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Bharati Bhawan Class 9th Economics Chapter 1 | Long Questions Answer | Bihar Board Class IX Arthshastr | बिहार के एक गाँव की आर्थिक कहानी | भारती भवन कक्षा 9वीं अर्थशास्त्र अध्याय 1 | दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

Bharati Bhawan Class 9th Economics Chapter 1  Long Questions Answer  Bihar Board Class IX Arthshastr  बिहार के एक गाँव की आर्थिक कहानी  भारती भवन कक्षा 9वीं अर्थशास्त्र अध्याय 1  दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. उत्पादन क्यों आवश्यक है ? वे कौन-कौन-से साधन हैं जिनके सहयोग से उत्पादन होता है ?
उत्तर-मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि के उत्पादन आवश्यक है। उत्पादन के द्वारा ही हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं। व्यक्ति और समाज की आवश्यकताओं को वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। हमारे रहन-सहन का स्तर भी उत्पादित वस्तुओं की मात्रा एवं प्रकार पर निर्भर करता है। रोजगार का स्तर तथा आर्थिक समृद्धि भी उत्पादन की मात्रा पर निर्भर है। जब उत्पादन में वृद्धि होती है तथा तरह-तरह के उत्पादक कार्य किए जाते हैं तब देश में अधिक व्यक्तियों को रोजगार मिलता है और आर्थिक दृष्टि से अधिक समृद्ध होते हैं। 
परंतु, किसी भी वस्तु का उत्पादन विभिन्न साधनों के सहयोग से होता है जिन्हें उत्पादन के साधन या कारक कहते हैं। उत्पादन के चार प्रमुख साधन हैं जिनका विवरण निम्नांकित है— 
(i) भूमि- साधारणतया भूमि का अर्थ जमीन की ऊपरी सतह से लगाया जाता है। लेकिन, अर्थशास्त्र में भूमि शब्द का प्रयोग बहुत ही व्यापक अर्थ में होता है। भूमि के अंतर्गत वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं जो प्रकृति की निःशुल्क देन हैं और जिनके सहयोग से उत्पादन होता है। इस प्रकार नदी, पहाड़, जंगल, सूर्य की रोशनी, खनिज संपदा आदि सभी प्रकृति प्रदत्त वस्तुएँ भूमि के अंतर्गत शामिल है।
(ii) श्रम- श्रम के अंतर्गत वे सभी मानवीय श्रम सम्मिलित किए जाते हैं। चाहे ये शारीरिक हो या मानसिक, जो सम्पत्ति या धन के उत्पादन में सहायक होते हैं। दूसरे शब्दों में श्रम का अर्थ मनुष्य के उस शारीरिक या मानसिक प्रयत्न से है जो किसी लाभ या प्रतिफल की आशा से किया जाता है। 
(iii) पूँजी–अर्थशास्त्र में पूँजी का अर्थ केवल द्रव्य या बहुमूल्य वस्तुओं से नही होता। पूँजी मनुष्य द्वारा उत्पादित संपत्ति का वह भाग है जो अधिक संपत्ति के उत्पादन में लगाया जाता है। उदाहरण के लिए मशीन, औजार, यंत्र हल - बैल, खाद, बीज इत्यादि सभी पूँजी के अंतर्गत आते हैं।
(iv) संगठन और उद्यम- वर्तमान समय में उत्पादन बहुत वृहत पैमाने तथा भविष्य की माँग के अनुमान पर होता है। अतः विभिन्न साधनों को एकत्र करने तथा उनके बीच सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही प्रत्येक व्यवसाय में कुछ-न-कुछ जोखिम या अनिश्चितता अवश्य रहती है। इस कार्य को अर्थशास्त्र में संगठन एवं उद्यम कहते हैं। एक उद्यमी ही उत्पादन के साधनों को एकत्र करने, उनमें समन्वय स्थापित करने तथा व्यवसाय के जोखिम को वहन करने का कार्य करता है।  
2. उत्पादन के साधनों में संगठन एवं साहस की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर-आधुनिक समय में वस्तुओं का उत्पादन बहुत बड़े पैमाने पर होता है। आधुनिक कारखानों में जटिल मशीनों के द्वारा उत्पादन होता है और वहाँ हजारों की संख्या में श्रमिक कार्य करते हैं। अतः विभिन्न साधनों को एकत्र करने तथा उनके बीच सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता होती है। वस्तुतः जैसे ही उत्पादन के विभिन्न साधनों के सहयोग से उत्पादन कार्य प्रारंभ होता है। वैसे ही संगठन करनेवाले व्यक्ति की आवश्यकता प्रतीत होने लगती है।
