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Class 10th Bharati Bhawan History Chapter 7 | Long Answer Question | व्यापार और भूमंडलीकरण | कक्षा 10वीं भारती भवन इतिहास अध्ययय 7 | दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

Class 10th Bharati Bhawan History Chapter 7  Long Answer Question  व्यापार और भूमंडलीकरण  कक्षा 10वीं भारती भवन इतिहास अध्ययय 7  दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 
1. अंतरर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमय के तीन प्रवाहों का उल्लेख को भारत से संबद्ध तीनों प्रवाहों.का उदाहरण दें।
उत्तर- 19वीं शताब्दी से नई विश्व अर्थव्यवस्था का विकास हुआ। इसमें आर्थिक विनिमयों की प्रमुख भूमिका थी। अर्थशास्त्रियों के अनुसार आर्थिक विनिमय तीन प्रकार के प्रवाहों पर आधारित है वे हैं—(i) व्यापार, (ii) श्रम तथा (iii) पूंजी। 19वीं सदी से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का तेजी से विकास हुआ। परंतु यह व्यापार मुख्यतः कपड़ा और गेहूँ जैसे खाद्यानों तक ही सीमित दूसरा प्रवाह श्रम का था। इसके अंतर्गत रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में लोग एक स्थान या देश से दूसरे स्थान और देश को जाने लगे। इसी प्रकार कम अथवा अधिक अवधि के लिए दूर-दूर के क्षेत्रों में पूँजी निवेश किया गया। विनिमय के ये तीनों प्रवाह एक-दूसरे से जुड़े हुए थे, यद्यपि कभी-कभी ये संबंध टूटते भी थे। इसके बावजूद अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमय में इन तीनों प्रवाहों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। 
भारत से संबंधित तीनों प्रवाह का उदाहरण इस प्रकार हैं-
* भारत में श्रम का प्रवाह- अंतर्राष्ट्रीय बाजार की मांग के अनुरूप उत्पादन बढ़ाने के लिए 19वीं शताब्दी से श्रम का प्रवाह भारत से दूसरे देशों की ओर हुआ। इन श्रमिकों को गिरमिटिया श्रमिक कहा जाता था क्योंकि इन्हें विदेशों में काम करने के लिए एक अनुबंध के तहत ले जाया गया।
* वैश्विक बाजार में भारतीय पूँजीपति- विश्व बाजार के लिए बड़े स्तर पर कृषि उत्पादों के लिए पूँजी की आवश्यकता थी। बागान मालिक बैंक और बाजार से अपने लिए पूँजी की व्यवस्था कर लेते थे परंतु असली कठिनाई छोटे किसानों की थी। अतः उन्हें साहूकारों और महाजनों की शरण में जाना पड़ा जो ऊँची सूद की दर पर किसानों को पूँजी उपलब्ध कराते थे। इससे महाजनी और साहूकारी का व्यवसाय चल निकला। 
* भारतीय व्यापार– इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति के पूर्व इंगलैंड को भारत से सूती वस्त्र और महीन कपास का निर्यात बड़ी मात्रा में किया जाता था। इसी बीच कृषि के विकास होने से ब्रिटेन में कपास का उत्पादन बढ़ गया साथ ही सरकार ने भारतीय सूती वस्त्र पर इंगलैंड में भारी आयात शुल्क लगा दिया। इसका असर भारतीय निर्यात पर पड़ा। सती वस्त्र एवं कपास का निर्यात घट गया। दूसरी ओर मैनचेस्टर में बने वस्त्र का आयात भारत में बढ़ गया।
2. कैरीबियाई क्षेत्र में काम करनेवाले गिरमिटिया मजदूरों की जिंदगी पर प्रकाश डालों अपनी पहचान बनाए रखने के लिए उन लोगों ने क्या किया ?
