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Bharati Bhawan Class 10th Economics Chapter 2 | Long Questions Answer | Bihar Board Class 10 Arthshastr | राज्य एवं राष्ट्र की आय | भारती भवन कक्षा 10वीं अर्थशास्त्र अध्याय 2 | दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

Bharati Bhawan Class 10th Economics Chapter 2  Long Questions Answer  Bihar Board Class 10 Arthshastr  राज्य एवं राष्ट्र की आय  भारती भवन कक्षा 10वीं अर्थशास्त्र अध्याय 2  दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
Bharati Bhawan
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. राष्ट्रीय आय की परिभाषा दीजिए। अल्फ्रेड मार्शल, प्रो० पीगू तथा प्रो० फिशर की राष्ट्रीय आय की परिभाषाओं में क्या अंतर है ?
उत्तर- किसी देश के अंदर एक निश्चित अवधि में उत्पादित समस्त वस्तुओं और सेवाओं का मौद्रिक मूल्य राष्ट्रीय आय है। दूसरे शब्दों में एक वर्ष में किसी देश में अर्जित आय की कुल मात्रा को राष्ट्रीय आय कहते हैं।
राष्ट्रीय आय के संबंध में विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने अपने-अपने विचार प्रकट किए है, इनमें मार्शल, पीगू तथा फिशर का विचार राष्ट्रीय आय के निर्धारण में महत्वपूर्ण है; परन्तु इनके विचारों में भी निम्नलिखित विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं—
पींगू के अनुसार, "राष्ट्रीय लाभांश किसी समाज की वास्तविक आय का वह भाग है जिसमें विदेशों से प्राप्त आय भी सम्मिलित है, जिसे मुद्रा के रूप में मापा जा सकता है। 
" मार्शल के विचारों से पीगू ने सहमति जताई है और उत्पादित संपत्ति को ही राष्ट्रीय आय का आधार माना है। परन्तु पीगू ने केवल उन्हीं वस्तुओं और सेवाओं को राष्ट्रीय आय में सम्मिलित किया है, जिनका विनिमय होता है, अर्थात जिनका मापन मुद्रा द्वारा हो सके। मार्शल और पीगू के ठीक विपरीत फिशर ने उत्पादन की अपेक्षा उपभोग को राष्ट्रीय आय का आधार माना है।
प्रो० फिशर के अनुसार- " वासतविक राष्ट्रीय आय वार्षिक शुद्ध उत्पादन का वह भाग है जिसका उस वर्ष में प्रत्यक्ष रूप से उपभोग किया जाता है। "
2. राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में मुद्र के चक्रीया प्रवाह की विवेचना कीजिए। 
उत्तर-आधुनिक समय में राष्ट्रीय आय की धारणा को प्रायः उत्पादन के साधनों की आय के रूप में व्यक्त किया जाता है तथा इसकी उत्पत्ति अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की उत्पादन प्रक्रिया में होती है।
राष्ट्रीय आय की अवधारणा का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करने के लिए अर्थव्यवस्था में आय के चक्रीय प्रवाह को समझना अत्यंत आवश्यक है। आय एक प्रवाह है तथा इसका सृजन उत्पादक क्रियाओं द्वारा होता है । यद्यपि सभी प्रकार की आर्थिक क्रियाओं का अंतिम उद्देश्य उपभोग द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि है, लेकिन उत्पादन के बिना उपभोग संभव नहीं होगा। वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन, उत्पादन के चार साधनों— भूमि, श्रम, पूँजी एवं उद्यम के सहयोग से होता है। उत्पादन के ये साधन एक निश्चित अवधि में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करते हैं। यह उत्पादन प्रक्रिया का एक पक्ष है। परंतु, इसका एक दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष भी है जिसका संबंध उत्पादन के उन साधनों की आय या पारिश्रमिक से है जिन्होंने इन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन किया है। इस प्रकार, उत्पादन प्रक्रिया