प्रश्न 1. ज्ञानेन्द्रियों की प्रकार्यात्मक सीमाओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: मानव ज्ञानेंन्द्रियाँ कुछ सीमा तक कार्य करती हैं। उदाहरण के लिए, हमारी आँखें ऐसी चीजें नहीं देख पाती हैं जो अधिक धुंधली अथवा बहुत युतिमान होती हैं। इसी प्रकार हमारे कान बहुत धीमी अथवा बहुत तीव्र ध्वनि नहीं सुन सकते हैं। यही बात अन्य ज्ञानेंन्द्रियों के विषय में भी लागू होती है। मानव के रूप में हम उद्दीपन के एक सीमित सीमा-प्रसार में कार्य करते हैं। हमारे संवेदन ग्राही के ध्यान में आने के लिए उद्दीपक में दृष्टतम तीव्रता अथवा परिमाण होना चाहिए। उद्दीपक एवं उनकी संवेदनाओं के मध्य संबंधों का अध्ययन जिस विद्याशाखा में किया जाता है, उसे मनोभौतिकी (psychophysics) कहते हैं।
ध्यान में आने के लिए उद्दीपक का एक न्यूनतम मान अथवा वजन होना चाहिए। किसी विशेष संवेदी तंत्र को क्रियाशील करने के लिए जो न्यूनतम मूल्य अपेक्षित होता है उसे निरपेक्ष सीमा अथवा निरपेक्ष देहरी (Absolute threshold or absolute limen, AL) कहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम पानी के एक गिलास में चीनी का एक कण डालें तो हो सकता है कि हमें उस पानी में मिठास का अनुभव न हो । एक कण और मिलाने से भी हो सकता है कि स्वाद मीठा न हो लेकिन यदि हम एक- एक कण डालते जाएँ तो एक बिंदु ऐसा आएगा जब कहना होगा कि पानी अब मीठा हो गया है। चीनी के कणों की वह न्यूनतम संख्या जिससे हम पानी में मिठास का अनुभव करते हैं, उसे मिठास की निरपेक्ष सीमा कहते हैं।
उल्लेखनीय है कि निरपेक्ष सीमा निश्चित बिंदु नहीं होती, बल्कि यह व्यक्तियों की आगिक दशाओं एवं उनकी अभिप्रेरणात्मक स्थितियों के आधार पर विशेष रूप से सभी व्यक्तियों एवं परिस्थितियों में परिवर्तित होती रहती है। इसलिए उसका मूल्यांकन हमें विविध प्रयासों के आधार पर करना चाहिए। 50 प्रतिशत अवसरों पर चीनी के कणों की जिस संख्या से पानी में मिठास का अनुभव हो सकता है वह मिठास की निरपेक्ष सीमा होगी। यदि हम चीनी के और कणों को मिलाएँ तो इसकी संभावना अधिक है कि पानी प्रायः मीठा ही बताया जाएगा न कि सादा।
हमारे लिए जैसे सभी उद्दीपकों को जान पाना संभव नहीं होता वैसे ही समस्त प्रकार के उद्दीपकों के मध्य अंतर कर पाना भी संभव नहीं होता है। यह जानने के लिए कि दो उद्दीपक एक-दूसरे से भिन्न हैं, उन उद्दीपकों के मान में एक न्यूनतम अंतर होना अनिवार्य है। दो उद्दीपकों के मान में न्यूनतम अंतर जो उनकी अलग पहचान के लिए आवश्यक होता है, को भेद सीमा अथवा भेद देहरी ( difference threshold or difference limen, DL) कहते हैं। इसे समझने के लिए हम अपने 'चीनी-पानी' वाले प्रयोग को दोहरा सकते हैं। जैसा कि हमने देखा, चीनी के कुछ कणों को मिला देने के पश्चात् सादा पानी मीठा लगने लगता है। अब हम इस मिठास को याद करें। अगला प्रश्न उत्पन्न होता है कि पानी में चीनी के कितने और कण मिलाने की आवश्यकता होगी, जिससे मिठास के पिछले अनुभव से भिन्न प्राप्त हों ? चीनी का एक-एक कण पानी में डालें और प्रत्येक बार पानी का स्वाद चखें। कुछ कणों को मिलाने के बाद हम अनुभव करेंगे कि अब पानी की मिठास पूर्व मिठास से अधिक है। पानी में मिलाए गए चीनी के कणों की संख्या जिससे मिठास का अनुभव पूर्व में हुए मिठास के विश की तुलना में 50 प्रतिशत अवसरों पर भिन्न हो तो उसे मिठास की भेद देहरी कहेंगे। इस प्रकार उद्दीपक में वह न्यूनतम परिवर्तन जो 50 प्रतिशत प्रयासों में संवेदन भिन्नता कराने में सक्षम है, उसे भेद सीमा कहते हैं।
प्रश्न 2. प्रकाश अनुकूलन एवं तम व्यनुकूलन का क्या अर्थ है? वे कैसे घटित होते हैं?
