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Bharati Bhawan Class 10th Economics Chapter 3 | Short Questions Answer | Bihar Board Class 10 Arthshastr | मुद्रा, बचत एवं साख | भारती भवन कक्षा 10वीं अर्थशास्त्र अध्याय 3 | लघु उत्तरीय प्रश्न

Bharati Bhawan Class 10th Economics Chapter 3  Short Questions Answer  Bihar Board Class 10 Arthshastr  मुद्रा, बचत एवं साख  भारती भवन कक्षा 10वीं अर्थशास्त्र अध्याय 3  लघु उत्तरीय प्रश्न
Bharati Bhawan
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. मुद्रा आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की समस्या का कैसे समाधान करती है ? सोदाहरण स्पष्ट करें।
उत्तर-मुद्रा के आविष्कार के पूर्व वस्तु-विनिमय का प्रचलन था। परंतु, इसके अंतर्गत वस्तुओं का आदान-प्रदान तभी किया जा सकता है, जब दो व्यक्तियों की पारस्परिक आवश्यकताओं में समानता हो। उदाहरण के लिए एक समय में एक व्यक्ति की आवश्यकता एक गाय की है, परंतु दूसरे व्यक्ति के पास एक बकरी है तो इस अवस्था में विनिमय संभव नहीं है। इस प्रकार मुद्रा के प्रयोग से आवश्यकताओं के दौहरे संयोग की समस्या समाप्त हो गई। 
2. वस्तु- मुद्रा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर- अति प्राचीनकाल में जब मुद्रा का प्रचलन नहीं था उस सम्रये मनुष्य मुद्रा के रूप में वस्तुओं का प्रयोग किया गया। आखेट युग में जानवरों के खाल या चमड़े का पशुपालन युग में गाय, बैल या बकरी का तथा कृषि युग में कृषि पदार्थों का मुद्रा के रूप में उपयोग किया गया इसे वस्तु मुद्रा कहा गया।
3. किसी व्यक्ति की बचत करने की क्षमता को प्रभावित करनेवाला सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व क्या है ?
उत्तर- बचत करने की शक्ति या क्षमता को प्रभावित करनेवाला सबसे महत्वपूर्ण तत्व व्यक्ति की आय तथा आय का समाज में वितरण है। जिस देश में राष्ट्रीय आय का वितरण असमान होता है, वहाँ बचत करने की शक्ति अधिक होती है।
4. किसी व्यक्ति की बचत करने की इच्छा किन बातों से प्रभावित होती है ? 
उत्तर- बचत करने की मात्रा बचत करने की इच्छा पर निर्भर करती है । बचत करने की इच्छा अनिश्चित भविष्य को देखकर और सोचकर, पारिवारिक स्नेह के कारण, धनी व्यक्तियों के प्रतिष्ठा और सम्मान देखकर करता है। कुछ व्यक्ति स्वभाव से कंजूस होते हैं उनमें बचा करे की इच्छा अधिक होती है।
5. साख की उत्पत्ति एवं विकास की विवेचना कीजिए।
उत्तर- साख की उत्पत्ति का इतिहास मुद्रा से भी बहुत पुराना है। वस्तु विनिमय प्रणाली में भी भविष्य में भुगतान करने के वादे पर उधार लेने और देने का कार्य होता था। परंतु, वर्तमान की अपेक्षा उस समय साख का क्षेत्र बहुत सीमित था।
मुद्रा के आविष्कार के बाद साख प्रणाली का बहुत अधिक विस्तार हुआ है। मौद्रिक अर्थव्यवस्था में ऋणों के लेन-देन का कार्य अधिक सुगम है तथा इसमें ऋणदाता केवल ऋणी व्यक्ति की ईमानदारी एवं उसकी ऋण लौटाने की सामर्थ्य की जाँच करता है। प्रारंभ में केवल उपभोग के लिए साख की माँग होती थी। साख की माँग ऐसे व्यक्तियों द्वारा की जाती थी जिनकी आय-व्यय की अपेक्षा कम होती थी। लेकिन, औद्योगिक क्रांति के बाद बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा तथा औद्योगिक प्रगति के साथ-साथ साख की माँग भी बढ़ने लगी। अब साख की पूर्ति उन लोगों के द्वारा की जाने लगी, जिनके पास संचित धनराशि थी। लेकिन, इस प्रकार के व्यक्ति बिखरे हुए थे। इसके फलस्वरूप ऐसी संस्थाओं की आवश्यक अनुभव होने लगी, जो विभिन्न व्यक्तियों के पास बिखरी हुई धनराशि को एकत्र कर ऐसे व्यक्ति या संस्थाओं को कर्ज दें जिन्हें उनको आवश्यकता है। बैंक की स्थापना से यह कमी भी पूरी हो गई। इन्होंने ऋणी एवं ऋणदातों के बीच मध्यस्थ का कार्य करना प्रारंभ कर दिया जिससे साख की मात्रा में बहुत अधिक वृद्धि हुई है।