के द्वारा अर्थव्यवस्था में जहाँ एक ओर वस्तुओं और सेवाओं का निरंतर एक प्रवाह जारी रहता है वहाँ एक दूसरा प्रवाह उत्पादन के साधनों की आय के रूप में होता है। यदि हम किसी देश की अर्थव्यवस्था को उत्पादक उद्योगों एवं उपभोक्ता परिवारों के दो क्षेत्र में विभक्त कर दें तो हम देखेंगे कि इनके बीच उत्पादन, आय एवं व्यय का निरंतर एक प्रवाह चल रहा है। उत्पादक या उद्यमी वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। इसके लिए उन्हें उत्पादन के साधनों की सेवाओं की आवश्यकता होती है। इस प्रकार, उत्पादन के क्रम में साधनों की आय का सर्जन होता है। उत्पादक उत्पादन के साधनों को उत्पादन क्रिया. में भाग लेने के लिए उन्हें जो भुगतान करता है वह उनकी आय कहलाती है।
परंतु, किसी भी उत्पादक को उत्पादन के साधनों के पारिश्रमिक का भुगतान करने के लिए आवश्यक साधन कहाँ से प्राप्त होते हैं ? वह अपनी उत्पादित वस्तुओं को उपभोक्ता परिवारों के हाथ बेचता है जिससे उस आय प्राप्त होती है। इसी आय से वह इन साधनों का पारिश्रमिक चुकाता है। विभिन्न उपभोक्ता परिवार ही उत्पादन के साधनों के स्वामी होते हैं तथा उत्पादन के साधन के रूप में उन्हें लगाने, मजदूरी, ब्याज एवं लाभ प्राप्त होता है। यह उनकी आय होती है । इस आय को वे पुनः वस्तुओं और सेवाओं पर खर्च करते हैं। इस प्रकार, हम देखते हैं कि अर्थव्यवस्था में उत्पादकों से साधन आय के रूप में आय का चक्रीय प्रवाह उपभोक्ता परिवारों के पास पहुँचता है और पुन: इन परिवारों द्वारा वस्तुओं और सेवाओं पर किए जानेवाले व्यय के माध्यम से उत्पादकों के पास आ जाता है। आय का यह प्रवाह निरंतर जारी रहता है तथा इसे आय का चक्रीय प्रवाह (circular flow of income) कहते हैं ।
3. "कुल राष्ट्रीय आय की धारणा कुल राष्ट्रीय उत्पादन की धारणा पर आधारित है।" व्याख्या कीजिए|
उत्तर- कुल राष्ट्रीय उत्पादन एक वर्ष के अंतर्गत जिन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है उनके मौद्रिक मूल्य को कहते हैं। कुल राष्ट्रीय उत्पादन में केवल चालू वर्ष में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का मौद्रिक मूल्य ही शामिल रहता है।
कुल राष्ट्रीय आय की धारणा कुल राष्ट्रीय उत्पादन की धारणा पर आधारित है। क्योंकि हम जानते हैं कि अर्थव्यवस्था में उत्पादन प्रवाह के द्वारा आय के प्रवाह का निर्माण होता है। कुल राष्ट्रीय उत्पादन का प्रवाह ही कुल राष्ट्रीय आय का प्रवाह उत्पन्न करता है। 
इसलिए उत्पादन के साधनों द्वारा अर्जित आय राष्ट्रीय उत्पादन की सृष्टि करते हैं जो कुल राष्ट्रीय आय के बराबर होता है। इस प्रकार, कुल राष्ट्रीय आय और कुल राष्ट्रीय उत्पादन दोनों समान होते हैं। तथा इनमें कोई मौलिक अंतर नहीं है।
इस तरह कुल राष्ट्रीय की धारणा कुल राष्ट्रीय उत्पादन की धारणा पर आधारित है। 
4. राष्ट्रीय आय की परिभाषा दीजिए तथा इसे मापने के तरीका की विवेचना कीजिए। 
उत्तर- किसी भी देश में एक वर्ष के अंतर्गत जिन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है उनके मौद्रिक मूल्य को राष्ट्रीय आय कहते हैं। राष्ट्रीय आय में विदेशों से प्राप्त होने वाली आय भी सम्मिलित होती है।
राष्ट्रीय आय की धारणा उत्पादन आय एवं व्यय तीनों दृष्टियों से विचार किया जाता है। इन्हीं विचारों के अनुरूप राष्ट्रीय आय की माप या गणना करने तीन मुख्य तरीके हैं, जो निम्नलिखित हैं
(i) उत्पत्ति-गणना पद्धति- इसका सर्वप्रथम प्रयोग ब्रिटेन में किया गया था। उत्पत्ति गणना पद्धति के अन्तर्गत देश की अर्थव्यवस्था को विभिन्न क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है तथा सभी क्षेत्रों द्वारा एक वर्ष के अन्तर्गत उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं के बाजार मूल्य तथा शुद्ध निर्यात को जोड़कर कुल उत्पादन एवं राष्ट्रीय आय का पता लगाया जाता है।
