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Bharati Bhawan Class 10 History Chapter 2 | Long Answer Question | समाजवाद, साम्यवाद और रूस की क्रांति | कक्षा 10वीं भारती भवन इतिहास अध्याय 2 | दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

Bharati Bhawan Class 10 History Chapter 2  Long Answer Question  समाजवाद, साम्यवाद और रूस की क्रांति   कक्षा 10वीं भारती भवन इतिहास अध्याय 2  दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. समाजवाद के उदय और विकास को रेखांकित करें।
उत्तर- समाजवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसने आधुनिक काल में समाज को एक नया रूप प्रदान किया। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप समाज में पूँजीपति वर्गों द्वारा मजदूरों का लगातार शोषण अपने चरमोत्कर्ष पर था। उन्हें इस शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने तथा वर्ग विहीन समाज की स्थापना करने में समाजवादी विचारधारा ने अग्रणी भूमिका अदा की। समाजवाद उत्पादन में मुख्यत: निजी स्वामित्व की जगह सामूहिक स्वामित्व या धन के समान वितरण पर जोर देती है। यह एक शोषण उन्मुक्त समाज की स्थापना चाहता है। अतः समाजवादी व्यवस्था एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसके अन्तर्गत उत्पादन के सभी साधनों, कारखानों तथा विपणन में सरकार का एकाधिकार हो। ऐसी व्यवस्था में उत्पादन निजी लाभ के लिए न होकर सारे समाज के लिए होता है।
समाजवादी विचारधारा की उत्पत्ति 18वीं शताब्दी के प्रबोधन आन्दोलन के दार्शनिकों के लेखों में ढूँढे जा सकते हैं। आरंभिक समाजवादी आदर्शवादी थे, जिनमें सेंट साइमन, चार्ल्स फूरिए लुई ब्लों तथा रॉबर्ट औवेन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। समाजवादी आंदोलन और विचारधारा मुख्यत: दो भागों में विभक्त की जा सकती है—(i) आरंभिक समाजवादी अथवा कार्ल मार्क्स के पहले के समाजवादी (ii) कार्ल मार्क्स के बाद के समाजवादी। आरंभिक समाजवादी आदर्शवादी या "स्वप्नदर्शी" (Utopian) समाजवादी कहे गए। वे उच्च और अव्यावहारिक आदर्श से प्रभावित होकर “वर्ग संघर्ष" की नहीं बल्कि "वर्ग समन्वय" की बात करते थे। दूसरे प्रकार के समाजवादियों में फ्रेडरिक एंगेल्स, कार्ल मार्क्स और उनके बाद के चिंतक जो 'साम्यवादी' कहलाए ने वर्ग समन्वय के स्थान पर "वर्ग संघर्ष" की बात कही। इन लोगों ने समाजवाद की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की जिसे "वैज्ञानिक समाजवाद" कहा जाता है।
19वीं शताब्दी में समाजवादी विचारधारा का तेजी से प्रसार हुआ। फ्रांस में लुई ब्लाँ ने सामाजिक कार्यशालाओं की स्थापना कर पूँजीवाद की बुराइयों को समाप्त करने की बात कही। जर्मनी भी समाजवादी विचारधारा से अपने को अलग नहीं रख सका। रूस में भी समाजवाद ने अपनी जड़ें जमा ली। कार्ल मार्क्स ने आरंभिक समाजवादियों से प्रेरणा लेकर ही नई समाजवादी व्याख्या प्रस्तुत की।
2. साम्यवाद के जनक कौन थे ? समाजवाद और साम्यवाद में अंतर स्पष्ट करें। 
उत्तर- साम्यवाद के जनक फेडरिक एंगेल्स तथा कार्ल मार्क्स थे। समाजवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसने आधुनिक काल में समान को एक नया रूप प्रदान किया। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप समाज में पूँजीपति वर्गों द्वारा मजदूरों का लगातार शोषण अपने चरमोत्कर्ष पर था। उन्हें इस शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने तथा वर्ग विहीन समाज की स्थापना करने में समाजवादी विचारधारा ने अग्रणी भूमिका अदा की। समाजवाद उत्पादन में मुख्यतः निजी स्वामित्व की जगह सामूहिक स्वामित्व या धन के समान वितरण पर जोर देता है। यह एक शोषण उन्मुक्त समाज की स्थापना चाहता है। अतः समाजवादी व्यवस्था एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसके अंतर्गत उत्पादन के सभी साधनों कारखानों तथा विपणन में सरकार का एकाधिकार हो। ऐसी व्यवस्था में उत्पादन निजी लाभ के लिए न होकर सारे समाज के लिए होता है। आरंभिक समाजवादियों में सेंट साइमन, चार्ल्स फूरिए, लुई ब्लां तथा रॉबर्ट ओवेन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आरंभिक समाजवादी आदर्शवादी या स्वप्नदर्शी थे। वे उच्च और अव्यवहारिक आदर्श से प्रभावित होकर 'वर्ग संघर्ष' की नहीं बल्कि 'वर्ग समन्वय की बात करते थे।
दूसरे प्रकार के समाजवादियों में फ्रेडरिक एंगेल्स, कार्ल मार्क्स और उनके बाद के चिंतक साम्यवादी कहलाए जो वर्ग समन्वय के स्थान पर "वर्ग संघर्ष" की बात की। इन लोगों ने समाजवाद की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की जिसे "वैज्ञानिक समाजवाद" कहा जाता है। मार्क्स और एंगेल्स ने मिलकर 1848 में कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो अथवा साम्यवादी घोषणापत्र प्रकाशित किया। मार्क्स ने पूंजीवाद की घोर भर्त्सना की ओर श्रमिकों ने हक की बात उठाई। मजदूरों को अपने हक के लिए लड़ने को उसने उत्प्रेरित किया। मार्क्स ने अपनी विख्यात पुस्तक दास कैपिटल का प्रकाशन 1867 में किया जिले "समाजवादियों का बाइबिल" कहा जाता है। मार्क्सवादी दर्शन साम्यवाद के नाम से विख्यात हुआ। मार्क्स का मानना था कि मानव 'इतिहास वर्ग संघर्ष' का इतिहास है। इतिहास उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण के लिए दो वर्गों में चल रहे निरंतर संघर्ष की कहानी है।