उत्तर: प्रकाश की विभिन्न तीव्रताओं के साथ समंजन करने की प्रक्रिया को चाक्षुष अनुकूलन' कहते हैं।
• प्रकाश अनुकूलन (Light adaptation) का संबंध मंद प्रकाश के प्रभावन के बाद तीव्र प्रकाश के समायोजन की प्रक्रिया से है, इसमें 1-2 मिनट लगते हैं।
● दूसरी ओर, तम-व्यनुकूलन (Dark adaptation) तीव्र प्रकाश के प्रभावन के बाद मंद प्रकाश वाले वातावरण से समायोजन की प्रक्रिया से संबंधित है। इसमें आधा घंटा अथवा प्रकाश के प्रति आँख के प्रभावन के पूर्व स्तर पर निर्भर होने के कारण उससे भी अधिक समय लग सकता है। इन प्रक्रियाओं को सरल बनाने की कुछ विधियाँ हैं।
उदाहरण:
• प्रकाशित क्षेत्र से एक अंधेरे कमरे में जाइए और देखिए कि वहाँ की सभी चीजों को ठीक से देखने में आपको कितना समय लगता है?
• अगली बार जब आप प्रकाशित स्थान में हों तो लाल धूप का चश्मा पहन लीजिए। उसके बाद किसी हा कमरे में जाइए और देखिए कि चीजों को साफ़-साफ देखने में कितना समय लगता है?
• आप पाएंगे कि लाल धूप के चश्मे के उपयोग से तम-व्यनुकूलन में लगने वाले समय में बहुत अधिक कमी आ गई है।
प्रश्न 3. रंग दृष्टि क्या है?
उत्तर: पर्यावरण के साथ अंतःक्रिया करते समय हम विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का ही नहीं, बल्कि उनके वर्णी (रंगों) का भी अनुभव करते हैं। उल्लेखनीय है कि रंग हमारे संवेदी अनुभवों की एक मनोवैज्ञानिक विशेषता होते हैं। जब हमारा मस्तिष्क बाह्य जगत से प्राप्त सूचनाओं की व्याख्या करता है तब यह विशेषता प्रकट होती है। यह जानना आवश्यक है कि प्रकाश का वर्णन भौतिक रूप से तरंगदैर्घ्य के रूप में किया जाता है, रंग के रूप में नहीं। हम जानते हैं कि दृश्य स्पेक्ट्रम का ऊर्जा-परास 380 780 नैनोमीटर होता है जिसका हमारे प्रकाशग्राही पता लगा सकते हैं। दृश्य स्पेक्ट्रम से कम या अधिक ऊर्जा आँखों के लिए हानिकारक होती है। सूर्य के प्रकाश में इन्द्रधनुष की तरह सात रंगों का मिश्रण होता है। प्रेक्षित रंग वायलेट, इंडिगो, ब्लू, ग्रीन, येलो, ऑरेंज तथा रेड (संक्षेप में VIBGYOR) होते हैं।
प्रश्न 4. श्रवण संवेदना कैसे घटित होता है?