6. साख के गुण या लाभ बताएँ।
उत्तर- अर्थव्यवस्था के संचालन में साख की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। साख पूँजी को गतिशीलता प्रदान कर उद्योग एवं व्यापार के विकास में योगदान देता है। साख के प्रचलन से पूँजी की उत्पादकता में वृद्धि होती है। साख का प्रयोग होने से अधिकांश लेन-देन साख पत्रों (चेक, ड्राफ्ट इत्यादि) के माध्यम से होते हैं। इससे मुद्रा की आवश्यकता घट जाती है। साख से बच्चत और पूँजी निर्माण में भी वृद्धि होती हैं साख का विस्तार और संकुचन अधिक सरलता एवं शीघ्र से किया जा सकता है।
7. वस्तु विनिमय क्या है ? सोदाहरण समझाएँ ।
उत्तर- आदिकाल में मनुष्य का व्यापार पूर्णत: वस्तु विनिमय पर आधारित था। जब किसी वस्तु या सेवा का विनिमय किसी अन्य वस्तु या सेवा के साथ प्रत्यक्ष रूप से से किया जाता है तब इसे वस्तु विनिमय कहते हैं। इसमें विनिमय के लिए द्रव्य या मुद्रा का प्रयोग नहीं होता। उदाहरण के लिए, जब एक किसान चावल देकर जुलाहे से कपड़ा लेता है, तब हम इसे वस्तु-विनिमय कहेंगे। इस प्रकार, वस्तु विनिमय से हमारा अभिप्राय एक ऐसी प्रणाली से है जिसमें किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ प्रत्यक्ष आदान-प्रदान होता है तथा दोनों पक्षों में विनिमय की इकाइयाँ भौतिक वस्तुएँ और सेवाएँ होती हैं।
वस्तु - विनिमय विनिमय का प्रारंभिक स्वरूप था तथा अब यह प्रणाली लगभग समाप्त हो गई है।
8. विनिमय के मुख्य स्वरूप कौन-कौन से हैं ?
उत्तर - विनिमय के दो प्रधान रूप हैं- वस्तु विनिमय प्रणाली तथा मौद्रिक विनिमय प्रणाली | जब किसी वस्तु या सेवा का विनिमय किसी अन्य वस्तु या सेवा के साथ प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है, तब इसे वस्तु-विनिमय कहते हैं। अति प्राचीन काल में वस्तु विनिमय प्रणाली का प्रचलन था। इसके अंतर्गत वस्तुओं की प्रत्यक्ष अदला-बदली होती है। इसलिए, इसे प्रत्यक्ष विनिमय भी कहते हैं।
इसके विपरीत, जब वस्तुओं और सेवाओं को विनिमय मुद्रा के माध्यम से होता है तो इसे मौद्रिक विनिमय कहते हैं। इसके अंतर्गत वस्तुओं या सेवाओं का विनिमय प्रत्यक्ष रूप से न होकर परोक्ष रूप से होता है। अतः इसे अप्रत्यक्ष विनिमय भी कहते हैं। उदाहरण के लिए, एक किसान पहले अपना अनाज बेचकर इस रुपये से कपड़ा, चीनी, तेल आदि आवश्यकता की दूसरी वस्तुएँ खरीदता है ।
9. विनिमय की आवश्यकता क्यों होती है ? 
उत्तर-आर्थिक विकास के प्रारंभिक काल में मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सीमित थीं और वह स्वयं वस्तुओं का उत्पादन कर उनकी पूर्ति कर लेता था। परंतु, मानव सभ्यता एवं आर्थिक विकास के साथ मनुष्य की आवश्यकताओं में भी वृद्धि होती गई और वह अपनी सभी आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करने में अपने आपको असमर्थ पाने लगा। इस प्रकार, मनुष्य की आवश्यकताओं में वृद्धि के कारण समाज में विनिमय का प्रादुर्भाव हुआ। आधुनिक समय में मनुष्य अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं नहीं कर सकता। वह केवल एक ही वस्तु का उत्पादन करता है और विनिमय के द्वारा अपनी आवश्यकता की अन्य वस्तुओं को प्राप्त करता है। एक ही वस्तु का उत्पादन करने से उसकी कुशलता एवं कार्यक्षमता में भी वृद्धि होती है इस प्रकार, आधुनिक युग में विनिमय के द्वारा ही मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि संभव है।
10. वस्तु या पदार्थ मुद्रा से आप क्या समझते हैं ? 