उत्पत्ति-गणना पद्धति के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि राष्ट्रीय आय की में प्राय: दोहरी गणना की संभावना रहती है। उदाहरण के लिए चीनी में गत को मूल्य करने शामिल है, यदि हम दोनों की कीमत अलग-अलग जोड़े तो दोहरी गणना की संभावना उत्पन्न हो जाती है। 
(ii) आय-गणना पद्धति- आय गणना पद्धति के अनुसार किसी देश के सभी नागरिकों और व्यावसायिक संस्थाओं की आय की गणना की जाती है तथा उनकी शुद्ध आय के योगफल को राष्ट्रीय आय कहा जाता है। यह पद्धति विकसित देशों में उपयुक्त है।
(iii) व्यय गणना पद्धति- इस विधि में वस्तुओं और सेवाओं पर किए गए अंतिम व्यय को मापने का प्रयास किया जाता है। इसमें निजी उपभोग व्यय सरकारी व्यय घरेलु निजी निवेश तथा वस्तुओं और सेवाओं के शुद्ध निर्यात को जोड़कर राष्ट्रीय आय की गणना की जाती है। यह प्रणाली अधिक लोकप्रिय नहीं है, क्योंकि व्यय संबंधी सही जानकारी कठिन है।
5. किसी देश के आर्थिक विकास में राजकीय, राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय का क्या योगदान होता है .
उत्तर- राजकीय आय का अभिप्राय राज्य अथवा सरकार को प्राप्त होनेवाली समस्त आय से है। आधुनिक सरकारों का उद्देश्य देश में लोककल्याणकारी कार्यों को कर आर्थिक विकास करना है। स्पष्ट है कि राजकीय आय अधिक होने पर ही सरकार विकास कार्यों में अधिक योगदान कर सकती है। अर्द्धविकसित एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में सरकार के सहयोग से ही सुदृढ़ आर्थिक संरचना का निर्माण किया जा सकता है।
आर्थिक विकास का राष्ट्रीय आय से घनिष्ठ संबंध है। देश के आर्थिक विकास के लिए राष्ट्रीय आय में वृद्धि आवश्यक है। सामान्यता राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने पर देशवासियों की प्रतिव्यक्ति आय भी बढ़ती है। इस प्रकार राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि होने पर देशवासियों के जीवन स्तर में सुधार होता है जो देश के आर्थिक विकास का सूचक है।
इस प्रकार किसी भी देश के आर्थिक विकास में राजकीय, राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ये तीनों ही हमारे आर्थिक जीवन रहन-सहन के स्तर और विकास को प्रभावित करते हैं।
6. राष्ट्रीय आय की परिभाषा दीजिए। इसकी कौन-सी परिभाषा सबसे उपयुक्त है ? 
उत्तर- आधुनिक अर्थशास्त्र का अध्ययन राष्ट्रीय आय की धारणा से संबद्ध है। राष्ट्रीय आय का स्तर किस प्रकार निर्धारित होता है, किन कारणों से इसमें परिवर्तन होते हैं तथा इसमें वृद्धि या कमी के क्या कारण हैं, ये अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं।
राष्ट्रीय आय की मुख्यत: तीन परिभाषाएँ दी जाती हैं
(i) मार्शल की परिभाषा—अलफ्रेड मार्शल (Alfred Marshall) के अनुसार, "किसी देश का श्रम और पूँजी उसके प्राकृतिक साधनों पर क्रियाशील होकर प्रतिवर्ष वस्तुओं का एक शुद्ध समूह उत्पन्न करते हैं, जिसमें भौतिक और अभौतिक पदार्थ तथा सभी प्रकार की सेवाएँ सम्मिलित रहती हैं। यह देश की वास्तविक विशुद्ध वार्षिक आय या राष्ट्रीय लाभांश हैं।" (The labour and capital of a country acting on its natural resources produce annually a certain net aggregate of commodities, material and immaterial including services of all kinds. This is the true net annual income or revenue of the country or the national dividend.)