3. 1917 की रूसी क्रांति के प्रमुख कारणों का उल्लेख करें।
उत्तर- बीसवीं शताब्दी के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना रूस की क्रांति थी। इस क्रांति ने रूस के सम्राट जार के एकतंत्रीय निरंकुश शासन का अंत कर मात्र लोकतंत्र की स्थापना का ही प्रयत्न नहीं किया अपितु सामाजिक आर्थिक और व्यवसायिक क्षेत्रों में कुलीनों पूँजीपतियों और जमींदारों की शक्ति का अंत किया तथा मजदूरों और किसानों की सत्ता को स्थापित किया। इस क्रांति के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
(i) जार की निरंकुशता एवं अयोग्य शासन:-1917 से पूर्व रूस में रोमनोव राजवंश का शासन था। इस समय रूस के सम्राट की जार कहा जाता था। जार निकोलस-II जिसके शासनकाल में क्रांति हुई राजा के दैवी अधिकारों में विश्वास रखता था। उसे प्रजा के सुख:-दुख के प्रति कोई चिन्ता नहीं थी। जार ने जो अफसरशाही बनायी थी वह अस्थिर जड़ और अकुशल थी। 
(ii) कृषकों की दयनीय स्थिति-रूस में जनसंख्या का बहुसंख्यक भाग कृषक ही थे, परन्तु उनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। 1861 ई. में जार एलेक्जेंडर द्वितीय के द्वारा कृषि दासता समाप्त कर दी गई थी, परन्तु इससे किसानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ था। खेत छोटे थे जिनपर वे पुराने ढंग से खेती करते थे। पूँजी का अभाव तथा करों के बोझ के कारण किसानों के पास क्रान्ति के सिवाय कोई विकल्प नहीं था।
(iii) औद्योगीकरण की समस्या- रूसी औद्योगीकरण पश्चिमी पूँजीवादी औद्योगीकरण से भिन्न था। यहाँ कुछ ही क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उद्योगों का संकेद्रण था। यहाँ राष्ट्रीय पूँजी का अभाव था। अत: उद्योगों के विकास के लिए विदेशी पूँजी पर निर्भरता बढ़ गई थी। विदेशी पूँजीपति आर्थिक शोषण को बढ़ावा दे रहे थे। अत: चारो ओर असंतोष व्याप्त था।
(iv) रूसीकरण की नीति- सोवियत रूस विभिन्न राष्ट्रीयताओं का देश था। यहाँ मुख्य रूप से स्लाव जाति के लोग रहते थे। इनके अतिरिक्त किन पोल, जर्मन, यहूदी आदि अन्य जातियों के भी लोग थे। रूस का अल्पसंख्यक समूह जार निकोलस-II द्वारा जारी की गई समीकरण की नीति से परेशान था। इसके अनुसार जार ने देश के सभी लोगों पर रूसी भाषा, शिक्षा और संस्कृति लादने का प्रयास किया। 1863 में इस नीति के विरुद्ध पोले ने विद्रोह किया जिसे निर्दयतापूर्वक लेकिन रूसी राजतंत्र के विरुद्ध उनका आक्रोश बढ़ता गया।
(v) विदेशी घटनाओं का प्रभाव- रूस की क्रांति में विदेशी घटनाओं की भूमिका भी अत्यंत |. महत्वपूर्ण थी। सर्वप्रथम क्रीमिया के युद्ध 1854-56 में रूस की पराजय ने उस देश में सुधारों का युग आरम्भ किया। तत्पश्चात 1904-05 के रूस-जापान युद्ध ने रूस में पहली क्रांति को जन्म दिया और अंततः प्रथम विश्वयुद्ध में रूस की पराजय ने बोल्शेविक क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। 
(vi) बौद्धिक कारण- 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रूस में बौद्धिक जागरण हुआ जिसने लोगों को निरंकुश राजतंत्र के विरूद्ध बगावत करने की प्रेरणा दी। अनेक विख्यात लेखकों एवं बुद्धिजीवियों लियो टॉल्सटाय, तुर्गनेव फ्योदोर दोस्तोवस्की, मैक्सिम गार्की ने अपनी रचनाओं द्वारा सामाजिक अन्याय एवं भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था का विरोध कर एक नए प्रगतिशील समान के निर्माण का आह्वान किया। रूसी लोग विशेषतः किसान और मजदूर कार्ल मार्क्स के दर्शन सभी गहरे रूप से प्रभावित हुए। साम्यवादी घोषणा-पत्र और दास कैपिटल द्वारा मार्क्स ने सामाजिक विचारधारा और वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। मार्क्स के विचारों से श्रमिक वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हुआ और वे शोषण और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने को तत्पर हो गए।
4. बोल्शेविक क्रांति का रूस एवं विश्व पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर-1917 की क्रांति के दूरगामी और व्यापक प्रभाव पड़े। इसका प्रभाव न सिर्फ रूस पर बल्कि विश्व के अन्य देशों पर भी पड़ा। इस क्रांति के रूस पर निम्नलिखित प्रभाव हुए
(i) स्वेच्छाचारी जारशाही का अंत-1917 की बोल्शेविक क्रांति के परिणामस्वरूप अत्याचारी एवं निरंकुश राजतंत्र की समाप्ति हो गई। रोमनोव वंश के शासन की समाप्ति हुई तथा रूस में जनतंत्र की स्थापना की गई।