उत्तर-विनिमय का प्रारंभिक स्वरूप वस्तु विनिमय का था तथा इसके अंतर्गत लोग अपनी वस्तुओं या सेवाओं का प्रत्यक्ष लेन-देन करते थे। लेकिन, इसमें अनेक कठिनाइयाँ थीं। इस कठिनाई को दूर करने के लिए लोगों ने एक प्रधान वस्तु का चुनाव किया। अब सभी वस्तुओं का मूल्य इस एक वस्तु के द्वारा निर्धारित होने लगा और इसे विनिमय का माध्यम बनाया गया। इसी प्रधान वस्तु को 'वस्तु मुद्रा' कहते हैं। इस प्रकार, वस्तु या पदार्थ मुद्रा (commodity money) मुद्रा का प्राचीनतम रूप है। विभिन्न देशों तथा जातियों ने विभिन्न अवसरों पर अलग-अलग वस्तुओं का मुद्रा के रूप में प्रयोग किया है। जैसे—आखेट युग में जानवरों के खाल या चमड़े का, पशुपालन युग में गाय, बैल आदि पशुओं का तथा कृषि युग में कृषि-पदार्थों का।
11. मुद्रा का प्रधान या प्राथमिक कार्य क्या है ?
उत्तर - विनिमय का माध्यम तथा मूल्य मापन का कार्य मुद्रा के प्रधान या प्राथमिक कार्य है। मुद्रा विनिमय का माध्यम है। यह मुद्रा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है, क्योंकि हमारा संपूर्ण . आर्थिक जीवन विनिमय र हा आधारित है। आज प्राय: सभी प्रकार का विनिमय या व्यापार मुद्रा के माध्यम से होता है। यही कारण है कि इसे विनिमय का माध्यम कहा जाता है। मुद्रा का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को मापना है। मुद्रा मूल्य का मापक है। यह मूल्य को मापने में इकाई का कार्य करती है। जिस प्रकार लंबाई को मीटर से या वजन को किलोग्राम से मापते हैं, ठीक उसी प्रकार किसी वस्तु या सेवा के मूल्य को मुद्रा के द्वारा मापा जाता है। एक आधुनिक अर्थव्यवस्था में मुद्रा कई अन्य कार्यों का भी संपादन करती है। लेकिन, ये दोनों इसके प्रधान या प्राथमिक कार्य हैं।
12. मुद्रा की परिभाषा दें।
उत्तर - मुद्रा विनिमय का माध्यम है तथा विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने इसकी अलग-अलग परिभाषा दी है। प्रो. रॉबर्टसन के अनुसार, "मुद्रा से उन सभी पदार्थों का बोध होता है, जिसे वस्तुओं का मूल्य चुकाने तथा अन्य सभी प्रकार के व्यावसायिक दायित्वों को निबटाने के लिए व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है । " मार्शल ने मुद्रा की परिभाषा देते हुए बताया है, "मुद्रा में वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित की जाती हैं जो बिना संदेह अथवा विशेष जाँच के वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने तथा खर्चों को चुकाने में साधारणतया प्रचलित रहती हैं। " ने इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि कोई भी वस्तु जिसे लोग विनिमय के माध्यम के रूप में स्वीकार करते हैं तथा जो मूल्य को मापने एवं संपत्ति के संचय का कार्य करती है, मुद्रा कही जाएगी।
13. बचत क्या है ? स्पष्ट करो 
उत्तर- किसी भी देश के आर्थिक जीवन में बचत का विशेष महत्त्व है। बचत के द्वारा ही पूँजी का निर्माण होता है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति या परिवार को कुछ आय होती है। इस आय के दो उपयोग हो सकते हैं। प्राय: इसका एक बड़ा भाग उपभोग पर खर्च होता है और शेष बचा लिया जाता है। उपभोग व्यय वस्तुओं और सेवाओं पर किया जानेवाला व्यय है। इस व्यय से मनुष्य की वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। बचत आय का वह भाग है जिसका वर्तमान में उपभोग नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति की मासिक आय 10,000 रुपये है जिसमें से वह 9,000 रुपये उपभोग पर व्यय करता है तो शेष 1,000 रुपये उसकी बचत है। 
