1. वस्तु विनिमय प्रणाली में मुख्य कठिनाई क्या थीं? मुद्रा ने इस कठिनाई को कैसे दूर किया है ?
उत्तर-वस्तु-विनिमय प्रणाली में मुख्य कठिनाई निम्नलिखित थी ।
(i) दोहरे संयोग का अभाव- वस्तु विनिमय प्रणाली में आवश्यकताओं के दोहरे संयोग का अभाव था। इसके अंतर्गत ऐसे दो व्यक्तियों में संपर्क होना आवश्यक है जिनके पास एक-दूसरे की आवश्यकता की वस्तुएँ हों । वास्तविक जीवन में इस प्रकार का संयोग बहुत कठिनाई से होता है।
(ii) मापन की कठिनाई- एक समान मापदंड के अभाव के कारण दो वस्तुओं के बीच विनिमय का अनुपात निश्चित करना कठिन था। जैसे—एक किलोग्राम गेहूँ के बदले कितने गाय या कपड़े दिया जाए यह तय करना मुश्किल था।
(iii) अविभाज्य वस्तुओं के विनिमय में उत्पन्न समस्याएँ — पशुओं को विनिमय करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। क्योंकि इनको विभाज्य करने पर इनकी उपयोगिता नष्ट हो जाती है। जैसे— एक मीटर कपड़े के बदले घोड़े या गाय का विनिमय। इसमें घोड़े के काटने के बाद उसकी उपयोगिता ही समाप्त हो जाएगी।
(iv) मूल्य संचयन का अभाव- उत्पादित वस्तुओं का दीर्घकाल तक संचित करके नहीं रख सकते। जैसे—फल, फूल, सब्जी, मछली इत्यादि ।
(v) भविष्य में भुगतान की कठिनाई- कुछ ऐसी वस्तुएँ जो उधार के तौर पर दूसरे व्यक्ति से ली गई हैं यदि उसे कुछ वर्षों बाद वापस कर दी जाती है तो उसकी उपयोगिता या तो घट जाती है या समाप्त हो जाती है।
(vi) मूल्य हस्तांतरण की समस्या – यदि कोई व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है तो ऐसी स्थिति में उसे सारी सम्पत्ति छोड़ कर जाना पड़ सकता है। वस्तु-1 -विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों ने ही मुद्रा को जन्म दिया। मुद्रा के विनिमय के माध्यम होने से वस्तु विनिमय प्रणाली के आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की कठिनाई दूर हो गई। मुद्रा के द्वारा वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य मापने में आसानी हो गयी। मुद्रा के द्वारा अविभाज्य वस्तुओं का आसानी से मूल्य मापन से उनकी समस्या का समाधान भी हो गया। मुद्रा के रूप में संपत्ति का संचय आसानी से होने लगा। इस प्रकार मुद्रा के प्रचलन में आने से वस्तु-विनिमय प्रणाली की सभी कठिनाइयों का समाधान आसानी से संभव हुआ।
2. मुद्रा के विकास की विवेचना करें।
उत्तर- वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों ने ही मुद्रा को जन्म दिया। परंतु, मुद्रा का आविष्कार अचानक नहीं हुआ। मुद्रा के रूप में समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। विभिन्न देशों एवं विभिन्न जातियों में जो मुद्रा व्यवस्था प्रचलित थीं, वह भी एक दूसरे से सर्वथा भिन्न थी। मुद्रा के इतिहास को हम निम्न वर्गों में बाँट सकते हैं—
(i) वस्तु विनिमय प्रणाली- आरम्भ में वस्तु ही मुद्रा का कार्य करता था और एक वस्तु के बदले दूसरे वस्तु दी जाती थी।