उत्तर: पिन्ना ध्वनि कम्पन को एकत्र करती है तथा उसे श्रवण द्वारा कर्ण पटह तक पहुँचाती है। 'टिम्पैनिक गुटिका से कम्पन तीन छोटी-छोटी अस्थिकाओं को स्थानांतरित होता है, जो उसकी शक्ति में वृद्धि करके उसे आंतरिक कान तक पहुँचाती है। आंतरिक कान में कॉकिल्या ध्वनि तरंगों को ग्रहण करता है। कम्पन द्वारा अंतर्लसिका गतिमान होता है जो कोली अंग में भी कम्पन्न उत्पन्न करता है। अंत में आवेग श्रवण तंत्रिका को भेजा जाता है, जो कॉकिल्या के धरातल पर उत्पन्न होता है तथा श्रवण वल्कुट को जाता है जहाँ आवेग की व्याख्या होती है।
प्रश्न 5. अवधान को परिभाषित कीजिए। इसके गुणों की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर: अवधान या ध्यान शब्द से प्रत्येक व्यक्ति परिचित है। सामान्य बोलचाल की भाषा में भी इस शब्द का पर्याप्त प्रयोग होता है। अमुक्त व्यक्ति बहुत ही ध्यान से अपना कार्य करता है। पाठ याद करने के लिए ध्यान लगाना आवश्यक है। बिना ध्यान लगाए किया गया कार्य बिगड़ जाता है। इन सब वाक्यो से स्पष्ट होता है कि ध्यान कोई शक्ति है, जिसे केंद्रित किया जाता है। मनोविज्ञान में अवधान या ध्यान का व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। अवधान का आधार रुचि है। जिन वस्तुओं में हमारी रुचि होती है, हमारा ध्यान उस ओर अधिक केंद्रित होता है। ग्रीस ने इस तथ्य को विभिन्न प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया है। अतः ध्यान समी वस्तुओं पर न जाकर कुछ वस्तुओं अथवा विषयों पर ही केन्द्रित होता है। यह एक चयनात्मक क्रिया है।
अवधान अथवा ध्यान का अर्थ एवं परिभाषा:
विभिन्न मानसिक शक्तियों को किसी अभीष्ट कार्य पर केन्द्रित करना अवधान कहलाता है। मानसिक शक्तियों को इस प्रकार केन्द्रित करना एक मानसिक प्रक्रिया है। सामान्य रूप से हर समय वातावरण में विद्यमान अनेक उत्तेजनाएँ व्यक्ति की ज्ञानेन्दरियों को प्रभावित करती रहती हैं, पा व्यक्ति न तो सब उत्तेजनाओं को ग्रहण करता है और न ही उनके प्रति अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करता है। व्यक्ति किस उत्तेजना को ग्रहण करेगा, यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है। जिस उत्तेजना को वह ग्रहण करना चाहता है. उसी उत्तेजना पर उसे ध्यान केन्द्रित करना होगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अवधान या ध्यान एक चयनात्मक क्रिया भी है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि किसी उत्तेजना के प्रति व्यक्ति की चेतना अथवा मानसिक शक्तियों के केन्द्रीयकरण की प्रक्रिया ही ध्यान या अवधान है।
अवधान की विभिन विद्वानों द्वारा प्रतिपादित परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
1. एन. एल. मन: आधुनिक मनोवैज्ञानिक मन ने अवधान को इन शब्दों में स्पष्ट किया है. "ध्यान को हम चाहे जिस दृष्टिकोण से विचार करें, विश्लेषण के अंत में यह एक प्रेरणात्मक प्रक्रिया ही है। " 2. जे. एस. रॉस : जे. एस. रॉस ने भी अवधान को एक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार, "किसी विचार की वस्तु को मन के सामने स्पष्ट रूप से रखने की प्रक्रिया अवधान है।"
3. मैक्डूगल : प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैक्ड्रगल ने अवधान की परिभाषा इन शब्दों में प्रस्तुत की है- "अवधान ज्ञानात्मक प्रक्रिया पर पड़े प्रभाव के दृष्टिकोण से विचार किए जाने पर मात्र एक चेष्टा याक्रिया है।"
4. डम्बिल : डम्बिल ने अवधान का अर्थ इन शब्दों में स्पष्ट किया है, "यह किन्हीं अन्य वस्तुओं की अपेक्षा किसी एक वस्तु पर चेतना का केन्द्रीकरण है। "
संक्षेप में कहा जा सकता है कि अवधान एक ऐसी मानिसक प्रक्रिया है, जिसमें विभिन्न मानसिक शक्तियों को अभीष्ट विषय-वस्तु पर केन्द्रित किया जाता है तथा इस स्थिति में अन्य विषय-वस्तुओं की अवहेलना की जाती है। ध्यान अथवा अवधान की पूर्ण व्याख्या के लिए इसकी विशेषताओं का उल्लेख करना भी अनिवार्य है।
प्रश्न 6. चयनात्मक अवधान के निर्धारण का वर्णन कीजिए। चयनात्मक अवधान संधृत अवधान से किस प्रकार भिन्न होता है?