(ii) सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद की स्थापना-बोल्शेविक क्रांति ने पहली बार शोषित सर्वहारा वर्ग को सत्ता और अधिकार प्रदान किया। नई व्यवस्था के अनुसार भूमिका स्वामित्व किसानों को दिया गया। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व समाप्त कर दिया गया। मजदूरों को मतदान का अधिकार दिया गया। इस प्रकार रूस में सर्वहारा वर्ग को सबसे प्रमुख स्थान दिया गया।
(iii) नई प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना- क्रांति के बाद रूस में एक नई प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की गई। यह व्यवस्था साम्यवादी विचारधारा के अनुकूल थी। प्रशासन का उद्देश्य कृषकों एवं मजदूरों के हितों की सुरक्षा करना एवं उनकी प्रगति के लिए कार्य करना था। रूस में पहली बार साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई।
(iv) नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था-क्रांति के बाद रूस में नई सामाजिक आर्थिक व्यवस्था की स्थापना हुई। सामाजिक असमानता समाप्त कर दी गई। वर्ग विहीन समाज का निर्माण कर रूसी समाज का परंपरागत स्वरूप बदल दिया गया। 
क्रांति का विश्व पर प्रभाव- विश्व के दूसरे देशों पर भी प्रभाव पड़ा। ये प्रभाव निम्नलिखित थे
(i) पूँजीवादी राष्ट्रों में आर्थिक सुधार के प्रयास- विश्व के जिन देशों में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था थी वे भी यह महसूस करने लगे कि बिना सामाजिक आर्थिक समानता के राजनीतिक समानता अपर्याप्त है।
(ii) साम्यवादी सरकारों की स्थापना- रूस के ही समान विश्व के अन्य देशों चीन, वियतनाम इत्यादि में भी बाद में साम्यवादी सरकारों की स्थापना हुई। साम्यवादी विचारधारा के प्रसार और प्रभाव को देखते हुए राष्ट्रसंघ ने भी मजदूरों की दशा में सुधार लाने के प्रयास किए। में इस उद्देश्य से अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ की स्थापना की गई।
(iii) साम्राज्यवाद के पतन की प्रक्रिया तीव्र- बोल्शेविक क्रांति ने साम्राज्यवाद को पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। रूस ने सभी राष्ट्रों में विदेशी शासन के विरुद्ध चलाए जा रहे स्वतंत्रता आंदोलन को अपना समर्थन दिया। एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशों से स्वतंत्रता के लिए प्रयास तेज कर दिए गए।
(iv) नया शक्ति संतुलन- रूस के नवनिर्माण के बाद रूस साम्यवादी सरकारों का अगुआ बन गया। दूसरी ओर अमेरिका पूँजीवादी राष्ट्रों का नेता बन गया। इससे विश्व दो शक्ति-खंडों में विभक्त हो गया। यूरोप भी वैचारिक आधार पर दो भागों में विभक्त हो गया पूर्वी एवं पश्चिमी यूरोप। धर्म सुधार आंदोलन के पश्चात और साम्यवादी क्रांति से पहले यूरोप में वैचारिक आधार पर इस तरह का वैचारिक विभाजन नहीं देखा गया था।" इसने आगे चलकर दोनों खेमों में सशस्त्रीकरण की होड़ एवं शीतयुद्ध को जन्म दिया।
5. लेनिन के जीवन एवं उपलब्धियों की समीक्षा करें।
उत्तर- बोल्शेविक क्रांति का प्रणता लेनिन था। उसका पूरा नाम ब्लादिमीर इलिच अलयानोव था। उसका जन्म 10 अप्रैल 1890 को वोल्गा नदी के किनारे स्थित सिमब्रस्क नामक गाँव में हुआ. था। विद्यार्थी जीवन से ही वह मार्क्सवाद से प्रभावित होकर इसका कट्टर समर्थक बन गया। उसने स्वयं भी मार्क्सवादी विचारधारा का प्रचार किया। वह रूस की तत्कालीन स्थिति से क्षुब्ध था और प्रचलित व्यवस्था की समाप्ति चाहता था। इसलिए उसने सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। बाद में वह बोल्शेविक दल का नेता बन गया। 1905 की रूसी क्रान्ति में उसने सक्रियता से भाग लिया, परंतु क्रांति के विफल हो जाने के पश्चात् वह स्विट्जरलैंड में निर्वासित जीवन व्यतीत करता रहा। 1917 की मार्च क्रांति के बाद वह रूस वापस पहुँचा। उसने बोल्शेविक दल का नेतृत्व ग्रहण किया। ट्रॉटस्की के सहयोग से उसने करेन्सकी की सरकार का तख्ता पलट दिया। लेनिन नई बोल्शेविक सरकार का अध्यक्ष बन गया। शासन संभालते ही उसने अपने उद्देश्य और कार्यक्रम निश्चित किए। उसका उद्देश्य रूस का नवनिर्माण करना था।
लेनिन की उपलब्धियाँ-लेनिन के सत्ता संभालते ही उसके समक्ष अनेक समस्याएँ थीं जिनका निराकरण करना उसकी प्रथमिकता थी। प्रथम विश्वयुद्ध का प्रतिकूल प्रभाव रूस पर पड़ रहा था। क्रांति के दौरान प्रशासनिक आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति बिगड़ चुकी थी। लेनिन ने सत्ता संभालते ही इन समस्याओं पर ध्यान दिया।
* सर्वप्रथम लेनिन ने जर्मनी के साथ युद्ध बंद कर दिया। 1918 में रूस ने जर्मनी के साथ ब्रेस्टलिटोवस्क की संधि कर ली, यद्यपि इस संधि में रूस का एक बड़ा भू-भाग खोना पड़ा।
* रूस की आंतरिक व्यवस्था एवं षड्यंत्रकारी गतिविधियों को देखकर तथा समाजवाद के बढ़ते प्रभाव से चिंतित होकर ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका ने प्रतिक्रांतिकारियों की सहायता के लिए रूस में अपने सैनिक भेज दिए। इससे गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। लेनिन ने चेवा नामक गुप्त हैलिस दस्ता का गठन कर तथा ट्राटस्की ने लाल सेना का गठन कर विदेशी सेना को रूस से बाहर खदेड़ दिया तथा आंतरिक विद्रोहियों का दमन कर दिया।