इसके साथ ही आधुनिक समय में वस्तुओं का उत्पादन भविष्य की माँग के अनुमान पर होता है। लेकिन, भविष्य के अस्पष्ट और अनिश्चित होने के कारण भविष्य संबंधी हमारे अनुमान गलत सिद्ध हो सकते हैं। इसलिए किसी भी उद्योग या व्यवसाय में जोखिम और अनिश्चितता की मात्रा बहुत अधिक रहती है। जब तक इस जोखिम की उठानेवाला कोई व्यक्ति नही हो तब तक उत्पादन का कार्य प्रारंभ नही हो सकता किसी व्यवसाय के इस जोखिम और अनिश्चितता को ही उद्यम या साहस कहते हैं। जो व्यक्ति इस जोखिम और अनिश्चितता को वहन करता है। उसे उद्यमी या साहसीं कहा जाता है। आधुनिक उद्योगों में उद्यमी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। 
एक उद्यमी ही उत्पादन के साधनों की एकत्र करने, उनमें समन्वय स्थापित करने तथा व्यवसाय के जोखिम को उठाने का कार्य करता है।
लेकिन, कुछ अर्थशास्त्री संगठन और उद्यम को उत्पादन का पृथक साधन मानते हैं वास्तव में इन दोनों के बीच विभाजन- रेखा बहुत सूक्ष्म है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, संगठन और एक विशिष्ट प्रकार के श्रम हैं जिसे आजकल मानवीय पूँजी की संज्ञा दी जाती है। यह मानवीय पूँजी ही भूमि श्रम तथा भौतिक पूँजी में उचित समन्वय द्वारा उत्पादन प्रणाली को संगठित एवं क्रियाशील करता है।
3. कृषि फसलों के उत्पादन में वृद्धि के क्या उपाय है?
उत्तर- हमारे देश तथा राज्य में विस्तृत कृषि की कोई संभावना नहीं है, अतः, यहां के किसान अपनी उपलब्धता भूमि से ही कृषि उत्पादन को बढ़ाने का प्रयास कर सकते हैं, जिसे गहन कृषि की संज्ञा दी जाती है। इसके अंतर्गत बहुफसल कार्यक्रम को अपनाना आवश्यक है जिसके अंतर्गत भूमि के एक निश्चित टुकड़े पर ही एक से अधिक फसल उपजाई जाती है। कृषि उत्पादन में वृद्धि का एक अन्य तरीका नवीन एवं आधुनिक पद्धति का प्रयोग है तथा इसके प्रयोग से ही कृषि उत्पादन में यथोचित वृद्धि संभव है।
4. हरित क्रांति से आप क्या समझते हैं ? इसके क्या परिणाम हुए हैं ? 
उत्तर- भारत में कृषि विकास की नई नीति 1966-67 में अपनाई गई जिसे 'अधिक उपज में देनेवाले कार्यक्रम' की संज्ञा दी गई। इस कार्यक्रम को अपनाने के परिणामस्वरूप हमारी कृषि उपज में, विशेषकर खाद्यान्नों के उत्पादन में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। 'हरित क्रांति' का तात्पर्य कृषि उत्पादन में होनेवाली इस अभूतपर्व वृद्धि से है। विशेषज्ञों के अनुसार, नई तकनीक तथा अधिक उपज देनेवाले उन्नत किस्म के बीजों का आविष्कार हरित क्रांति को लाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहे हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए हरित क्रांति के परिणाम उत्साहवर्धक कहे जा सकते हैं। कृषि की इस नवीन पद्धति को अपनाने के फलस्वरूप 1967-68 के बाद खाद्यान्न के उत्पादन में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। इसके साथ ही कृषि की उत्पादकता भी बढ़ी है। हरित क्रांति के आगमन से किसानों की आर्थिक स्थिति एवं रहन-सहन के स्तर में सुधार हुआ है। इसका औद्योगिक उत्पादन पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ा है। हरित क्रांति के कारण अब देश खाद्य पदार्थों की दृष्टि से आत्म-निर्भर हो गया है। इसके पूर्व भारत बहुत बड़े पैमाने पर खाद्यान्न एवं खाद्य वस्तुओं का आयात करता था। लेकिन, अब इनके आयात बहुत कम हो गये है। भारत एक  देश है। हमारी राष्ट्रीय आय में कृषि का सर्वाधिक योगदान होता है। हरित क्रांति एवं कृषि के विकास से अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र भी प्रभावित हुए है। तथा आर्थिक विकास को प्रोत्साहन मिला है। हमारे देश के अधिकांश किसान अशिक्षित एवं रूढ़िवादी है। लेकिन, अब वे कृषि की नई विधियों को अपनाने लगे है। उनके दृष्टिकोण में यह परिवर्तन कृषि विकास की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
लेकिन, कृषि विकास का यह कार्यक्रम देश के कुछ पूर्व विकसित क्षेत्रों में ही अधिक सफल हुआ है। जहाँ सिंचाई आदि की आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध है। हरित क्रांति के परिणाम एक अन्य दृष्टि से भी असफल सिद्ध हुए है। इसके लाभ मुख्यतः बड़े और धनी किसानों को प्राप्त हुए है। जिनके पाए इस नई तकनीक को अपनाने के लिए साधन उपलब्ध थे।  
5. भूमि की उत्पादकता से आप क्या समझते हैं बिहार में भूमि की उत्पादकता कम होने के क्या कारण है?