इस प्रकार, कुल आय - उपभोग व्यय = बचत    
14. साख का अर्थ स्पष्ट करें |
उत्तर- आज प्रायः सभी प्रकार की उत्पादक क्रियाओं के लिए साख की आवश्यकता होती है। शब्दकोष के अनुसार साख का अर्थ विश्वास या भरोसा करना है। परंतु, साख शब्द का यह व्यापक अर्थ है। आर्थिक शब्दावली में जब हम किसी व्यक्ति या संस्था की साख का उल्लेख करते हैं, तब इससे उसकी ईमानदारी तथा ऋण लौटाने की क्षमता का बोध होता है। जिस व्यक्ति को आसानी से ऋण या उधार मिल जाता है, हम कहते हैं कि उसकी साख अधिक है। नकद लेन-देन में किसी वस्तु के मूल्य का भुगतान तत्काल कर दिया जाता है। लेकिन, साख के लेन-देन में इस भुगतान को एक निश्चित अवधि के लिए टाल दिया जाता है। यदि माल बेचनेवाले को खरीदनेवाले पर विश्वास नहीं हो तो भुगतान को टालना या स्थगित करना संभव नहीं होगा। इस प्रकार, विश्वास ही साख का आधार है।
15. साखपत्र क्या है ? कुछ प्रमुख साखपत्रों का उल्लेख करें |
उत्तर- साखपत्रों से अभिप्राय उन पत्रों या साधनों से होता हैं जिनका साख- मुद्रा अर्थात भविष्य में भुगतान करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इन पत्रों के आधार पर ऋणों का आदान-प्रदान तथा वस्तुओं और सेवाओं का क्रय-विक्रय होता है। एक आधुनिक अर्थव्यवस्था के संचालन में साख-पत्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है तथा अधिकांश व्यापारिक लेन-देन इन्हीं के माध्यम से होते हैं। वास्तव में मुद्रा नहीं होने पर भी साखपत्र मुद्रा के कार्यों का ही संपादन करते हैं। साखपत्र एक प्रकार का लिखित प्रतिज्ञापत्र होता है। इसे लिखनेवाला व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति अथवा उसके द्वारा आदेशित व्यक्ति या वाहक को तत्काल अथवा एक निश्चित अवधि के पश्चात साखपत्र में उल्लेख की गई रकम अदा करने का वादा करता है। साखपत्रों के कई प्रकार हैं जिनमें चेक, ड्राफ्ट, यात्री - चेक, हुण्डी, हिक्का या वादापत्र प्रमुख हैं। 
16. एण्टीनाम और क्रेडिट कार्ड क्या है ?
उत्तर- आधुनिक समय में नगरों में स्थित अधिकांश व्यावसायिक बैंक ए.टी.एम. (Automatic Teller Machine, ATM) की सुविधा प्रदान करने लगे हैं। ए.टी.एम. कार्ड से ग्राहक विशेष बैंकों में स्थापित स्वचालित मशीनों द्वारा किसी भी समय रुपया निकाल सकते हैं अथवा जमा कर सकते हैं। क्रेडिट कार्ड से कोई व्यक्ति कुछ विशेष प्रतिष्ठानों से खरीददारी कर इस कार्ड से उसका भुगतान कर सकता है। इसके अंतर्गत बैंक अपने ग्राहकों के लिए एक अधिकतम राशि निर्धारित कर देता है जिसका वे वस्तुओं और सेवाओं के क्रय के लिए प्रयोग कर सकते हैं। ए.टी.एम. तथा क्रेडिट कार्ड प्लास्टिक के बने होते हैं। अतः, इन्हें प्लास्टिक मुद्रा भी कहा जाता है।  
17. "मुद्रा वह धुरी या केंद्रबिंदु है जिसके चारों ओर अर्थविज्ञान घूमता है।" इस कथन का आशय स्पष्ट करें।
अथवा, "मुद्रा आधुनिक अर्थतंत्र की धुरी है।" कैसे ?