* बोल्शेविक सरकार ने नई आर्थिक नीति की व्यवस्था की। राष्ट्र की सारी संपनि तथा उत्पादन और वितरण के साधनों पर सरकारी आधिपत्य स्थापित किया गया। जमीन पर से व्यक्तिगत स्वामित्व हदगा दिया गया। जमीन किसानों में बाँट दी गई। कल-कारखानों, रेलवे, बैंक, खान, जंगल का राष्ट्रीयकरण किया गया। चर्च की संपत्ति का भी सरकार ने अधिग्रहण कर लिया।
* लेनिन ने 1921 में एक नई आर्थिक नीति (NEP) लागू की। इसके अनुसार सीमित रूप से किसानों और पूँजीपतियों को व्यक्तिगत संपत्ति रखने की अनुमति दी गई। यह नीत्ति कारगर हुई खेती की पैदावार बड़ी तथा उद्योग-धन्धों में भी उत्पादन बढ़ा। इससे रूस समृद्धि के मार्ग पर आगे बढ़ा।

आंतरिक सुधारों के अतिरिक्त लेनिन ने बाह्य समस्याओं को और भी ध्यान दिया एवं महत्वपूर्ण निर्णय लिए। इस प्रकार लेनिन ने रूस की कायापलट कर दी। रूस अब प्रगति के मार्ग पर तेजी से बढ़ा।

6. यूरोपियन समाजवादियों के विचारों का वर्णन करें। 
उत्तर- यूरोपियन समाजवादी आदर्शवादी थे, उनके कार्यक्रम की प्रवृत्ति अव्यवहारिक थी। इन्हें 'स्वप्नदर्शी समाजवादी' कहा गया क्योंकि उनके लिए समाजवाद एक सिद्धांत मात्र था। अधिकतर यूरोपियन विचारक फ्रांसीसी थे जो क्रांति के बदले शांतिपूर्ण परिवर्तन में विश्वास रखते थे अर्थात वे वर्ग संघर्ष के बदले वर्ग समन्वय के हिमायती थे। फ्रांसीसी विचारक सेंट साइमन जो प्रथम यूरोपियन समाजवादी था मानना था कि राज्य और समाज का पुनर्गठन इस प्रकार होना चाहिए जिससे शोषण की प्रक्रिया समाप्त हो तथा समाज के गरीब तबकों की स्थिति में सुधार लाया जा सको उसने घोषित किया प्रत्येक को उसकी क्षमता के अनुसार तथा प्रत्येक को उसके कार्य के अनुसाररा एक अन्य महत्वपूर्ण यूटोपियन विचारक चार्ल्स फूरिए था। वह आधुनिक औद्योगिकवाद का विरोधी था तथा उसका मानना था कि श्रमिकों को छोटे नगर अथवा कस्बों में काम करना चाहिए। इससे पूँजीपति उनका शोषण नहीं कर पाएंगे। फ्रांसीसी यूरोपियन चिंतकों में एक लुई ब्लाँ भी था जिसका मानना था कि आर्थिक सुधारों को प्रभावकारी बनाने के लिए पहल: राजनीतिक सुधार आवश्यक है।
फ्रांस से बाहर सबसे महत्वपूर्ण यूरोपियन चिंतक ब्रिटिश उद्योगपति राबर्ट ओवेन था। उसने स्काटलैण्ड के न्यू लूनार्क नामक स्थान पर एक फैक्ट्री की स्थापना की थी। इस फैक्ट्री में उसने श्रमिकों को अच्छी वैज्ञानिक सुविधाएँ प्रदान की और फिर उसने ऐसा महसूस किया कि मुनाफा कम होने के बजाए और भी बढ़ गया है। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि संतुष्ट श्रमिक ही वास्तविक श्रमिक हैं।
यद्यपि आरंभिक समाजवादी अपने आदर्शों में सफल नहीं हो सके, लेकिन इन लोगों ने हो पहली बार पूँजी और श्रम के बीच संबंध निर्धारित करने का प्रयास किया।
7. 1917 की रूस की क्रांति का संक्षिप्त विवरण दें। 
उत्तर-रूस की क्रांति के कारण
(i) निरंकुश शासन- क्रांति का एक महत्त्वपूर्ण कारण जारशाही की निरंकुशता था। रूस का जार निकोलस द्वितीय एक निरंकुश शासक था और हमेशा विरोधियों को कठोर-से-कठोर - दंड दिया करता था। लोगों को भाषण, लेखन, विचार-अभिव्यक्ति तथा धार्मिक स्वतंत्रता नहीं थी। समाचारपत्रों, विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों पर कठोर नियंत्रण था। पुलिस को विशेषाधिकार प्राप्त था तथा संपूर्ण रूस में जाससों का जाल बिछा हुआ था। ऐसी दमनकारी व्यवस्था के कारण जार का निरंकुश शासन असहनीय हो गया था।
जार की पत्नी घोर प्रतिक्रियावादी औरत थी और रासपुटिन नामक एक भ्रष्ट पादरी के चंगुल में फंस गई थी। उस समय रासपुटिन की इच्छा ही कानून थी। वह नियुक्तियों, पदोन्नतियों तथा शासन के अन्य कार्यों में हस्तक्षेप करता था। इस अत्याचार से प्रजा का विरोध और असंतोष बढ़ता जा रहा था।
(ii) रूस की राजनीतिक मर्यादा को आघात-बीसवीं सदी के प्रारंभ में जार की अदूरदर्शिता के कारण रूस की राजनीतिक मर्यादा को बड़ा आघात पहुँचा। यद्यपि रूसी साम्राज्य . बहुत बड़ा हो गया था, पर इसकी सामरिक शक्ति घट गई थी। इसके परिणामस्वरूप 1904-05 में रूस-जापान युद्ध में रूस की करारी हार हुई। इससे रूस के लोगों में भारी क्षोभ हुआ। इस हार ने रूस की जनता के असंतोष को आर बढ़ा दिया।
(ii) किसानों की दयनीय स्थिति-रूस की कृषि-प्रणाली दोषपूर्ण थी। किसानों को अनेक प्रकार के कर देने होते थे। भूमि की समस्या के कारण रूस में खाद्यान्न संकट उत्पन्न हुआ। खेत छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित था जो कृषि के लिए उपयुक्त नहीं था। कृषि के औजार और तरीके पुराने एवं अवैज्ञानिक थे। सरकार की ओर से खेती को उन्नत बनाने का प्रयास नहीं हो रहा था। उत्पादन में कमी के कारण रूस में दरिद्रता, गरीबी, भूख और बीमारी का राज्य छाया हुआ था।. विदेशी पूँजीपति भी रूस के निवासियों का शोषण कर रहे थे। सरकार लोगों की आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयत्न नहीं कर रही थी। इस कारण चारों ओर असंतोष फैला हुआ था।