उत्तर: चयनात्मक अवधान का संबंध मुख्यतः अनेक उद्दीपकों में से कुछ सीमित उद्दीपकों अथवा वस्तुओं के चयन से होता है। हमारे प्रात्यक्षिक तंत्र में सूचनाओं को प्राप्त करने एवं उनका प्रक्रमण करने की सीमित क्षमता होती है। इसका अर्थ यह है कि एक विशेष समय में वे केवल कुछ उद्दीपकों पर ही ध्यान दे सकते हैं। प्रश्न यह है कि इनमें से किन उद्दीपकों का चयन और प्रक्रमण होगा। मनोवैज्ञानिकों ने उद्दीपकों के चयन को निर्धारित करने वाले अनेक कारकों का पता लगाया है।
चयनात्मक अवधान को प्रभावित करने वाले कारक :
चयनात्मक अवधान को अनेक कारक प्रभावित करते हैं। ये सामान्यतया उद्दीपकों की विशेषताओं तथा व्यक्तियों की विशेषताओं से जुड़े होते हैं। इन्हें सामान्यतया 'बाह्य' एवं 'आंतरिक' कारकों में वर्गीकृत किया जाता है।
1. बाहा कारक (External factors) - ये कारक उद्दीपकों के लक्षणों से संबंधित होते हैं। अन्य चीजों के स्थिर होने पर उद्दीपकों के आकार, तीव्रता तथा गति अवधान के प्रमुख निर्धारक होते हैं। बड़ा, दयुतिमान तथा गतिशील उद्दीपक हमारे अवधान में शीघ्रता से आ जाता है। जो उद्दीपक नवीन होते हैं तथा सामान्य रूप से जटिल होते हैं वे भी सरलतापूर्वक हमारे अवधान में आ जाते हैं। अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि मनुष्य के फोटोचित्र अन्य निर्जीव वस्तुओं के फोटोचित्रों की तुलना में हमारे ध्यान में शीघ्रता से आजाते हैं। इसी प्रकार, शाब्दिक कथनों की तुलना में लयबद्ध श्रवण उद्दीपक शीघ्रता से उद्दीप्त होते हैं। अवधान के लिए आकस्मिक एवं तीव्र उद्दीपकों में ध्यानाकर्षण की अदृभुत क्षमता होती है।
2. आंतरिक कारक (Internal factors) - ये कारक व्यक्ति के अंदर पाए जाते हैं। इन्हें दो मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है; अभिप्रेरणात्मक कारक तथा संज्ञानात्मक कारक।
1. अभिप्रेरणात्मक कारकों (Motivational factors) - अभिप्रेरणात्मक कारका संबंध हमारी जैविक एवं सामाजिक आवश्यकताओं से होता है। जब हम भूखे होते हैं तो भोजन की हल्की गंध को भी हम सूंघ लेते हैं। जिस विद्यार्थी को परीक्षा देनी होती है, वह परीक्षा न देने वाले विद्यार्थी की तुलना में शिक्षक के भाषण पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है।
2. संज्ञानात्मक कारकों (Cognitive factors) - संज्ञानात्मक कारक अंतर्गत अभिरुचि, अभिवृत्ति तथा पूर्वविन्यास आदि कारक आते हैं। वस्तुएं अथवा घटनाएँ, जो रुचिकर होती हैं, व्यक्तियों के ध्यान में शीघ्रतापूर्वक आती हैं। इसी प्रकार, जिन वस्तुओं अथवा घटनाओं के प्रति हम अनुकूल दृष्टि से रुचि लेते हैं, उन पर शीघ्रतापूर्वक ध्यान देते हैं। पूर्वविन्यास एक मानसिक स्थिति उत्पन्न करता है जो एक निश्चित दिशा में कार्य करने को प्रेरित करती है। यह तत्परता भी उत्पन्न करती है जिससे व्यक्ति एक विशेष उद्दीपक के पति अनुक्रिया करने को उन्मुख होता है, अन्य के प्रति नहीं ।