उत्तर- हमारी अर्थव्यवस्था में मुद्रा का स्थान बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। मुद्रा के प्रयोग से उपभोग, उत्पादन, विनिमय, वितरण तथा राजस्व अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र को बहुत लाभ हुआ है। मुद्रा के रूप में आय मिलने पर कोई भी व्यक्ति उसे अपनी इच्छा एवं सुविधानुसार खर्च कर सकता है। यह उपभोक्ताओं को अपनी सीमित आय के द्वारा अधिकतम संतोष प्राप्त करने में सहायता करती है। उत्पादकों को भी मुद्रा से अनेक लाभ हुए हैं। मुद्रा के अभाव में बड़े पैमाने का उत्पादन संभव नहीं था। उत्पादकों को मुद्रा के द्वारा उत्पादन के विभिन्न साधनों को जुटाने, कच्चा माल खरीदने, श्रमिकों को पारिश्रिमिक देने तथा पूँजी उधार लेने में बहुत आसानी हो गई है। आज मुद्रा विनिमय का भी सर्वमान्य साधन है तथा इसके प्रयोग से वस्तुओं का मूल्य निर्धारण एवं क्रय-विक्रय का कार्य अत्यंत सरल हो गया है। मुद्रा के द्वारा ही उत्पादन के विभिन्न साधनों की सीमांत उत्पादकता की माप की जाती है और उनका पारिश्रमिक दिया जाता है। मुद्रा के रूप में सरकार को कर आदि लगाने में भी सुविधा होती है। इस प्रकार मार्शल ने बहुत ठीक कहा है कि मुद्रा वह धुरी या केन्द्र है जिसके चारों ओर अर्थविज्ञान घूमता है।
18. विधिग्राह्य मुद्रा तथा ऐच्छिक मुद्रा में अंतर बताएँ। 
उत्तर- वैधानिक दृष्टि से मुद्रा को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है— विधिग्राह्य मुद्रा तथा ऐच्छिक मुद्रा। विधिग्राह्य मुद्रा उसे कहते हैं जिसे देश के अंदर वैधानिक मान्यता प्राप्त रहती है। कानून के मुताबिक, विनिमय कार्यों में अथवा अन्य किसी प्रकार के भुगतान में इसे लेने से इनकार नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, भारतीय रिजर्व बैंक या सरकार द्वारा जारी किए गए नोट और सिक्के विधिग्राह्य मुद्रा हैं। विधिग्राह्य मुद्रा भी दो प्रकार की होती है— सीमित विधिग्राहय मुद्रा तथा असीमित विधिग्राह्य मुद्रा । सीमित विधिग्राह्य मुद्रा को एक निश्चित सीमा के ऊपर स्वीकार करने के लिए किसी व्यक्ति को बाध्य नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, भारत में छोटे सिक्के 25 रुपये तक ही विधिग्राह्य होते हैं। इसके विपरीत, असीमित विधिग्राह्य मुद्रा वह है, जिसे भुगतान के साधन के रूप में किसी भी सीमा तक स्वीकार करना पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति इसे असीमित मात्रा में लेने से इनकार करता है तो वह सरकार द्वारा दंडित किया जाता है। ऐच्छिक मुद्रा वह होती है, जिसे स्वीकार करने के लिए कानून किसी व्यक्ति को बाध्य नहीं करता। इस प्रकार की मुद्रा को लोग सुविधा के कारण स्वयं अपनी इच्छा से स्वीकार करते हैं। चेक, ड्राफ्ट, हुंडी इत्यादि ऐच्छिक मुद्रा के उदाहरण हैं।
19. वास्तविक मुद्रा तथा हिसाब की मुद्रा में क्या अंतर है ?
उत्तर- प्रो० केन्स ने मुद्रा को दो भागों में विभाजित किया है— वास्तविक मुद्रा (actual money) तथा हिसाब की मुद्रा (money of account) । वास्तविक मुद्रा वह है जो वास्तव में किसी देश में प्रचलित होती है। देश के अंदर वस्तुओं का क्रय-विक्रय, ऋणों का लेन-देन तथा धन या संपत्ति का संचय इसी मुद्रा के द्वारा होता है। वास्तविक मुद्रा को मुख्य मुद्रा (money proper) भी कहते हैं। इसके विपरीत, हिसाब की मुद्रा वह है जिसमें सभी प्रकार के हिसाब-किताब रख जाते हैं। इस प्रकार की मुद्रा का चालन में होता आवश्यक नहीं है। हिसाब की मुद्रा को लेखे की मुद्रा भी कहते हैं।
सामान्यत: किसी देश में वास्तविक तथा हिसाब या लेखे की मुद्रा एक होती है। लेकिन, संकटकाल में ये अलग-अलग भी हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, प्रथम विश्वयुद्ध के समय जर्मनी में वास्तविक तथा हिसाब की मुद्रा दोनों को पृथक कर दिया गया था। उस समय जर्मनी की वास्तविक मुद्रा जर्मन मार्क (Mark) थी, लेकिन हिसाब की मुद्रा फ्रांसीसी फ्रैंक (Franc) तथा अमेरिकी डॉलर (Dollar) थी, अर्थात मार्क विनिमय के माध्यम का कार्य करती थी, लेकिन हिसाब-किताब रखने के लिए फ्रैंक या डॉलर का प्रयोग होता था। इसका कारण जर्मन मार्क के मूल्य में गिरावट या अस्थायित्व था।
20. मुद्रा के प्रयोग से वस्तुओं का विनिमय कैसे सरल हो जाता है ? 