(ii) वस्तु मुद्रा — इसमें युगों के अनुसार वस्तुओं को मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाता था। जैसे आखेट युग में जानवरों के खाल या चमड़े का पशुपालन युग में गाय, बैल बकरी आदि पशुओं का तथा कृषि युग में कृषि पदार्थों का प्रयोग मुद्रा के रूप में किया जाता था।
(iii) घात्विक मुद्रा – वस्तु - मुद्रा में वस्तुओं को अधिक समय तक संचित नहीं किया जा सकता तथा उनमें वहनीयता के अभाव के कारण धात्विक मुद्रा का प्रचलन आरंभ हुआ । विभिन्न देशों में तथा विभिन्न अवसरों पर लोहा, ताँबा, पीतल, सोना, चाँदी आदि सभी धातुओं का मुद्रा के रूप में प्रयोग किया गया। इन धातुओं में सोना-चाँदी का मुद्रा के रूप में सबसे अधिक प्रयोग हुआ है।
(iv) सिक्के— धातुओं से निर्मित ऐसी धातुओं का प्रचलन हुआ जो देश की सार्वभौम सरकार की मुहर से चालित होता था।
(v) पत्र- मुद्रा - धातु- मुद्रा का प्रयोग अधिक खर्चीला और असुविधाजनक होने के कारण धातु मुद्रा के स्थान पर पत्र मुद्रा का आविष्कार हुआ और धीरे-धीरे धातुओं का प्रयोग कम होता गया।
(vi) प्लास्टिक मुद्रा- ये आधुनिकतम मुद्राओं के रूप में समाने आए है। ए.टी.एम. सह डेविट कार्ड, क्रेडिट कार्ड इत्यादि इसके उदाहरण है।
3. मुद्रा की परिभाषा दीजिए तथा इसके प्रमुख कार्यों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- मुद्रा की एक सर्वसम्मत परिभाषा देना कठिन है। मुद्रा के सर्वमान्य के आधार पर कार्यों के आधार पर तथा वैधानिक आधार पर विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने अलग-अलग परिभाषा दी है। अर्थशास्त्री रॉबर्टसन के अनुसार " मुद्रा वह वस्तु है जिसे वस्तुओं का मूल्य चुकाने तथा अन्य प्रकार के व्यावसायिक दायित्वों को निपटाने के लिए व्यापक रूप में स्वीकार किया जाता है। परंतु मुद्रा को राज्य द्वारा अनुमोदित होना भी आवश्यक है।
आधुनिक अर्थव्यवस्था में मुद्रा अनेक महत्वपूर्ण कार्यों का संपादन करती है।
(i) विनिमय के माध्यम के रूप में- मुद्रा विनिमय के माध्यम के रूप में कार्य करता है। इससे वस्तुओं और सेवाओं का किसी भी समय कम किया जा सकता है। क्योंकि हमारा संपूर्ण आधुनिक आर्थिक जीवन विनिमय पर आधारित है। मुद्रा का विधि-ग्राह्य तथा सर्वमान्य होने के कारण इसे आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है। को
(ii) मूल्य का मापक - मुद्रा के द्वारा सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य मापा जा सकता है। इस प्रकार आज प्रत्येक वस्तुओं का मूल्य मुद्रा के रूप में क्रय क्रिया जा सकता है। मुद्रा मूल्यं को मापने में इकाई का कार्य करती है।
(iii) मूल्य का संचयन- मुद्रा को दीर्घकाल तक हम रख सकते हैं। इसे बचत कर दीर्घकाल की आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं।
(iv) क्रय शक्ति का हस्तांतरण- मुद्रा का महत्वपूर्ण कार्य क्रय शक्ति का हस्तांतरण है। कोई भी व्यक्ति किसी एक स्थान पर अपनी संपत्ति बेचकर किसी अन्य स्थान पर नयी संपत्ति खरीद सकता है। इसमें मूल्य मुद्रा के आधार पर होता है, अतः क्रयशक्ति को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक आसानी से हस्तांतरित किया जा सकता है।
4. मुद्रा से आप क्या समझते हैं ? इसके कार्य क्या है ?