उत्तर- गिरमिटिया मजदूर ऐसे मजदूरों को कहा जाता था जिन्हें विदेशों में काम करने के लिए एक अनुबंध अथवा एग्रीमेंट के अंतर्गत ले जाया गया। इन मजदूरों को कृषि, खाद्यानों, सड़क और रेल निर्माण कार्यों में लगाया गया। भारत से अधिकांश अनुबंधित श्रमिक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य भारत और तमिलनाडु से ले जाए गए। भारत से श्रमिक मुख्यतः कैरीबियाई द्वीप समूह में स्थित त्रिनिदाद गुयाना, और सूरीनाम ले जाए गए। बहुतेरे जमैका, मॉरीशस एवं फिजी भी ले जाए गए। हालाकि ब्रिटिश सरकार ने 1921 में गिरिमिटिया श्रमिकों की व्यवस्था समाप्त कर दी। इस प्रथा के समाप्त होने के बाद भी दशकों तक अनुबंधित मजदूरों के वंशज कैरीबियाई द्वीप समूह में कष्टदायक और अपमानपूर्ण जीवन व्यतीत करने को विवश किए गए। गिरमिटिया मजदूर सुखी-संपन्न जीवन की उम्मीद में अपना घर द्वार छोड़कर काम करने जाते थे लेकिन कार्य स्थल पर पहुँचकर उनका स्वप्न भंग हो जाता था। बागानों अथवा अन्य कार्यस्थलों पर उनका जीवन कष्टदायक था। उन्हें एक प्रकार की दासता की जंजीरों में जकड़ दिया गया था। इस स्थिति से ऊबकर अनेक मजदूर काम छोड़कर भागने का प्रयास करते थे परंतु मालिक के चंगुल से बच निकलना आसान नहीं था। पकड़े जाने पर उन्हें कठोर दंड दिया जाता था।
इस स्थिति स रहते हुए आप्रवासी भारतीयों ने जीवन की राह ढूँढी जिससे वे सहजता से नए परिवेश में खप सकें। इसके लिए उन लोगों ने अपनी मूल संस्कृति के तत्वों तथा नए स्थान के सांस्कृतिक तत्वों का सम्मिश्रण कर एक नई संस्कृति का विकास कर लिया। इसके द्वारा उन लोगों ने अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक पहचान बनाए रखने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए त्रिनिदाद में गिरमिटिया श्रमिकों ने वार्षिक मुहर्रम के जुलूस को एक भव्य उत्सव और मेले के रूप में परिवर्तित कर दिया। इस मेले का नाम उन लोगों ने होसे मेला रखा। यह मेला सांप्रदायिक एकता और सद्भावना का प्रतीक बन गया। इसमें त्रिनिदाद में रहने वाले सभी धर्मों और नस्लों के श्रमिक भाग लेते थे। इसी प्रकार त्रिनिदाद और गुयाना में विख्यात 'चटनी म्यूजिक' में भी स्थानीय और भारतीय संगीत के तत्वों का मिश्रण कर आप्रवासी भारतीयों ने इसे बनाया। इस प्रकार आप्रवासी भारतीयों ने करीबियाई द्वीप समूह के सांस्कृतिक तत्वों को अपनी विशिष्ट पहचान बनाए के रखते हुए भी आत्मसात करने का प्रयास किया।
3. प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामों की विवेचना करें। 
उत्तर- प्रथम विश्वयुद्ध के निम्न परिणाम हुए थे-
(i) सामान्यों का विघटन- प्रथम विश्वयुद्ध ने जर्मनी आस्ट्रिया, तुर्की तथा रूस के साम्राज्यों को ध्वस्त कर नए-नए राष्ट्रों की स्थापना की।
(ii) राजतंत्रीय सरकारों का पतन- प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप यूरोप महाद्वीप के देशों तक अन्य देशों में कार्यरत एकतंत्रीय व राजतंत्रात्मक सरकारों का पतन होने लगा। 
(iii) अमेरिका का उत्कर्ष- प्रथम महायुद्ध के परिणामस्वरूप संयुक्त राज्य अमेरिका की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि हुई।
(iv) उत्पादन क्षमता में ह्यस- युद्ध में सभी देशों ने अपनी पूरी शक्ति, समय, धन व ध्यान लगा दिया। जिसके कारण उद्योग, व्यापार, कृषि व वाणिज्य का विकास अवरूद्ध हो गया। इस प्रकार उत्पादन क्षमता का ह्रास हो जाने से उन्हें जनता की आवश्यकता की वस्तुओं का आयात करना पड़ा। 2
(v) जन-हानि- प्रथम विश्वयुद्ध में धन-जन की भीषण हानि हुई। इस युद्ध में 80 लाख सैनिक मारे गए तथा 1 करोड़ 9 लाख व्यक्ति घायल हुए। इसके अतिरिक्त 70 लाख लापता हो गए। बड़ी संख्या में नागरिकों की भी मृत्यु हुयी। युद्ध के बाद अनेक देशों में महामारी फैल गई। जिसमें लगभग कई हजार लोगों की मृत्यु हुई।
4. बृहत उत्पादून व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? इसका क्या परिणाम हुआ? 