(iv) औद्योगिकीकरण एवं मजदूरों की दुरावस्था-रूस में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया 1861 में प्रारंभ हुई। यातायात के साधनों का विकास तथा हजारों मील लंबी रेल की लाइनों का निर्माण हो चका था। लोहा, कोयला, इस्पात इत्यादि उद्योगों का भी विकास हो चुका था। फिर भी उद्योगों की दृष्टि से रूस इंगलैंड, फ्रांस एवं अन्य देशों की अपेक्षा पिछड़ा हुआ था। इसका कारण यह था कि रूस में राष्ट्रीय पूँजी का अभाव था। उद्योगों के विकास के लिए उसे विदेशी पूँजी पर निर्भर रहना पड़ता था और विदेशी पूँजीपति रूस के लोगों का बुरी तरह शोषण कर रहे थे। पूँजीवादी ढंग से औद्योगिक विकास की प्रक्रिया से नई-नई समस्या उत्पन्न हो गई। घरेलू उद्योग-धंधों का विनाश होने लगा जिससे बेरोजगारी बढ़ने लगी। नए-नए कल-कारखानों के क्षेत्र में मजदूरों की हालत अत्यंत दयनीय थी। मजदूरों को.गंदी बस्तियों में रहना पड़ता था। उनके कार्य के घंटे अधिक थे; मजदूरी कम थी; और उनके साथ व्यवहार भी ठीक नहीं किया जाता था। वे अपनी स्थिति से असंतुष्ट थे।
(v) मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव-बीसवीं सदी के पूर्व रूस में मार्क्सवादी विचारधारा का प्रादुर्भाव हो चुका था। रूस के श्रमिकों पर मार्क्सवादी विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा। इसी विचारधारा ने रूस में बोल्शेविक दल को उत्पन्न किया जिसके नेतृत्व में 1917 में रूसी क्राति हुई। 
(v) 1905 की क्रांति का प्रभाव- रूस की जनता जारशाही के अत्याचार एवं पूंजीपतियों के शोषण से तबाह थी। 1904-05 के रूस-जापान युद्ध में रूस की पराजय ने उनके असंतोष को और भी उभार दिया था। पराजय ने असंतोष को विस्फोट का अवसर दिया। पराजय को लोगों ने राष्ट्रीय अपमान समझकर जारशाही के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। जार ने बड़ी निरंकुशता से क्रांति को कुचल दिया। क्राति असफल रही लेकिन लोगों को अपने राजनीतिक अधिकारों का ज्ञान हुआ। वे जनतांत्रिक शासन की स्थापना के लिए उतावले हो गए। इस प्रकार 1905 की क्रांति ने 1917 की क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।
(vi) प्रथम विश्वयुद्ध में पराजय—इस विश्वयुद्ध में रूस भी शामिल हुआ था। इस युद्ध में सम्मिलित होने का जार का एकमात्र उद्देश्य था कि रूसी जनता घर का असंतोष भूलकर बाहरी मामलों में उलझ जाएगी, लेकिन युद्ध क्षेत्र से केवल हार की खबरें आती थीं। इस राष्ट्रीय अपमान से लोग और भी क्रुद्ध हो उठे। इस युद्ध में सैनिकों को पर्याप्त हथियार और सामग्र नहीं मिलने से सेना में भी विद्रोह हो गया।
(vii) पेट्रोग्राद की क्रांति—इस स्थिति में 7 मार्च 1917 को रूस में क्रांति का प्रथम विस्फोट हुआ। उस दिन पेट्रोग्राद में विद्रोहियों ने 'रोटी-रोटी' का नारा लगाते हुए सड़कों पर प्रदर्शन करना शुरू किया तथा मजदूरों ने हड़ताल कर दिया। उन्होंने युद्ध बंद करो; निरंकुश शासन का नाश हो; रोटी दो; इत्यादि के नारे लगाने शुरू किए। जार की सेना ने विद्रोहियों की भीड पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। विवश होकर 15 मार्च 1917 को जार ने गद्दी त्याग दी। ग तरह रूस से रोमानोव वंश की निरंकुश जारशाही कर अंत हो गया।  
8. रूस की क्रांति का रूस एवं विश्व पर क्या प्रभाव पड़ा
उत्तर-रूस की क्रांति का रूस पर प्रभाव
(i) जारशाही का अंत और लोकतंत्र की स्थापना- रूस की क्रांति के पहले यह देश राजतंत्र का गढ़ था। रूस की क्रांति ने जार के निरंकुश शासन का अंत कर दिया। रूस समाजवादी सोवियत गणराज्यों देश बना। रूस ने अपना एक संविधान बनाया। विश्व में सर्वप्रथम रूस में ही साम्यवादी शासन की स्थापना हुई तथा रूस 'सोवियत समाजवादी गणराज्यों का समूह' (Union of Soviet Socialist Republics) में रूपांतरित हो गया।
(ii) सर्वहारा वर्गको अधिकार और सत्ता- इस क्रांति ने सदियों से शोषित सर्वहारा वर्ग को अधिकार और सत्ता दी। रूस के नए संविधान में मजदूरों को वोट देने का अधिकार मिला। देश की सारी संपत्ति को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दिया गया। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार उद्योगों पर मजदूरों का नियंत्रण स्थापित हो गया। 
(iii) नई शासन-प्रणाली-लेनिन की अध्यक्षता में नई शासन-प्रणाली की स्थापना हुई। रूसी क्रान्ति द्वारा साम्यवादी विचारधारा का प्रचार बड़ी तेजी से होने लगा। 
(iv) नए प्रकार की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था-रूसी क्रांति के फलस्वरूप एक नए प्रकार की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का विकास हुआ। नवीन साम्यवादी जीवन-प्रणाली से रूस में एक वर्गहीन समाज की स्थापना हुई। न पूँजीपति रहे और न जमींदार, अब एक ही वर्ग रहा और वह था साम्यवादी नागरिक। आर्थिक समानता के लिए अर्थव्यवस्था के सभी साधन जुटाए गए। 