उत्तर - मुद्रा एक ऐसी वस्तु है जिससे हम सभी परिचित है तथा जिसका हम नित्य व्यवहार के कार्यों में प्रयोग करते हैं। इस प्रकार मुद्रा का हमारे आर्थिक जीवन में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। जैसा कि मार्शल ने कहा है, "मुद्रा वह धुरी है जिसके चारों ओर अर्थविज्ञान घूमता है। " वास्तव में मुद्रा मनुष्य के महानतम आविष्कारों में एक है।
अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत मुद्रा का कार्य सर्वोपरि है। यह निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करती है।
(1) विनिमय के माध्यम के रूप में- मुद्रा विनिमय का सबसे बड़ा माध्यम है। इसकी सहायता से हम कोई भी वस्तु किसी समय अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप खरीद सकते हैं।
(ii) मूल्य का मापक- मुद्रा मूल्य का मापक भी है। इसके माध्यम से हम किन्हीं दो वस्तुओं के मध्य मूल्य के आधार पर आसानी से विनिमय कर सकते हैं।
(iii) मूल्य का संचयन–मुद्रा को हम अपनी आवश्यकताओं के अनुसार दीर्घकाल तक रखें सकते हैं। मुद्रा की बचत कर हम अपनी भविष्य की आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर सकते हैं।
(iv) क्रय शक्ति का हस्तांतरण- वर्तमान समय में विनिमय का विस्तार हो जाने के कारण दूर-दूर तक क्रय-विक्रय करने की आवश्यकता पड़ती है। वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ये जाने में कठिनाई होती थी। मुद्रा को बहुत सुगमता से स्थानांतरित किया जा सकता है।
(v) भविष्य के भुगतान के रूप में- मुद्रा भविष्य के या विलंबित भुगतान के मान का कार्य करती है। मुद्रा का प्रयोग केवल वर्तमान भुगतान के लिए ही नहीं होता, बल्कि भविष्य में भुगतान करने के लिए भी होता है।
5. मुद्रा के महत्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर- हमारी अर्थव्यवस्था में मुद्रा का स्थान बड़ा ही महत्वपूर्ण है। जैसा कि मार्शल ने कहा, " मुद्रा वह धुरी है, जिसके चारों ओर अर्थविज्ञान घूमता है।" वास्तव में, मुद्रा मनुष्य के महानतम आविष्कारों में एक है। जिस प्रकार यंत्रविज्ञान में चक्र विज्ञान में अग्नि तथा राजनीति में वोट आधार-स्तंभ है, उसी प्रकार अर्थशास्त्र एवं मनुष्य के संपूर्ण सामाजिक जीवन में मुद्रा सबसे उपयोगी आविष्कार है। "
क्या आप सोच सकते हैं कि मुद्रा के अभाव में आपका आर्थिक जीवन कैसा होग? इस स्थिति में आपको अपना वेतन या पारिश्रमिक किसी ऐसी वस्तु के यप में प्राप्त हो सकता है जिसकी आपको कोई आवश्यकता नहीं है। मुद्रा हमारी क्रय-शक्ति का सामन्यीकरण कर देती है जिससे हम इसका अपनी इच्छानुसार प्रयोग कर सकते हैं।
मुद्रा के प्रयोग से उपभोक्ताओं को बहुत अधिक लाभ हुआ है। मुद्रा के रूप में आय प्राप्त होने पर कोई भी व्यक्ति उसे अपनी इच्छा एवं सुविधानुसार खर्च कर सकता है। मुद्रा के द्वारा क्रय-शक्ति ऐसे रूप में होती है जिसका हम जिस प्रकार से चाहें उपयोग कर सकते हैं। यह उपभोक्ताओं को अपनी सीमित आय से अधिकतम संतोष प्रदान करने में सहायता करती है। मुद्रा के द्वारा ही वह विभिन्न वस्तुओं से मिलनेवाली उपयोगिताओं की तुलना करता है। उपभोक्ताओं की इच्छाएँ मुद्रा, अर्थात मूल्य के माध्यम से ही बाजार में व्यक्त होती हैं तथा उत्पादक इसी के अनुसार वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करते हैं।