उत्तर- भूमि की उत्पादकता का अभिप्राय उसके प्रति हेक्टेयर उत्पादन से है। भूमि की उत्पादकता अधिक होने पर एक दिए हुए भू-खंड से ही अधिक फसल उपजाई जा सकती है। बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है और यहाँ की अधिकांश जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। लेकिन, देश के विकसित राज्यों की तुलना में यहाँ भूमि की उत्पादकता अपेक्षाकृत बहुत कम है।
बिहार में कृषि की उत्पादकता कम होने के कई कारण हैं। भूमि एक प्राकृतिक संसाधन है। इसकी मात्रा ही नहीं, वरन उत्पादन - शक्ति भी सीमित है। लगातार खेती करने से भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो जाती हैं। अतएव, कृषि के उपजाऊपन को बनाए रखने तथा प्रति हेक्टेयर उपज में वृद्धि के लिए खाद देना आवश्यक है। परंपरागत रूप में हमारे राज्य के किसान गोबर आदि का खाद के रूप में प्रयोग करते हैं। विगत कुछ वर्षों से अब यहाँ के मध्यम और बड़े किसान परिवार रासायनिक खाद अथवा उर्वरकों का प्रयोग करने लगे हैं। लेकिन, बिहार में अभी भी उर्वरकों का प्रति हेक्टेयर उपयोग राष्ट्रीय औसत से कम है। बिहार में उर्वरकों के प्रयोग से संबंधित एक दूसरी कठिनाई भी है। यहाँ के किसान प्रायः बिना मिट्टी जाँच के ही इनका प्रयोग करते हैं। मिट्टी की जाँच से यह पता चलता है कि किन खेतों में किस तत्व की कितनी कमी है। इससे किसान अनावश्यक एवं अत्यधिक मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग नहीं करते हैं।
बिहार में कृषि की उत्पादकता कम होने का दूसरा महत्वपूर्ण कारण भूमि का स्वामित्व एवं इकसे वितरण में विषमता है। हमारे राज्य में भूमि का वितरण बहुत असमान है। इनकी जोतों का आकार एक हेक्टेयर से भी कम होता है। इन छोटे किसानों की भूमि की उपज उनके जीवनयापन के लिए ही पर्याप्त नहीं होती है। अतः, साख तथा अन्य आधारभूत सुविधाओं के अभाव में उनकी भूमि की उत्पादकता बहुत कम है।  
6. कृषि क्षेत्र में श्रम की आपूर्ति किस प्रकार होती है। हमारे देश तथा राज्य में कृषि श्रमिकों की क्या स्थिति है।
उत्तर- कृषि तथा इससे संबंध क्रियाकलाप में लगे हुए व्यक्तियों के श्रम को कृषि श्रम कहते हैं। कृषि कार्यों में श्रम की आवश्यकता बहुत अधिक होती है। छोटे किसान अपने परिवार के सदस्यों की सहायता से खेती करते है। इस प्रकार, वे कृषि कार्यों के लिए स्वयं श्रम की आपूर्ति करते हैं। तथा इस श्रम के लिए उन्हें अलग से कोई भुगतान नही किया जाता है। इनकी आय परिवार की सम्मिलित आय का एक भाग होता है।
लेकिन, मध्यम और बड़े किसान अपनी भूमि पर कृषि कार्यों के संपादन के लिए भाड़े के श्रमिकों का प्रयोग करते है। इन्हें कृषि श्रमिक की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार के श्रम की आपूर्ति dnkedi; 1ts g6- भूमिहीन ग्रामीण परिवार तथा सीमांत किसान। भूमिहीन श्रमिक वे है। जिनके पास कोई अपनी भूमि नहीं होती और वे दूसरों की भूमि पर खेती कर अपना जीवनयापन करते हैं। सीमांत किसानों के पास कुछ निजी भूमि तो होती है, लेकिन यह उनके जीविकोपार्जन के लिए पर्याप्त नही होती है। अतएव, इस प्रकार वे बहुत छोटे और सीमांत किसान भी कृषि श्रमिक के रूप में कार्य करने के लिए बाह्य होते हैं। कृषि श्रमिकों को काम पर लगनेवाले किसान उन्हें मजदूरी का भुगतान करते है। यह मजदूरी नकद या अनाज अथवा दोनों के रूप में हो सकती है।