(v) रूस की शक्ति में वृद्धि-जिन गैर-रूसी राष्ट्रों पर जारशाही ने सत्ता स्थापित की थी | वे सभी क्रांति के बाद गणराज्यों के रूप में सोवियत संघ के अंग बन गए। इस प्रकार रूस एक शक्तिशाली देश बन गया।
विश्व पर प्रभाव-रूसी क्रांति का विश्वव्यापी प्रभाव पड़ा। वे प्रभाव निम्नलिखित थे
(i) किसान और मजदूरों के सम्मान में वृद्धि-रूस में किसानों तथा मजदूरों की सरकार स्थापित होने से विश्व के सभी देशों में किसानों और मजदूरों के सम्मान में वृद्धि हुई। रूसी क्रांति के पश्चात अन्य देशों की सरकारें भी अपने लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान जर आवश्यकताओं को पूरा करना अपना मुख्य कर्तव्य समझने लगीं।
(ii) पूँजीवादी राष्ट्रों में आर्थिक सुधार-विश्व में पूँजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग में निरंतर सघर्ष-सा होने लगा। विश्व के जिन देशों में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था थी वे भी महसूस कसे लगे कि बिना सामाजिक-आर्थिक समानता के राजनीतिक समानता नहीं हो सकती।
(ii) साम्यवादी सरकारों की स्थापना- रूस की देखादेखी विश्व के अन्य देशों-चानक वियतनाम इत्यादि में भी साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई। साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव सेसे राष्ट्रसंघ ने भी मजदूरों की दशा में सुधार लाने के प्रयास किए। इस उद्देश्य से अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संघ की स्थापना हुई जिससे मजदूरों को शोषण से मुक्ति मिली।
(iv) अंतरराष्ट्रवाद को प्रोत्साहन- समाजवादी विचारों के प्रसार से अंतरराष्ट्रवाद कोप्रोत्साहन मिला। सभी राष्ट्रों ने ऐसा महसूस किया कि दूसरे राष्ट्रों के साथ उनके संबंध का आधार मात्र अपना-अपना स्वार्थ ही नहीं होना चाहिए। फलतः, अब अनेक राष्ट्रीय समस्याओं को अंतरराष्ट्रीय समस्याओं का रूप दिया जाने लगा।
(v) साम्राज्यवाद के पतन की प्रक्रिया तीव्र- रूस की बोल्शेविक क्रांति नै साम्राज्यवाद के विनाश की प्रक्रिया तेज कर दी। संपूर्ण विश्व में समाजवादियों ने साम्राज्यवाद के विनाश के लिए अभियान चलाया। रूस ने सभी राष्ट्रों में विदेशी शासन के विरुद्ध चलाए जा रहे स्वतंत्रता आंदोलन को अपना समर्थन दिया।
(vi) नए शक्ति-संतुलन का उदय रूस के नवनिर्माण के बाद रूस साम्यवादी सरकार का अगुआ बन गया। दूसरी ओर, अमेरिका पूँजीवादी राष्ट्रों का नेता बन गया। इससे विश्व दो शक्ति-खंड में विभक्त हो गया। दोनों अपनी-अपनी विचारधारा का प्रसार करने लगे। इसने आगे चलकर शीतयुद्ध (eold war) को जन्म दिया।
9. रूस के नवनिर्माण में लेनिन के महत्त्वपूर्ण योगदान का वर्णन करें। 
उत्तर-बोल्शेविक क्रांति का सबसे बड़ा नेता ब्लादिमीर इवानोविच लेनिन था। उसका जन्म रूस के एक शिक्षित परिवार में 10 अप्रैल 1870 को बोल्गा नदी के किनारे स्थित सिमब्रस्क नामक गाँव में हुआ था। वह आरम्भ से ही विद्रोही प्रवृत्ति का था। उसके बड़े भाई को जार एलेक्जेंडर की हत्या के आरोप में गोली मार दी गई थी, इसलिए लेनिन जारशाही का कट्टर दुश्मन बन गया था। विद्यार्थी जीवन से ही वह मार्क्स के सिद्धांतों का कट्टर समर्थक था। वह रूस की तत्कालीन स्थिति से क्षुब्ध था और प्रचलित व्यवस्था को समाप्त कर देना चाहता था। इसलिए उसने 'सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी' की सदस्यता ग्रहण कर ली तथा बाद में बोल्शेविक दल का नेता बना और 1905 की क्रांति में उसने भाग लिया। क्रांति असफल हो गई और उसे रूस छोड़कर जाना पड़ा। 1917 की क्रांति के समय जर्मनी की सहायता से वह रूस पहुँचा। उसने रूस पहुँचकर बोल्शेविक दल का कार्यक्रम स्पष्ट किया, जो 'अप्रैल थीसिस' के नाम से प्रसिद्ध है। लेनिन ने तीन नारे दिए
भूमि, शांति और रोटी। भूमि किसानों को, शांति सेना को और रोटी मजदूरों को ट्राटस्की के सहयोग । से उसने केरेन्सकी की सरकार का तख्ता पलट दिया। लेनिन नई बोल्शेविक सरकार का अध्यक्ष बन गया। शासन संभालते ही उसने अपने उद्देश्य और कार्यक्रम निश्चित किए। उसका उद्देश्य रूस
करना था। 1924 में अपनी मृत्यु तक वह इसी प्रयास में लगा रहा। 
लेनिन के कार्य- लेनिन ने सत्ता संभालते ही निम्नलिखित कार्य किए
(i) युद्ध की समाप्ति- सत्तासीन होते ही सर्वप्रथम लेनिन ने जर्मनी के साथ युद्ध समाप्त कर दिया। 1918 में रूस ने जर्मनी के साथ 'ब्रेस्टलिटोवस्क की संधि' कर ली। इस संधि को शर्ते कुछ हद तक अपमानजनक थीं। पर, देश के नवनिर्माण के लिए उन्हें स्वीकार करना आवश्यक था। 
(ii) अर्थव्यवस्था- बोल्शेविक सरकार ने नई आर्थिक व्यवस्था लागू की जिसके तहत देश करने की भारी संपत्ति तथा उत्पादन और वितरण के समस्त साधनों पर सरकार का आधिपत्य हो गया। बैंक, खान, रेल, जंगल इत्यादि सभी को सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया गया। जमीन पर से , व्यक्तिगत अधिकार उठा दिया गया और किसानों के बीच भूमि बाँट दी गई। जार द्वारा विदेशियों ने से लिए गए कर्ज को चुकाने से सरकार ने इनकार कर दिया। चर्च की संपत्ति भी सरकार ने अधिग्रहण कर ली।
