कैलेंडर को देखकर भी समझा जा सकता था। उसके लिए शिक्षित होना जरूरी नहीं था। इन कैलेंडरों में नए उत्पादों को बेचने के लिए देवी-देवताओं की तस्वीर भी लगाई गई जिससे लोग भावनात्मक रूप से विभिन्न उत्पादों की ओर आकृष्ट होने लगें। देवताओं की तस्वीरों के अलावा महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों, सम्राटों, नवाबों की तस्वीरों का भी विज्ञापन कैलेंडरों में खूब इस्तेमाल होने लगा।
ग्राहकों को आकृष्ट करने के लिए निर्माताओं ने विज्ञापन के माध्यम से स्वदेशी और राष्ट्रीय - संदेश भी दिए। वे संदेश इस प्रकार होते थे कि यदि आप में राष्ट्र प्रेम की भावना है तो आप भारतीय उत्पाद ही खरीदेंगे। अतः, इस प्रकार के विज्ञापन स्वदेशी, राष्ट्रवादी एवं संदेशवाहक बन गए। चाय की दुकानों, दफ्तर तथा मध्यवर्गीय घरों में ये कैलेंडर लटके रहते थे। जो इन कैलेंडरों को लगाते थे वे विज्ञापन को भी हर रोज पूरे साल देखते थे। कई कैलेंडरों पर राष्ट्रीय नेताओं की तस्वीरों को भी चित्रित किया गया। राष्ट्रप्रेमी अपने नेताओं की तस्वीर देखकर कैलेंडरों से प्रभावित होकर उन उत्पादों को खरीदते थे। इस प्रकार इन विज्ञापनों के द्वारा उद्योगपतियों ने बाजार में उनका प्रचार-प्रसार किया।
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