संधृत अवधान : जहाँ चयनात्मक अवधान मुख्यतः उद्दीपकों के चयन से सम्बंधित होता है, वहीं संधृत अवधान का संबंध एकाग्रता से होता है। यह हमारी उस योग्यता से जुड़ा होता है जिससे हम अपना ध्यान किसी वस्तु अथवा घटना पर देर तक बनाए रखते हैं। इसे सतर्कता भी कहते हैं।
प्रश्न 7. चाक्षुष क्षेत्र के प्रत्यक्षण के संबंध में गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों की प्रमुख प्रतिज्ञाप्ति क्या है?
उत्तर: ज्ञानेंद्रियों के उद्दीपन के परिणामस्वरूप हम प्रकाश की क्षणदीप्ति अथवा ध्वनि अथवा प्राण का अप क करते हैं। यह प्रारंभिक अनुभव जिसे संवेदना कहते हैं, हमें ज्ञानेंद्रियों को उद्दीप्त करने वाले उद्दोपक की समझ प्रदान नहीं करता है। उदाहरण के लिए, हमें इससे प्रकाश, ध्वनि एवं साध के स्रोत के विषय में जानकारी नहीं मिलती है। संवेदी तंत्र द्वारा प्रदान की गई कच्ची सामग्री से अर्थ प्राप्त करने के लिए हम इसका पुनः प्रक्रमण करते हैं। ऐसा करने से हम अपने अधिगम, कि अभिप्रेरणा, संवेग तथा अन्य मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के उपयोग हारा उद्दीपकों को अर्थवान बनाते हैं। जिस प्रक्रिया से हम ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्रदान की गई सूचनाओं की पहचान करते हैं, व्याख्या अथवा उसको अर्थवान बनाते हैं, उसे प्रत्यक्षण कहा जाता है। उद्दीपकों अथवा घटनाओं की व्याख्या करने में लोग अपने ढंग से उनको रचित करते हैं। इस प्रकार, प्रत्यक्षण बाह्य अथवा आंतरिक जगत में पाए जाने वाली वस्तुओं अथवा घटनाओं की व्याख्या मात्र नहीं है, बल्कि अपने दृष्टिकोण के अनुसार वस्तुओं या घटनाओं को एक रचना भी है। अर्थात् बनाने की प्रक्रिया में कुछ उपक्रियाएँ अन्तर्निहित हैं।
प्रत्याक्षण के प्रक्रमण उपागम :
हम किसी वस्तु की पहचान कैसे करते हैं? क्या हम किसी कुत्ते की पहचान इसलिए करते हैं कि हम उसके रोएँदार खाल, उसके चार पैरों, उसकी आँखों, कानों आदि की पहचान पहले कर चुके हैं अथवा इन अंगों की पहचान हम इसलिए करते हैं क्योंकि पहले हमने कुत्ते की पहचान की है ? यह विचार कि प्रत्यभिज्ञान प्रक्रिया अंशों से प्राप्त होती है और जो समग्र प्रत्यभिज्ञान का आधार बनती है, उसे ऊर्ध्वगामी प्रक्रमण (bottom-up processing) कहते हैं। जब प्रत्यभिज्ञान प्रक्रिया समग्र से प्रारंभ होती है तो उसके आधार पर विभिन्न घटकों की पहचान की जाती है तो उसे अधोगामी प्रक्रमण (top-down processing) कहते हैं।
ऊर्ध्वगामी उपागम प्रत्यक्षण उद्दीपकों के विविध लक्षणों पर जोर देता है तथा प्रत्यक्षण को एक मानसिक रचना की प्रक्रिया स्वीकार करता है। अधोगामी उपागम प्रत्यक्षण करने वालों को महत्त्व देता है तथा प्रत्यक्षण को उद्दीपकों की प्रत्यभिज्ञान अथवा तदात्मीकरण की प्रक्रिया माना जाता है।
अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि प्रत्यक्षण में दोनों प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से अंतः क्रिया करती हैं और हमें जगत की समझ प्रदान करती हैं।
प्रश्न 8. स्थान- प्रत्यक्ष कैसे घटित होता है?