वस्तु-विनिमय प्रणाली में विनिमय का क्षेत्र अत्यंत संकुचित हो जाता है। इसलिए, इसके अंतर्गत श्रम-विभाजन एवं वृहत पैमाने का उत्पादन संभव नहीं था। मुद्रा के प्रयोग से ही आज बड़े पैमाने का उत्पादन संभव हुआ है। उत्पादकों को मुद्रा के द्वारा उत्पादन के विभिन्न साधनों को जुटाने, कच्चा माल खरीदने, श्रमिकों को पारश्रिमिक देने तथा पूँजी उधार लेने में बहुत आसानी हो गई है। मुद्रा से ही उत्पादक विभिन्न साधनों की उत्पादकता की तुलना करता है और उन्हें इस प्रकार प्रयोग में लाता है कि कम-से-कम लागत या खर्च पर अधिक से अधिक उत्पादन हो। -
मुद्रा ने वस्तु विनिमय प्रणाली की भी कठिनाइयों को दूर कर दिया है। मुद्रा विनिमय का सर्वमान्य साधन है। इसके प्रयोग से वस्तुओं का क्रय-विक्रय तथा मूल्य निर्धारण अत्यंत सरल हो गया है। मुद्रा का व्यवहार होने से बाजार का विस्तार हुआ है तथा व्यापार के परिमाण अथवा मात्रा में अत्यधिक वृद्धि हुई है। मुद्रा राष्ट्रीय आय के वितरण में भी सहायता प्रदान करती है। वर्तमान समय में वस्तुओं का उत्पादन कई साधनों के सहयोग से होता है। उत्पादन के विभिन्न साधनों की उत्पादकता को मापने का कार्य मुद्रा के द्वारा ही होता है। इस साधनों का पारिश्रमिक भी मुद्रा के रूप में दिया जाता है । मुद्रा से राजस्व के क्षेत्र में भी सहायता मिलती है। सरकार करों के रूप में जनता से आय प्राप्त करती है और इसे सामाजिक कल्याण के कार्यों पर खर्चकरती है। ये दोनों ही कार्य मुद्रा के प्रयोग से सरल हो जाते हैं।
6. बचत क्या है ? बचत को प्रभावित करनेवाले तत्त्वों की विवेचना कीजिए।
उत्तर - किसी देश के आर्थिक जीवन में बचत का विशेष महत्त्व है । बचत के द्वारा ही पूँजी का निर्माण होता है जिसका उद्योग, व्यापार एवं अन्य उत्पादक क्रियाकलापों में निवेश किया जाता है। परंतु, बचत क्या है ? प्रत्येक व्यक्ति या परिवार की कुछ आय होती है। इस आय के दो उपयोग हो सकते हैं। प्रायः इसका एक बड़ा भाग उपभोग पर खर्च होता है और शेष बचा लिया जाता है। इस प्रकार, बचत आय का वह भाग है नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति की मासिक आय 20,000 रुपये है जिसमें से वह 15,000 रुपये उपभोग पर व्यय करता है तो 5,000 रुपये उसकी बचत है। अतः,
कुल आय - उपभोग व्यय = बचत
बचत के द्वारा ही पूँजी का निर्माण होता है जो उत्पादक क्रियाकलापों तथाप धन अथवा संपत्ति के उत्पादन में सहायक होती है। प्रो. केन्स के अनुसार बचत की प्रवृत्ति या मात्रा निम्नांकित तीन तत्त्वों से प्रभावित होती है
(i) बचत करने की शक्ति -बचत करने की शक्ति या क्षमता सर्वप्रथम व्यक्ति की आय पर निर्भर करती है। वही व्यक्ति बचत कर सकता है जिसकी आय न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति से अधिक है। आय में वृटि होने के साथ ही बचत की मात्रा भी बढ़ती है। बचत करने की .शक्ति आय एवं धन के वितरण पर भी निर्भर करती है। जिस देश में आय का वितरण असमान होता है, वहाँ बचत करने की शक्ति भी अधिक होती है। इसका कारण यह है कि आय का समान वितरण होने पर सभी व्यक्तियों की आय कम हो जाती है। बचत करने की शक्ति को प्रभावित करनेवाला एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व देश के आर्थिक विकास का स्तर है। देश के आर्थिक दृष्टि से विकसित होने पर लोगों की आय अधिक होती है। इससे उनकी बचत करने की शक्ति या क्षमता बढ़ती है।