उत्तर-बहुत बड़ी मात्रा में मानकीकृत उत्पादों को निर्माण विशालोत्पादन कहलाता है। इसे 'बृहत् उत्पादन' और 'पुंज उत्पादन भी कहते हैं। 1920 के दशक भी अमेरिका की बड़ी खासियत थी। बृहत उत्पादन का चलन।
बृहत उत्पादन व्यवस्था से निम्न लाभ हुए :-
(i) इंजीनियरिंग उद्योग पर आधृत सामानों की लागत और कीमत में कमी आई। 
(ii) मजदूरों का वेतन बढ़ने से उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आया।
(iii) आर्थिक स्थिति में सुधार होने से उपभोक्ता वस्तुओं की माँग साधारण वर्ग में भी बढ़ गई। 1919 में अमेरिका में 20 लाख कार (मोटरगाड़ी) प्रतिवर्ष बनाए जाते थे परंतु 1929 तक यह संख्या बढ़कर 50 लाख हो गई।
(iv) उपभोक्ता वस्तुओं, जैसे रेडियो, ग्रामोफोन, प्लेयर्स, रेफ्रीजरेटर, कपड़ा धोने की मशीन इत्यादि सामानों का उत्पादन होने लगा। इनकी माँग बढ़ती गई।
(v) उत्पादकों ने अपना सामान बेचने के लिए किस्त की व्यवस्था की। इससे उपभोक्ताओं को अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ आसानी से खरीदने की सुविधा मिली। 
(vi) 1920 के दशक में अमेरिका में भवन-निर्माण के क्षेत्र में भी तेजी आई। इसे पूँजी निवेश का मार्ग प्रशस्त हुआ।
5. आर्थिक महामंदी के कारणों की व्याख्या करें भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर-1929 ईकी आर्थिक महामंदी के निम्नलिखित कारण थे-
(i) बुनियादी कारण-1929 के आर्थिक संकट का बुनियादी कारण स्वयं इस अर्थव्यवस्था के स्वरूप में ही समाहित था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ तो दूसरी तरफ अधिकांश जनता गरीबी और अभाव में पिसती रही। नवीन तकनीकी प्रगति के कारण उत्पादन में तो भारी वृद्धि हुई लेनिन उत्पादित वस्तुओं के खरीदार बहुत कम थे। 
(ii) कृषि उत्पादन एवं खाद्यानों के मूल में कमी- बढ़े हुए कृषि उत्पाद के खरीदार नहीं मिलने के कारण कृषि उत्पादों की कीमतें काफी गिर गयी जिससे किसानों की आय घट गयी। प्रमुख अर्थशास्त्री काडलिफ ने अपनी पुस्तक "दि कॉमर्स ऑफ नेशन" में लिखा कि विश्व के सभी भागों में कृषि उत्पादन एवं खाद्यानों के मूल की विकृति 1929-32 के आर्थिक संकटों के 6 प्रमुख कारण थे।
(iii) यूरोपीय देशों के बीच संक्ट-प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यूरोप के बहुत सारे देशों में अपनी तबाह हो चुकी अर्थव्यवस्था को नए सिरे से विकसित करने के लिए अमेरिका से कर्ज लिया। अमेरिकी पूँजीपतियों ने कर्ज तो दिए लेकिन जब अमेरिका में घरेलु संकट के संकेत मिले तो वे कर्ज वापस माँगने लगे। इस परिस्थिति से यूरोपीय देशों के बीच गंभीर आर्थिक संकट खड़ा हो गया। परिणामस्वरूप यूरोप के कई बैंक डूब गये तथा कई देशों के मुद्रा मुल्य गिर गया। 
(iv) सट्टेबाजी की प्रवृत्ति- इन उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त अमेरिकी बाजारों में शुरू अमेरिका की आर्थिक समृद्धि में वृद्धि के परिणामस्वरूप वहाँ के पूंजीपति अतिरिक्त पूँजी को सट्टा लगाने की ओर आकर्षित हुए। शुरू में तो काफी लाभ हुआ बाद में संकट उभरकर सामने आ गया।
भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव- आर्थिक मंदी का प्रभाव विश्वव्यापी था। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। भारत पर आर्थिक मंदी के निम्नलिखित प्रभाव पड़े