उत्तर: हमारी प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ हमेशा अच्छी आकृति का प्रत्यक्ष करने के लिए उन्मुख होते हैं। मानव जाति जगत का एक संगठित समग्र के रूप में देखती है। उसे पता है कि आकृति का एक निश्चित रूप होता है तथा वे पृष्ठभूमि से अलग दिखने के लिए प्रस्तुत रहते हैं। चाक्षुष क्षेत्र या सतह जहाँ वस्तुएँ रहती हैं वह तीन विमाओं से संगठित होता है।
प्रत्यक्षण कारक किसी स्थान पर रखी वस्तु को जब देखती है तो वह विभिन्न वस्तुओं को मात्र आकार, रूप, दिशा (स्थानिक अभिलक्षण) पर ही ध्यान नहीं देता बल्कि अपनी बुद्धि एवं चेतना के माध्यम से उस स्थान में पाई जानेवाली सभी वस्तुओं के बीच की दूरी को भी महसूस करके निर्धारित वस्तुओं की एक सच्ची प्रतिमा का निर्माण करने में सफल हो जाता है।
यद्यपि हमारे दृष्टि पटल पर वस्तुओं की प्रक्षेपित प्रतिमाएँ समतल तथा द्विविम होती हैं जिसके चलते हम वस्तुओं के बाएँ, दाएँ, ऊपर, नीचे की वस्तुस्थिति से अवगत होते हैं, परन्तु प्रत्यक्ष के अधिक उद्देयपूर्ण बनाने के लिए हम स्थान में तीन विमाओं का प्रत्यक्ष करते हैं। चूंकि हम द्विविम दृष्टिपटलीय दृष्टि को त्रिविम अर्थात् स्थान प्रत्यक्षण को सफल बनाने हेतु मनोवैज्ञानिक संकेतों तथा अर्जित अनुभवों का प्रयोग करके सभी तीन विमाओं के सम्बन्ध में वांछनीय जानकारियों को जमा करते हैं।
प्रश्न 9. गहनता प्रत्यक्षण के एकनेत्री संकेत क्या हैं? गहनता प्रत्यक्षण में द्विनेत्री संकेतों की भूमिका की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: त्रिविम स्थान में गहनता प्रत्यक्षण के कुछ महत्त्वपूर्ण संकेत दोनों आँखों से प्राप्त होते हैं। इनमें से तीन विशेष रूप से रोचक हैं।
1. दृष्टिपटलीय अथवा द्विनेत्री असमता : चूँकि दोनों आँखों की स्थिति हमारे सिर में भिन्न होती है, इसलिए दृष्टिपटलीय असमता घटित होती है। वे एक-दूसरे से क्षितिज रूप से लगभग 6.5 सेंटीमीटर की दूरी पर अलग-अलग होती हैं। इस डी के कारण एक ही वस्तु की प्रत्येक आंख की रेटिना पर प्रक्षेपित प्रतिमाएं ता होती हैं। दोनों प्रतिमाओं के मध्य इस विभेद क इष्टिपटलीय असमता कहते हैं। अधिक दृष्टिपटलीय असमता की व्याख्या एक निकट की कु के रूप में तथा कम दृष्टिपटलीय असमता की व्याख्या एक दूर की वस्तु के रूप में क्योंकि दूर की वस्तुओं की असमता कम तथा निकट की वस्तुओं की असमता अधिक होती है।