(ii) बचत करने की इच्छा- बचत की मात्रा बचत करने की इच्छा पर भी निर्भर करती है। बचत करने की शक्ति या क्षमता रहने पर भी अगर लोगों में बचत करने की इच्छा नहीं है, तब बचत संभव नहीं होगी। बचत करने की इच्छा भी कई बातों से प्रभावित होती है। जो व्यक्ति दूरदर्शी होते हैं वे भविष्य के बारे में सोचते हैं। वे अनिश्चित भविष्य के लिए अपनी आय का कुछ भाग अवश्य बचाकर रखते हैं। पारिवारिक स्नेह, सामाजिक सम्मान, परोपकार की भावना आदि जैसे कई अन्य व्यक्तिगत तत्त्व भी बचत करने की इच्छा को प्रभावित करते हैं।
(iii) बचत करने की सुविधाएँ- बचत के लिए देश में बचत करने की सुविधाओं का होना भी आवश्यक है। यदि देश के अंदर शांति नहीं है, बाह्य आक्रमण का डर बना रहता है, लोगों की संपत्ति की सुरक्षा नहीं है, तब स्वभावतः बचत कम होगी। बचत के लिए शांति व्यवस्था का वातावरण होना अत्यंत आवश्यक है। देश में उद्योग तथा व्यवसाय में निवेश के लाभदायक अवसर उपलब्ध रहने पर बचत को प्रोत्साहन मिलता है। बचत के लिए मुद्रा के मूल्य में स्थायित्व भी आवश्यक है। मुद्रा के मूल्य में कमी हो जाने पर लोगों की वास्तविक बचत कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में वे बचत करना नहीं चाहते हैं ।
7. बैंक किस प्रकार साख का सृजन करते हैं? क्या इनकी साख-सृजन अथवा साख निर्माण की क्षमता असीमित है ?
उत्तर- आधुनिक अर्थव्यवस्था में साख का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। साख की वर्तमान आर्थिक प्रणाली की आधारशिला माना गया है।
साख अथवा बैंक - मुद्रा का निर्माण देश के व्यावसायिक बैंकों द्वारा किया जाता है। बैंक प्रायः उत्पादकों एवं व्यापारियों के लिए अल्पकालीन ऋण या साख की व्यवस्था करते हैं। परंतु, बैंक इन्हें किस आधार पर साख प्रदान करते हैं ? साख का निर्माण बैंकों में जनता द्वारा जमा किए गए धन के आधार पर होता है। बैंकों के साथ निर्माण की पद्धति को एक उदाहरण द्वारा अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। मान लीजिए कि कोई व्यक्ति बैंक के अपने खाता में 10,000 रुपये की राशि जमा करता है। चूँकि ग्राहक बैंक में जमा अपने धन को किसी समय भी निकाल सकते हैं, इसलिए बैंक को इतनी रकम हर समय अपने पास रखनी चाहिए। परंतु, बैंक व्यवहार में ऐसा समय नहीं करते। मान लें कि एक निश्चित समय में कुल जमाराशि के 10 प्रतिशत भाग की ही जमाकर्ताओं द्वारा माँग की जाती है। ऐसी स्थिति में 10,000 रुपये के जमा में से 1,000 रुपये नकद रखकर बैंक शेष 9,000 रुपये दूसरों को ऋण या साख के रूप में दे सकता है। बहुत संभव है कि ऋण-प्राप्तकर्ता इस 9,000 रुपये को पुनः उसी बैंक अथवा किसी अन्य बैंक में जमा कर दे। दूसरे शब्दों में, यह राशि बैंकिंग प्रणाली को फिर जमा के रूप में प्राप्त हो जाती है। अतएव, बैंक इस जमा का भी 10 प्रतिशत अर्थात 900 रुपये अपने नकद कोष में रखकर शेष 8,100 रुपये पुन: उधार दे सकता है। इस प्रकार, बैंक का यह क्रम चलता रहेगा और वह अपनी मूल जमाराशि से कई गुना अधिक साख का निर्माण कर सकता है। >