(i) व्यापार में गिरावट–महामंदी के पूर्व वैश्विक अर्थव्यवस्था में आयातक और निर्यातक के रूप में भारत की महत्वपूर्ण भागीदारी थी। महामंदी का प्रभाव इस आयात-निर्यात व्यापार पर पड़ा। यह काफी घट गया। 1928-34 के मध्य आयात-निर्यात घटकर आधा रह गया। 
(ii) कृषि उत्पादों के मूल्य में कमी—विश्व बाजार में कृषि उत्पादों के मूल्य में कमी आने में के पश्चात भारतीय कृषि उत्पादों के मूल्य में भी गिरावट आई। 1928-1934 के मध्य गेहूँ की कीमत में 50 प्रतिशत की कमी आई।
(iii) किसानों की दयनीय स्थिति- महामंदी का सबसे बुरा प्रभाव किसानों पर पड़ा। मूल्य में कमी आने तथा बिक्री कम हो जाने से उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय बन गई। वे लगान चुकाने में असमर्थ हो गए लेकिन सरकार ने न तो लगान की राशि घटाई और न ही लगान माफ की। जिससे किसानों में असंतोष की भावना बढ़ी। इसी आर्थि संकट के कारण महात्मा गांधी ने भारत में व्यापक सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ किया।
6.ब्रेटन वुड्स समझौता की व्याख्या करो 
उत्तर-दो महायुद्धों के बीच आर्थिक अनुभवों से सीख लेकर अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं ने आर्थिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने के लिए दो उपाय सुझाव ये थे -(i) आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए आवश्यक सरकारी हस्तक्षेप तथा (ii) अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों को सुनिश्चित करने में सरकार की भूमिका। इसे कार्यान्वित करने की प्रक्रिया पर विचार-विमर्श करने के लिए जुलाई 1944 में अमेरिका के न्यू हैम्पशायर में बब्रैन वुड्स नामक स्थान पर एक सम्मेलन आयोजित किया गया। विचार-विमर्श करने के बाद दो संस्थाओं का गठन किया गया। इनमें पहला अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) था और दूसरा अंतराष्ट्रीय पुनर्निमाण एवं विकास बैंक अथवा विश्व बैंक (World Bank)। इन दोनों संस्थानों को 'ब्रेटन वुड्स ट्विन' या 'ब्रेटनवुड्स की जुड़वाँ संतान' कहा गया। आई. एम. एफ. ने अंतराष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था और राष्ट्रीय मुद्राओं तथा मौद्रिक व्यवस्थाओं को जोड़ने की व्यवस्था की। इसमें राष्ट्रीय मुद्राओं के विनिमय की दर अमेरिकी मुद्रा 'डॉलर' के मूल्य पर निर्धारित की गयी। डॉलर का मूल्य भी सोने के मूल्य से जुड़ा हुआ था। विश्व बैंक चने विकसित देशों को पुनर्निर्माण के लिए कर्ज के रूप में पूँजी उपलब्ध कराने की व्यवस्था की। इसी आधार पर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को नियमित करने का प्रयास किया गया। ब्रेटनवुड्स संस्थानों ने औपचारिक रूप से 1947 से काम करना आरंभ कर दिया। इन संस्थानों के निर्णयों पर पश्चिमी औद्योगिक देशों का नियंत्रण स्थापित किया गया। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका को अई. एम. एफ. और विश्व बैंक के किसी भी निर्णय पर निषेधाधिकार (वीटो) प्रदान किया गया।
7. विश्व बाजार की क्या उपयोगिता है। इससे क्या हानियाँ हुई है? 