2. अभिसरण : जब हम आस-पास की वस्तु को देखते हैं तो हमारी आँखें अंदर की ओर अभिसरित होती हैं, जिससे प्रतिमा प्रत्येक आँख की गर्तिका पर आ सके। मांसपेशियों का एक समूह, आँखें जिस सीमा तक अंदर की ओर परिवर्तित होती हैं के संबंध में संदेश मस्तिष्क को प्रेषित करता है और इन संदेशों की व्याख्या गहनता प्रत्यक्षण के संकेतों के रूप में की जाती है। । जैसे-जैसे वस्तु प्रेक्षण से दूर होती जाती है वैसे-वैसे अभिसरण की मात्रा घटती जाती है। अभिसरण का अनुभव हम स्वयं कर सकते की को अपनी नाक के सामने रखिए और उसे धीरे-धीरे निकट लाइए। जैसे-जैसे आपकी आँखें अंदर की ओर परिवर्तित होंगी अथवा अभिसरित होंगी, वैसे-वैसे वस्तुएँ निकट दिखाई देंगी।
3. समंजन : समंजन एक प्रक्रिया है जिसमें पक्ष्माभिकी पेशियों की सहायतासे हम प्रतिमा क दृष्टिपटल पर फोकस करते हैं। ये मांसपेशियाँ आँख के लेन्स की सघनता को परिवर्तित कर देती हैं। यदि वस्तु दूर चली जाती है (दो मीटर से अधिक), तब मांसपेशियाँ शिथिल रहती हैं। जैसे ही वस्तु निकट आती हैं, मांसपेशियों में संकुचन की क्रिया होने लगती है तथा लेन्स की सघनता बढ़ जाती है। मांसपेशियों के संकुचन की मात्रा का संकेत मस्तिष्क को भेज दिया जाता है, जो दूरी के लिए संकेत प्रदान करता है।
प्रश्न 10. भ्रम क्यों उत्पन्न होते हैं?
उत्तर: किसी वस्तु के लिए प्रत्यक्षण से प्राप्त जानकारी तथा ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं में भिन्नता प्रकट होने को भ्रम माना जाता है। जैसे- रस्सी को साँप मान लो, मालिक समझकर नौकर का पैर छू लेना भ्रंश का उदाहरण माना जा सकता है। संवेदी सूचनाओं की सही व्याख्या नहीं कर पाने के कारण भ्रम नामक गलतफहमी उत्पन्न हो जाती है। गलत प्रत्यक्षण अथवा बाह्य उद्दीपन की स्थिति में दोष, अनुभव की कमी अथवा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त सूचनाओं की गलत व्याख्या से प्राप्त होनेवाले गलत प्रत्यक्ष के कारण भ्रम उत्पन्न होते हैं।
प्रेक्षक की योग्यता, अनुभव और सही समझ का अभाव भी भ्रम उत्पन्न होने के कारण माने जाते हैं। कुछ शारीरिक कमजोरियों तथा परिवार का अस्वाभाविक हो जाना (अंधकार, वर्षा) भ्रम के कारण बन जाते हैं। कभी-कभी पूर्वनिर्धारित योजना या समय में अन्तर आने से भी भ्रम उत्पन्न हो जाते हैं। जैसे, नियत समय रोज आनेवाले डाकिया के बदले कोई दूसरे व्यक्ति को भी डाकिया समझ लेना, घंटी बजाने पर रोज भोजन की थाली मिलते रहने की स्थिति में घंटी बजने पर नौकर के हाथ की किताब को भी थाली समझ लेना स्वाभाविक भ्रम है। अर्थात् भ्रम कारण प्रेक्षक, ज्ञानेन्द्रियों, स्थितियों में आनेवाले अन्तर के साथ-साथ प्राप्त सूचनाओं की गलत व्याख्या भी है।
प्रश्न 11. सामाजिक-सांस्कृतिक कारण हमारे प्रत्यक्षण को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