परंतु, बैंकों की साख निर्माण की क्षमता असीमित नहीं होती। नकद मुद्रा साख-सृजन का मुख्य आधार है। अतएव, केंद्रीय बैंक द्वारा जारी की गई मुद्रा की मात्रा जितनी अधिक होगी, व्यावसायिक बैंक उतनी ही अधिक साख का निर्माण कर सकते हैं। यही कारण है कि जब केंद्रीय बैंक मुद्रा की पूर्ति को घटा देता है तब बैंकों को साख-सृजन की शक्ति भी स्वतः घट जाती है। इसके अतिरिक्त बैंकों के साख-निर्माण की क्षमता केंद्रीय बैंक में रखे जानेवाले नकद कोष के अनुपात, जनता की बैंकिंग संबंधी आदतों तथा साख अथवा ऋण की मोग आदि निर्भर करती है।
8. मुद्रा के आर्थिक महत्त्व अथवा लाभों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-हमारी अर्थव्यवस्था में मुद्रा का स्थान बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। जैसा कि मार्शल ने कहा है, “मुद्रा वह धुरी है, जिसके चारों ओर अर्थविज्ञान घूमता है।" वास्तव में, मुद्रा मनुष्य के महानतम आविष्कारों में एक है। जिस प्रकार यंत्रविज्ञान में चक्र, विज्ञान में अग्नि तथा राजनीति में वोट आधार-स्तंभ हैं, उसी प्रकार अर्थशास्त्र एवं मनुष्य के संपूर्ण सामाजिक जीवन में मुद्रा सबसे उपयोगी आविष्कार है। मुद्रा के मुख्य लाभ निम्नांकित हैं।
(i) उपभोक्ताओं को लाभ-मुद्रा के प्रयोग से उपभोक्ताओं को बहुत अधिक लाभ हुआ है। मुद्रा के रूप में आय प्राप्त होने पर कोई भी व्यक्ति उसे अपनी इच्छा एवं सुविधानुसार खर्च कर सकता है। मुद्रा के द्वारा क्रयशक्ति ऐसे रूप में होती है जिसका हम जिस प्रकार चाहें, उपयोग कर सकते हैं। यह उपभोक्ताओं को अपनी सीमित आय से अधिकतम संतोष प्राप्त करने में सहायता करती है।
(ii) उत्पादकों को लाभ — उत्पादकों को भी मुद्रा से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। मुद्रा के प्रयोग से ही आज बड़े पैमाने का उत्पादन संभव हुआ है। उत्पादकों को मुद्रा के द्वारा उत्पादन के विभिन्न साधनों को जुटाने, कच्चा माल खरीदने, श्रमिकों को पारिश्रमिक देने तथा पूँजी उधार लेने में बहुत आसानी हो गई है। मुद्रा के उपयोग से ही श्रम-विभाजन एवं विशिष्टीकरण की सुविधा प्राप्त हुई है। (iii) विनिमय के क्षेत्र में लाभ —मुद्रा के आविष्कार से वस्तु विनिमय प्रणाली की सभी कठिनाइयाँ समाप्त हो गई हैं। मुद्रा विनिमय का सर्वमान्य साधन है। इसके प्रयोग से वस्तुओं का क्रय-विक्रय तथा मूल्य-निर्धारण अत्यंत सरल हो गया है। मुद्रा का व्यवहार होने से बाजार का विस्तार हुआ है तथा व्यापार के परिमाण में बहुत वृद्धि हुई है।
(iv) वितरण के क्षेत्र में लाभ – वर्तमान समय में वस्तुओं का उत्पादन कई साधनों के सहयोग से होता है। उत्पादन के विभिन्न साधनों की सीमांत उत्पादकता को मापने का कार्य मुद्रा के द्वारा ही होता है। इन साधनों का पुरस्कार भी मुद्रा के रूप में दिया जाता है। इस प्रकार, मुद्रा राष्ट्रीय आय के वितरण में सहायता करती है।
(v) राजस्व के क्षेत्र में लाभ - मुद्रा से राजस्व के क्षेत्र में भी सहायता मिलती है। सरकार करों के रूप में जनता से आय प्राप्त करती है और इसे सामाजिक कल्याण के कार्यों पर खर्च करती है। ये दोनों ही कार्य मुद्रा के प्रयोग से सरल हो जाते हैं।