इस प्रकार, मार्शल के अनुसार, देश के प्राकृतिक साधनों पर श्रम और पूँजी का प्रयोग करने से प्रतिवर्ष वस्तुओं और सेवाओं का एक समूह पैदा होता है, जिसे कुल उत्पत्ति कहते हैं। लेकिन, यह कुल उत्पादन विशुद्ध राष्ट्रीय आय नहीं है; क्योंकि इसे प्राप्त करने में मशीनों आदि की घिसावट के रूप में पिछली आय का भी कुछ अंश खर्च हुआ है। इसलिए, एक वर्ष में अचल पूँजी की घिसावट, प्रतिस्थापन-व्यय आदि निकालने के बाद जो शेष वर्ष की राष्ट्रीय आय है। बचता 33 के उत्पादन है, वह उस
(ii) प्रो० पीगू की परिभाषा - प्रो० पीगू (Prof. Pigou) के अनुसार, "राष्ट्रीय समाज की वास्तविक आय का वह भाग है जिसमें विदेशों से प्राप्त आय भी सम्मिलित मुद्रा के रूप में मापा जा सकता है।" (National dividend is that part of the objective किसी है, जिसे income of the community, including of course, income derived from abroad, which can be measured in money.)
मार्शल की तरह पीगू ने भी उत्पादित संपत्ति को ही राष्ट्रीय आय का आधार माना है, लेकिन इन्होंने केवल उन्हीं वस्तुओं तथा सेवाओं को राष्ट्रीय आय में सम्मिलित किया है जिनका विनिमय होता है, अर्थात जिन्हें मुद्रा द्वारा मापा जा सकता है।
(iii) प्रो० फिशर की परिभाषा-प्रो० फिशर (Prof. Fisher) के अनुसार, "वास्तविक राष्ट्रीय आय वार्षिक शुद्ध उत्पादन का वह भाग है जिसका उस वर्ष में प्रत्यक्ष रूप से उपभोग किया जाता है । " ( The true national income is that part of annual net produce which is directly consumed during that year.)
इस प्रकार, मार्शल और पीगू के ठीक विपरीत फिशर ने उत्पादन की अपेक्षा उपभोग को राष्ट्रीय आय का आधार माना है। इनके अनुसार, उत्पादित वस्तुओं में कुछ पूँजीगत वस्तुएँ भी होती हैं। अतः केवल उन्हीं वस्तुओं की राष्ट्रीय आय में गणना होनी चाहिए जिनका उस वर्ष में उपभोग होता है।
इस प्रकार, विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने राष्ट्रीय आय की धारणा पर अलग-अलग दृष्टिकोण से विचार किया है। लेकिन, इनमें मार्शल की परिभाषा ही सबसे सरल एवं उपयुक्त जान पड़ती है। फिशर की परिभाषा अधिक निश्चित होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से दोषपूर्ण है; क्योंकि एक वर्ष के अंतर्गत उपभोग की जानेवाली वस्तुओं की गणना का कार्य बहुत कठिन है। इसी प्रकार, पीगू ने वस्तुओं और सेवाओं के बीच एक कृत्रिम विभाजन कर दिया है। इनके अनुसार, जिन वस्तुओं या सेवाओं का विनिमय नहीं होता तथा जिनके लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता है, उनकी राष्ट्रीय आय में गणना नहीं होगी। अतः, मार्शल की परिभाषा ही अधिक व्यापक तथा व्यावहारिक है।
7. राष्ट्रीय आय को मापने या उसकी गणना करने की कौन -सी विधियाँ है? उनका संक्षेप में उल्लेख करें।
उत्तर- एक अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के साथ ही आय का सृजन आय को वस्तुओं एवं सेवाओं के प्रवाह, आय प्रवाह तथा व्यय प्रवाह के रूप में व्यक्त कर सकते हैं। इन्हीं धारणाओं के अनुरूप राष्ट्रीय आय की माप या गणना करने की भी निम्नलिखित तीन मुख्य विधियाँ हैं