(iii) नई आर्थिक नीति (NEP)- लेनिन की आर्थिक व्यवस्था का देश की अर्थव्यवस्था पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा। उद्योगों के राष्ट्रीयकरण से उद्योगों पर बुरा प्रभाव पड़ा और उत्पादन घट गया। अतः, लेनिन ने अपनी नीति बदल दी। 1921 में एक नई आर्थिक नीति को अपनाया। को इसके अनुसार सीमित अंश में किसानों तथा पूँजीपतियों को व्यक्तिगत संपत्ति रखने की अनुमति दी गई। इसके फलस्वरूप आर्थिक स्थिति में पर्याप्त सुधार हुआ। खेती की पैदावार बढ़ी तथा के उद्योग-धंधों में भी उत्पादन बढ़ा। इससे रूस समृद्धि के मार्ग पर आगे बढ़ा।
(iv) सामाजिक सुधार- रूस के नवनिर्माण में लेनिन ने कई सामाजिक सुधार किए। पहले लन शिक्षा पर चर्च का अधिकार था, अब चर्च का अधिकार समाप्त कर शिक्षा का राष्ट्रीयकरण किया गया। सरकार ने नि:शुल्क प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था की जिससे गरीब परिवार के बच्चे भी शिक्षा पाने लगे। सभी गैर-सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए एवं साम्यवादी शिक्षा का प्रचार किया गया।
(v) आंतरिक शत्रुओं का दमन- लेनिन की नीतियों से वैसे लोग व्यग्र हो गए जिनकी संपत्ति और अधिकार नई सरकार ने छीन लिया था। अतः, सामंत, पूँजीपति, पादरी तथा नौकरशाह सरकार विरोधी हो गए और नई समाजवादी सरकार को उलटने का षडयंत्र करने लगे। उन्हें विदेशी सहायता भी प्राप्त थी। रूस में एक प्रकार का गृहयुद्ध आरंभ हो गया। फलतः, लेनिन ने उन लोगों के प्रति कठोर नीति अपनाई। क्रांतिविरोधी षडयंत्रकारियों के दमन के लिए 'चेका' (Cheka) नामक विशेष पुलिस दस्ते का गठन किया गया। चेका के 'लाल आतंक' ने षडयंत्रकारियों की कमर तोड़ दी। ट्राटस्की ने 'लाल सेना' का संगठन किया और 1921 तक विदेशियों को रूस से खदेड़ दिया। 
(vi) नया संविधान- 1918 में लेनिन के नेतृत्व में एक संविधान तैयार किया गया। इसके अनुसार रूस को 'रूसी सोशलिस्ट फेडरल सोवियत रिपब्लिक' कहा गया तथा सर्वहारा वर्ग का भधिनायकत्व कायम हुआ। मास्को रूस की नई राजधानी बनी। पुराने झंडे के बदले लाल रंग का संडा राष्ट्रीय झंडा हुआ तथा उस पर हँसुए और हथौड़े को सुशोभित किया गया। तब से लाल ग साम्यवाद का प्रतीक बना।
(vii) प्रशासनिक सुधार– लेनिन ने प्रशासनिक सुधार भी किए पुराने नौकरशाह हटा दिए ए। राज्य के बड़े पदों पर सिर्फ साम्यवादी दल के सदस्यों को रखा गया। इन लोगों ने निष्ठापूर्वक सरकारी नीतियों को कार्यान्वित किया। इसी प्रकार सेना में भी सुधार हुआ। सेना में बोल्शेविक-समर्थकों की भरती की गई तथा सेना का आधुनिकीकरण भी किया गया।
(viii) वैधानिक व्यवस्थाएँ– नए राज्य में प्रतिनिधि सरकार की व्यवस्था की गई। 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी नागरिकों को मतदान का अधिकार मिला। सैनिकों और नाविकों को भी नागरिकता दी गई। ये नागरिक उन्हीं उम्मीदवारों के पक्ष में अपना मतदान कर सकते थे जो. बोल्शेविक पार्टी द्वारा मनोनीत होते थे। इस तरह, विधान द्वारा बोल्शेविक सरकार को दृढ़ता प्रदान की गई।
बाहरी कार्य- लेनिन ने बाह्य समस्याओं पर भी ध्यान दिया
(i) गुप्त संधियों की समाप्ति- लेनिन ने जार अथवा केरेन्सकी सरकार द्वारा विदेशों के साकी गई सभी संधियों को समाप्त कर दिया।
(ii) राष्ट्रीयता का सिद्धांत-लेनिन ने रूस में राष्ट्रीयता का सिद्धांत लागू किया। रूस में निवास करनेवाली पराधीन जातियों को स्वतंत्र कर दिया गया। इसी के फलस्वरूप फिनलैंड, बेटेविया इत्यादि राज्यों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।
(iii) वैदेशिक नीति- लेनिन साम्राज्यवाद का कट्टर विरोधी था। इसलिए उसने वैसे सभी राष्ट्रों को सहायता का आश्वासन दिया जो विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्षरत थे। इसके बावजूद उसने अन्य राष्ट्रों के साथ शांति एवं सहयोग की नीति अपनाई। 1921 में उसने इंगलैंड के साथ एक व्यापारिक संधि की। पूर्वी देशों-चीन, अफगानिस्तान के साथ लेनिन ने सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए।
(iv) कौमिण्टर्न की स्थापना— मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार संसार के सभी मजदूरों को संगठित करने के उद्देश्य से लेनिन ने संरक्षण में 1919 में मास्को में 'थर्ड इंटरनेशनल' लेबर एसोसिएशन की स्थापना की गई। मार्क्सवाद का प्रचार करना एवं विश्व के सभी मजदूरों को संगठित करने के उद्देश्य से विभिन्न देशों के साम्यवादी दलों के प्रतिनिधि मास्को में एकत्रित हुए। सभी देशों की साम्यवादी पार्टियों का एक संघ बनाया गया जो 'कौमिण्टर्न' कहलाया। इसका मुख्य कार्य विश्व में क्रांति का प्रचार करना एवं साम्यवादियों की सहायता करना था। इस कौमिण्टर्न का नेतृत्व रूस का साम्यवादी दल करता था। इंगलैंड ने 1921 में रूस से व्यापारिक संधि कर ली। 1924 तक इटली, जर्मनी तथा इंगलैंड ने रूस की बोल्शेविक सरकार को मान्यता प्रदान कर दी. 