हमारे देश में कृषि श्रमिकों की स्थिति संतोषजनक नही है। कठिन परिश्रम करने पर भी उन्हें अपेक्षाकृत कम मजदूरी दी जाती हैं सरकार न न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अंतर्गत कृषि श्रमिकों के लिए भी मजदूरी की न्यूनतम दर निश्चित कर दी हैं। लेकिन, प्रायः व्यवहार में उनका पालन नही होता है। और उन्हें न्यूनतम से भी कम मजदूरी मिलती है। कृषि श्रमिकों की मजदूरी कम रहने के कारण वे हमेशा ऋणग्रस्त रहते हैं। बिहार में कृषि श्रमिकों की आर्थिक स्थिति और भी दयनीय है। यहाँ की कृषि आज भी प्राचीन एवं परंपरागत है। तथा कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसरों का अभाव है। बाढ़ उत्तर बिहार को एक स्थायी समस्या है। जिससे इस क्षेत्र के एक बड़े भू-भाग की खरीफ फसल प्रतिवर्ष नष्ट हो जाती है। अतएव, कृषि में संलग्न ग्रामीण जनसंख्या बड़ा भाग वर्ष में लगभग चार-पाँच महीने पूर्णतः बेकार रहता है । तथा बिहार से कृषि का देश के अन्य विकसित राज्यों में पलायन हो रहा है।  
7. उत्पादन के विभिन्न साधनों का सापेक्षिक महत्व बताएँ । 
उत्तर- भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन एवं उद्यम उत्पादन के प्रमुख साधन हैं। इनके से ही विभिन्न प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। अंतः, यह कहना अत्यंत कठिन है कि उत्पादन के इस साधनों में कौन-सा साधन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार, भूमि उत्पादन का सबसे महत्वपूर्ण साधन है, क्योंकि भूमि के बिना किसी भी वस्तु का उत्पादन संभव नहीं है। इसके विपरीत, कुछ अर्थशास्त्री श्रम को भूमि से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, क्योंकि भूमि निष्क्रिय है तथा वह स्वयं उत्पादन नहीं करती। श्रम ही उत्पादन का सक्रिय साधन है। प्राचीन अर्धशास्त्रियों ने भूमि और श्रम को उत्पादन का प्राथमिक और सर्वमान्य साधन कहा है। ये दोनों ही उत्पादन के सर्वथा अत्त्याज्य साधन है। इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार, पूँजी, संगठन एवं उद्यम का अपना पृथक एवं स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। भूमि तथा श्रम के पारस्परिक सहयोग द्वारा पूँजी होती है। भूमि पर अपने श्रम का प्रयोग कर ही मनुष्य पूँजी का सृजन करता है। इसी प्रकार, संगठन और उद्यम भी एक विशिष्ट प्रकार का श्रम है। इस प्रकार, इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार केवल भूमि और श्रम ही उत्पादन के मौलिक साधन है। 
लेकिन, अधिकांश अर्थशास्त्रियों के अनुसार भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन एवं उद्यम उत्पादन के प्रमुख साधन है। भूमि और श्रम को उत्पादन का मौलिक साधन कहा गया है। पूँजी उत्पादन का एक सहायक साधन है। इसके प्रयोग से उत्पादन की मात्रा में बहुत वृद्धि लाई जा सकती है। परंतु वर्तमान में संगठन एवं उद्यम भी उत्पादन की एक अनिवार्य आवश्यकता है जिसके अभाव में वृहत पैमाने पर उत्पादन संभव नही है। हमारी उत्पादन-व्यवस्था दिन-प्रतिदिन जटिल होती जा रही है। तथा इसके संचालन के लिए विशेष ज्ञान, प्रबंधन योग्यता, कौशल एवं दूरदर्शिता की आवश्यकता होती है। आधुनिक उत्पादन व्यवस्था में इस आवश्यकता की पूर्ति संगठन एवं उद्यम द्वारा की जाती है।
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि उत्पादन के विभिन्न साधनों का सापेक्षिक महत्व बताना अत्यंत कठिन है। वास्तव में, उत्पादन का प्रत्येक साधन अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है। उत्पादन कार्य सभी साधनों के पारस्परिक सहयोग से होता है तथा इनमें किसी भी साधन की उपेक्षा नहीं की जा सकती। 

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