उपर्युक्त लाभों के अतिरिक्त मुद्रा से समाज को और भी अनेक लाभ हुए हैं। मुद्रा के प्रयोग से बचत और पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन मिला है तथा पूँजी की गतिशीलता में वृद्धि हुई है। मुद्रा के द्वारा ऋणों के लेन-देन तथा अग्रिम भुगतान में सुविधा होती है। एक आधुनिक अर्थव्यवस्था में साख का अत्यधिक महत्त्व है तथा मुद्रा साख का आधार है।
9. मुद्रा के गुण एवं दोषों की विवेचना कीजिए।
उत्तर- मुद्रा के गुण या लाभ - प्रश्न संख्या 6 का उत्तर देखें। मुद्रा एक अमिश्रित वरदान नहीं है। लाभ या गुणों के साथ ही इसमें कुछ दोष भी हैं। मुद्रा के मुख्य दोष निम्नांकित हैं—
(i) मूल्य में अस्थिरता— मुद्रा का सबसे प्रमुख दोष इसके मूल्य में होनेवाला परिवर्तन है। मुद्रा के मूल्य में तीव्र तथा अचानक होनेवाले परिवर्तनों का हमारी अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप उपभोक्ताओं के जीवन स्तर, उद्योग, व्यवसाय तथा उतार-चढ़ाव उत्पन्न होते हैं। इससे समाज की अपार क्षति होती है। हजारों हैं तथा औद्योगिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
(ii) आय और धन के वितरण में असमानता- मुद्रा के कारण समाज में संपत्ति का वितरण भी प्रभावित होता है। उत्पादन के साधन कुछ थोड़े-से व्यक्तियों के पास एकत्र हो जाते हैं तथा समाज के अधिकतर लोग इससे वंचित रह जाते हैं। इससे समाज में आय और धन के वितरण की विषमता बढ़ती है।
(iii) ऋणग्रस्तता में वृद्धि - मुद्रा ने उधार लेने और देने के कार्य को सरल बना दिया है। इससे लोगों को ऋण लेने में प्रोत्साहन मिलता है। फलस्वरूप, समाज में ऋणग्रस्तता की मात्रा में वृद्धि हुई है। है ले
(iv) आर्थिक सत्ता का केंद्रीकरण- मुद्रा के आविष्कार एवं प्रयोग से आर्थिक सत्ता कुछ थोड़े-से व्यक्तियों के हाथ में केंद्रित हो गई है। इससे पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अनेक बुराइयों का जन्म होता है।
इस प्रकार, मुद्रा में गुण के साथ ही कुछ दोष भी हैं। लेकिन, मुद्रा के अधिकांश दोष मानव-स्वभाव के कारण उत्पन्न होते हैं तथा उचित नियंत्रण के द्वारा उन्हें दूर किया जा सकता है।
10. साख के मुख्य आधार क्या है ? विस्तार पूर्वक चर्चा करें।
उत्तर- साख के निम्नलिखित मुख्य आधार है
(i) विशवास- साख का मुख्य आधार विश्वास है। कोई भी व्यक्ति ऋण लेने वाले के ऊपर भरोसे के आधार पर ही ऋण देता है।
(ii) चरित्र- ऋणदाता ऋणी व्यक्ति के चरित्र के आधार पर ऋण देता है। यदि ऋणी व्यक्ति चरित्रवान तथा ईमानदार है तो उसे आसानी से ऋण दे दी जाती है।
(iii) ऋण चुकाने की क्षमता- ऋणदाता किसी व्यक्ति को उधार तब देता है जब उस व्यक्ति के भुगतान करने की क्षमता पर पूर्ण विश्वास हो ।
(iv) पूँजी एवं संपत्ति- जिस व्यक्ति के पास जितनी ही अधिक पूँजी अथवा संपत्ति होगी, उसे उतना ही अधिक ऋण मिल सकता है।
(v) ऋण की अवधि- ऋण की अवधि का प्रभाव भी साख देने की क्षमता पर पड़ सकता है। ऋण देने वाले को यह भय लगा रहता है कि समय अधिक बीतने पर ऋणी की क्षमता, चरित्र और आर्थिक स्थिति बदल न जाए। सभी बातें साख देने के मुख्य आधार है।
Hello My Dear, ये पोस्ट आपको कैसा लगा कृपया अवश्य बताइए और साथ में आपको क्या चाहिए वो बताइए ताकि मैं आपके लिए कुछ कर सकूँ धन्यवाद |