उत्तर- वस्तु विनिमय प्रणाली में आवश्यकताओं के दोहरे संयोग का अभाव था। जिससे वस्तुओं का विनिमय संभव नहीं था। मुद्रा से वस्तु-विनिमय करने में तथा वस्तुओं के मूल्य मापने में आसानी हो गई। मुद्रा के प्रयोग से आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की समस्या भी दूर हो गई।
21. कार्य के अनुसार सख के विभिन्न प्रकार क्या है?
उत्तर- प्रायः सभी प्रकार के उत्पादक क्रियाकलापों के लिए साख या ऋण की आवश्यकता होती है। इन क्रियाओं के आधार पर साख के निम्नलिखित भेद या प्रकार हैं-
(i) औद्योगिक साख- उद्योगपतियों द्वारा उद्योगों की स्थापना के लिए जो साख ली जाती है, उसे औद्योगिक साख कहते हैं। इस प्रकार की साख या ऋण भूमि, मकान, मशीन आदि खरीदने के उद्देश्य से लिए जाते हैं। हमारे देश में उद्योगों की बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इसक प्रकार के साख का अभाव है।
(ii) व्यावसायिक साख– इस प्रकार की साख व्यापारियों द्वारा माल खरीदने, मजदूरी का भुगतान करने तथा प्रचार एवं विज्ञापन आदि के लिए होते हैं। व्यावसायिक साख से अभिप्राय इन्हीं अल्पकालीन ऋणों से होता है।
(iii) कृषि साख- किसानों द्वारा सिंचाई की व्यवस्था करने, भूमि को समतल बनाने, महँगे कृषियंत्र आदि खरीदने के लिए दीर्घकालीन तथा खाद, बीज आदि के लिए अल्पकालीन ऋण लिए जाते हैं, जिन्हें कृषिसंबंधी साख कहा जाता है। भारत में कृषि साख के वर्तमान साधन अपर्याप्त हैं। इससे कृषिकार्यों में असुविधा होती है।
22. समय के अनुसार साख के मुख्य भेद या प्रकार क्या हैं ? 
उत्तर- साख का प्रायः समय के आधार पर भी वर्गीकरण किया जाता है। समय के अनुसार साख के निम्नलिखित तीन भेद या प्रकार हैं
(i) अल्पकालीन साख—अल्पकालीन साख की अवधि अधिक-से-अधिक एक वर्ष तक की होती है। उद्योगपतियों को कच्चा माल खरीदने, वेतन, मजदूरी आदि का भुगतान करने तथा अन्य दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अल्पकालीन साख की जरूरत होती है। कृषिकार्यों के लिए इस प्रकार की साख प्राय: एक फसल से दूसरी फसल तक के लिए प्राप्त किए जाते हैं तथा फसल कटने के बाद किसान इन्हें वापस लौटा देते हैं। 
(ii) मध्यकालीन साख- एक वर्ष से पाँच वर्ष तक की अवधि के ऋण मध्यकालीन साख कहलाते हैं। ये ऋण कृषि तथा उद्योगों के लिए साधारण मूल्यवाली स्थायी संपत्ति खरीदने के लिए 
(iii) दीर्घकालीन साख- पाँच वर्ष से लंबी अवधि के ऋण दीर्घकालीन कहे जाते हैं। कृषक जमीन, ट्रैक्टर आदि खरीदने तथा अपनी भूमि पर स्थायी सुधार लाने के लिए दीर्घकालीन साख लेते हैं। उद्योगपतियों को कारखाने का निर्माण करने तथा बहुत महँगी मशीन, यंत्र आदि प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के ऋण की आवश्यकता होती है। इन ऋणों का भुगतान प्रायः किश्तों में किया जाता है तथा इनपर ब्याज की दर भी अधिक होती है।

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