उत्तर: हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ अपने बाह्य अथवा आंतरिक जगत के संबंध में मूल सूचना प्रदान करती हैं। प्राप्त ज्ञान के आधार पर अनेक भौतिक उद्दीपकों के संबंध में वांछनीय जानकारी संग्रह करते हैं । ज्ञानेन्द्रियों के उद्दीपनों के परिणामस्वरूप हम प्रकाश की क्षण दीप्ति अथवा ध्वनि अथवा घ्राण का अनुभव करते हैं। ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त सूचनाओं के बारे में उचित व्याख्या करके सूचना को अर्थवान बनाने का प्रयास किया जाता है जिसमें सामाजिक-सांस्कृतिक कारक की सहायता ली जाती है। वस्तुओं अथवा घटनाओं को पूर्णतः पहचानने के क्रम में निम्न बातें स्पष्ट होती हैं -
1. प्रत्यक्षणकर्ता की आवश्यकताएँ एवं इच्छाएँ उसके प्रत्यक्षण को अत्यधिक प्रभावित करती हैं।
2. किसी दी गई स्थिति में हम जिसका प्रत्यक्षण कर सकते हैं उसकी प्रत्याशाएँ भी हमारे प्रत्यक्षण को प्रभावित करती हैं।
3. हम जिस तरह पर्यावरण का प्रत्यक्षण करते हैं, उसे प्रयोग में लाई जाने वाली शैली (संज्ञानात्मक) भी प्रभावित करती है।
4. विभिन्न सांस्कृतिक परिवेशों में लोगों को उपलब्ध विविध अनुभव एवं अधिगम के अवसर पर भी उनके प्रत्यक्षण को प्रभावित करते हैं। जैसे, चरित्रविहीन परिवेश से आनेवाले लोग कलात्मक चित्रों के माध्यम से प्रकट किये जाने वाले भावनात्मक संदेश को नहीं समझ पाते हैं।
5. स्थान, क्षेत्र, योग्यता, दशा, स्थिति आदि मानवीय विषमताओं से भी प्रत्यक्षण स्पष्टता प्रभावित करता है। जैसे, शहरी लोगों की तुलना में जंगली लोग कंम्प्यूटर के संबंध में बहुत कम जानकारी व्यक्त करते हैं। संगीत का जानकार किसी वाद्य यंत्रों से उत्पन्न ध्वनि में लय का पता लगा सकता है। भूखा व्यक्ति दो और दो का योगफल चार रोटियाँ बतलाना है, चार कलम नहीं ।
6. प्रत्यक्षण की प्रक्रिया में प्रत्यक्षणकर्ता की अहम भूमिका होती है। उनमें इतना क्षमता तो होनी ही चाहिए कि लोगों के द्वारा व्यक्त प्रत्युत्तरों में से सार्थक सूचनाओं को छोर सके।
7. लोग अपनी व्यक्तिगत, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों के आधार पर उद्दीपकों का प्रक्रमण एवं व्याख्या अपने ढंग से करते हैं। इनमें उचित संशोधन की आवश्यकता होती है।
8. गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के द्वारा दिये गये सिद्धान्तों (निकटता, समानता, निरंतरता, लघुता, सममिति का सिद्धान्त) प्रत्यक्षण के लिए आवश्यक तत्त्वों की जानकारी देते हैं।
9. प्रत्यक्षण के लिए एकनेत्री संकेत तथा द्विनेत्री संकेतों की उपयोगिता आवश्यक मनोवैज्ञानिक संकेत है।
10. प्रत्यक्षण के लिए द्विविम तथा त्रिविम सतहों का अध्ययन उपयोगी सिद्ध होता है।
11. प्रत्यक्षण पर लोगों की रुचि और संस्कार के साथ-साथ आवास तथा पेशा (नौकरी, दूकानदारी) से प्राप्त अनुभव और प्रतिक्रिया का ध्यान रखना आवश्यक होता है।
Hello My Dear, ये पोस्ट आपको कैसा लगा कृपया अवश्य बताइए और साथ में आपको क्या चाहिए वो बताइए ताकि मैं आपके लिए कुछ कर सकूँ धन्यवाद |