उत्तर- आर्थिक गतिविधियों के कार्यान्वयन में विश्व बाजार की महत्वपूर्ण उपयोगिता है। विश्व बाजार व्यापारियों, पूंजीपतियों, किसानों, श्रमिकों मध्यम वर्ग तथा सामान्य उपभोक्ता वर्ग के हितों की सुरक्षा करता है। विश्व बाजार का विकास होने से किसान अपने उत्पाद दूर-दूर के स्थानों और देशों में व्यापारियों के माध्यम से बेचकर अधिक धन प्राप्त करते हैं कुशल श्रमिकों को विश्वस्तर पर पहचान और आर्थिक लाभ इसी बाजार से मिलता है। वैश्विक बाजार में नए रोजगार के अवसर उपलब्ध होते हैं। साथ ही, विश्व बाजार के माध्यम से आधुनिक विचारों और चेतना का भी प्रसार होता है।
विश्व बाजार से हानियां- विश्व बाजार से जहाँ अनेक लाभ हुए वहीं इसके अनेक नुकसानदेह परिणाम भी हुए। विश्व बाजार ने यूरोप में संपन्नता ला दी लेकिन इसके साथ-साथ एशिया और अफ्रीका में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का नया युग आरंभ हुआ। औपनिवेशिक शक्तियों ने उपनिवेशों का आर्थिक शोषण बढ़ा दिया। भारत भी उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद का शिकार बना। सरकार ने ऐसी नीति बनाई जिससे यहाँ के कुटीर उद्योग नष्ट हो गए। भारत से कच्चा माल का निर्यात कर इंगलैंड के उद्योगों को बढ़ावा दिया गया। 1800 से 1872 के बीच भारत से कपास का निर्यात 5 प्रतिशत से बढ़कर 35 प्रतिशत हो गया। इसके विपरीत भारत से निर्यातक सूती वस्त्र की मात्रा 30 प्रतिशत से घटकर 1815 में 15 प्रतिशत और 1870 में मात्र 3 प्रतिशत तक रह गया।
वैश्विक बाजार का एक दुष्परिणाम यह हुआ कि औपनिवेसिक देशों में रोजगार छिनने और खाद्यान के उत्पादन में कमी आने से गरीबी, अकाल और भुखमरी बढ़ गयी। विश्व बाजार के विकास से यूरोपीय राष्ट्रों में साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी। इससे उग्र राष्ट्रवादी भावना का विकास हुआ। उग्र राष्ट्रवाद ने प्रथम विश्वयुद्ध को आरंभ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  
8. 1950 के दशक के बाद अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों की विवेचना करें। 
उत्तर-1950 के दशक के बाद अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों की व्याख्या विभिन्न दृष्टिकोण के आधार पर की जा सकती है।
(i) साम्यवादी विकास- 1945 के बाद के विश्व अर्थव्यवस्था और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का क्रमशः साम्यवादी राज्य नियत्रित अर्थव्यवस्था और बाजार तथा मुनाफा आधारित पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ने नियंत्रित किया। दोनों एक-दूसरे के विरोधी और प्रतिस्पर्धी थे। साम्यवादी सोवियत रूस ने अपना प्रभाव पूर्वी यूरोपीय राष्ट्रों जैसे हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया, पोलैंड एवं पूर्वी जर्मनी जैसे राष्ट्रों में बढ़ाने का प्रयास किया। रूस ने भारत सहित नवस्वतंत्र एशियाई देशों को भी अपने प्रभाव में लेने का प्रयास किया।
(ii) पूँजीवादी विकास—पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का हिमायती संयुक्त राज्य अमेरिका था। अमेरिका ने साम्यवादी विचारधारा और अर्थतंत्र के प्रसार को रोकने का प्रयास किया। उसने दक्षिण अफ्रीका तथा मध्य एवं पश्चिम एशिया के तेल संपन्न राष्ट्रों जैसे इराक, इरान, सऊदी अरब, जोर्डन, यमन, सीरिया, लेबनान में जर्बदस्ती अपनी आर्थिक नीतियों को क्रियान्वित किया।
(ii) पश्चिमी यूरोप में आर्थिक विकास एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंध-1945-60 के मध्य पश्चिमी यूरोपीय देशों ब्रिटेन, फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी, स्पेन इत्यादि में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों का विकास हुआ। तथापि विश्व राजनीति और आर्थिक क्षेत्र में इन देशों का महत्व कमजोर पड़, गया। इसका प्रमुख कारण था कि इस अवधि में इनके उपनिवेश स्वतंत्र होते चले गए। इससे इन देशों की आर्थिक विपन्नता बढ़ गयी। इस संकट से उबरने एवं साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए इन राष्ट्रों ने समन्वय और सहयोग के एक नवीन युग की शुरूआत की गई जिसे यूरोप के एकीकरण के रूप में हम जानते हैं। 1957 में यूरोपीय आर्थिक समुदाय, यूरोपीय इकोनॉमिक कम्यूनिटी (ई. ई. सी.) की स्थापना की गई। इन राष्ट्रों के प्रयासों से एक साझा बाजार की स्थापना. की गई।
(iv) एशिया और अफ्रीका के नवस्वतंत्र राष्ट्र-1947 में भारत अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र हुआ। इसका अनुकरण करते हुए अन्य देशों में भी स्वतंत्रता संघर्ष हुए जिसके परिणामस्वरूप अगले दशक में लगभग सभी एशियाई और अफ्रीकी राष्ट्र साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हो गए। इन राष्ट्रों पर सोवियत रूस और अमेरिका अपना प्रभाव स्थापित करने में प्रयासशील हो गए।

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