इस प्रकार, लेनिन ने रूस की कायापलट कर दी। रूस अब प्रगति के मार्ग पर तेजी से बढ़ा द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद रूस साम्यवादी गुट का नेता और विश्व क महान शा बन गया। 21 जनवरी 1924 को लेनिन की मृत्यु हो गई।
10. साम्यवाद के जनक कौन थे ? समाजवाद और साम्यवाद में अंतर स्पष्ट करें। 
उत्तर-आधुनिक समाजवाद के जन्मदाता मार्क्स और एंगेल्स थे। ये दोनों जर्मन थे और उन्होंने ही समकालीन साहित्य का अध्ययन कर सर्वप्रथम वैज्ञानिक ढंग से समाजवादी विचारधारा क प्रतिपादन किया। आजकल साम्यवाद निश्चित रूप से समाजवाद का पर्याय बन गया है। इस शब्द का प्रयोग मार्क्स और एंगेल्स ने किया। वैज्ञानिक समाजवाद का सर्वप्रथम उदय जनवरी 1848 में 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' नामक एक पुस्तक के प्रकाशन के साथ हुआ। इसके लेखक कार्ल माक्स और फ्रेडरिक एंगेल्स थे। ये दोनों पहले-पहल 1848 में पेरिस में मिले और तब से उन्होंने विचार और लेखन में सहयोग आरंभ किया, जो चालीस वर्षों तक चला। 1847 में वे कम्युनिस्ट लीग में सम्मिलित हुए। बाद में एंगेल्स मैनचेस्टर चला गया और मार्क्स लंदन में बस गया तथा वहाँ उसने अपना शेष जीवन ब्रिटिश म्युजियम में अध्ययन-कार्य में बिताया। वहीं पर उसने 'दास कैपिटल' की रचना की। इसके प्रथम खंड का प्रकाशन 1867 में हुआ और शेष दो खंडों का प्रकाशन उसकी मृत्यु के पश्चात हुआ। ।
कार्ल मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (dialectical materialism) के सिद्धांत के आधार पर मानव इतिहास में होनेवाले परिवर्तनों एवं घटनाओं के विषय में यह विचार व्यक्त किया कि ये सभी परिवर्तन भौतिक या आर्थिक कारणों से होते हैं। अतः, उसका यह सिद्धांत 'इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या, (Materialistic interpretation) कहलाती है। मार्क्स का पानना था कि मानव इतिहास वर्गसंघर्ष (class struggle) का इतिहास है। इतिहास के तीन चरण हैं-प्राचीन, मध्य और आधुनिक। प्रथम चरण में स्वतंत्र लोगों और गुलामों के बीच, द्वितीय में : मंतों और किसानों के बीच तथा अंतिम चरण में पूँजीपतियों और श्रमिकों के बीच संघर्ष होता है। औद्योगिक समाज पूँजीवादी समाज है। इसमें पूँजीपति अपनी पूँजी के आधार पर मजदूरों द्वारा अर्जित मुनाफा को हड़प लेता है। श्रमिक की स्थिति दयनीय बनी रहती है। पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त किए । बिना श्रमिकों की स्थिति में सुधार नहीं आ सकता है। अत:, मार्क्स ने मजदूरों का आह्वान किया कि वे एकजुट हों, पूँजीवाद और बुर्जुआ वर्ग की सत्ता को समाप्त करें और संपत्ति पर समाज का नियंत्रण स्थापित करें। 
मार्क्सवादी विचारधारा आदर्शवादी विचारधारा से बिलकुल हटकर थी। मार्क्सवादी सिद्धांत का नैतिक सिद्धांत से कोई लगाव न था, जबकि आदर्शवादी समाजवाद का आधार नैतिक सिद्धांत ही था। फिर मार्क्सवाद पूर्णतः वैज्ञानिक था, जो केवल वास्तविक तथ्यों पर आधारित था। इसने यह दर्शाया कि समाजवाद एक आश्चर्यजनक प्रत्यावर्तन नहीं होगा, वरन जो वास्तव में घटित हो रहा है, उसी के जारी रहने की ऐतिहासिक प्रक्रिया होगी। इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के पूर्ण होते ही एक वर्गहीन समाज की स्थापना होगी और अंततः राज्य विलुप्त (wither away) हो जाएगा।

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