(i) उत्पत्ति- गणना पद्धति (Census of production of output method)- इस तरीके का प्रयोग सर्वप्रथम 1907 में ब्रिटेन में किया गया था। उत्पत्ति या उत्पादन - गणना पद्धति के अंतर्गत देश की अर्थव्यवस्था को कृषि, उद्योग, व्यापार, परिवहन आदि क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। इसके पश्चात इन सभी क्षेत्रों द्वारा एक वर्ष के अंतर्गत उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं के बाजार मूल्य तथा शुद्ध निर्यात को जोड़कर कुल उत्पादन एवं राष्ट्रीय आय का पता लगाया जाता है। परंतु, इस विधि द्वारा राष्ट्रीय आय की गणना करने में प्राय: दोहरी गणना की संभावना रहती है। उदाहरण के लिए, चीनी के मूल्य में गन्ने का मूल्य भी शामिल है। यदि हम इन दोनों के मूल्य को राष्ट्रीय आय में जोड़ देते हैं तो एक ही वस्तु की दोबारा गणना हो जाएगी। अतः, उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य की माप के लिए कई बार मूल्य-योग विधि (value added method) का प्रयोग किया जाता है। इस विधि के अनुसार, यह आकलन किया जाता है कि उत्पादन की विभिन्न इकाइयों ने प्रत्येक स्तर पर किसी वस्तु के मूल्य में कितनी वृद्धि की है। इससे राष्ट्रीय आय में एक ही वस्तु के दोबारा गणना होने की संभावना नहीं रहती है। 
(ii) आय-गणना पद्धति (Census of income method) — इस विधि के अनुसार, देश के सभी नागरिकों और व्यावसायिक संस्थाओं की आय की गणना की जाती है तथा उनकी शुद्ध आय के योगफल को राष्ट्रीय आय कहा जाता है। लेकिन, यह पद्धति एक ऐसे देश के लिए अधिक उपयुक्त है जहाँ अधिकांश व्यक्ति आयकर चुकाते हैं। इस स्थिति में उनकी आय का विवरण आसानी से प्राप्त हो जाता है। परंतु, इस तरीके का प्रयोग करने में भी इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि एक ही आय को दोबारा नहीं गिन लिया जाए।
(iii) व्यय-गणना पद्धति (Census of expenditure method) — यह विधि एक वर्ष के अंतर्गत वस्तुओं एवं सेवाओं पर किए गए अंतिम व्यय को मापने का प्रयास करती है। इसमें निजी उपभोग व्यय, सरकारी व्यय, निजी घरेलू निवेश तथा वस्तुओं और सेवाओं के शुद्ध निर्यात को जोड़कर राष्ट्रीय आय की गणना की जाती है। लेकिन, यह प्रणाली अधिक लोकप्रिय नहीं है, क्योंकि व्यय संबंधी सही जानकारी प्राप्त करना बहुत कठिन है।
8. राष्ट्रीय आय की गणना का महत्त्व बताएँ।
उत्तर- राष्ट्रीय आय संबंधी आँकड़े कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। इनसे हमें किसी देश की अर्थव्यवस्था के कार्य-संपादन तथा वर्तमान स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है। राष्ट्रीय आय का विवेचन निम्नलिखित कारणों से महत्त्वपूर्ण है -
(i) आर्थिक विकास का मापदंड- राष्ट्रीय आय किसी देश के आर्थिक विकास एवं प्रगति का मापदंड होता है। यदि देश के कुल उत्पादन तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो रही है तो सामान्यतः इसका अर्थ यह होगा कि अर्थव्यवस्था विकास की दिशा में अग्रसर है।
(ii) जीवन स्तर की जानकारी- राष्ट्रीय आय के अध्ययन से देशवासियों के जीवन स्तर की भी जानकारी प्राप्त होती है। राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने पर प्रतिव्यक्ति आय बढ़ती है। इसके फलस्वरूप देशवासियों का जीवन स्तर भी बढ़ता है। इस प्रकार, राष्ट्रीय आय आर्थिक कल्याण को प्रभावित करती है। जैसा किप्रो० हेबरलर (Haberler) ने कहा है, "अन्य बातों के समान रहने पर, राष्ट्रीय आय के अधिक होने से आर्थिक कल्याण भी अधिक होता है।"
(iii) अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों का ज्ञान - राष्ट्रीय आय के माध्यम से हमें यह पता चलता है कि कृषि, उद्योग, व्यापार आदि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में क्या परिवर्तन हुए तथा देश की कुल राष्ट्रीय आय में उनका क्या योगदान है।
(iv) समाज में धन का वितरण - राष्ट्रीय आय से इस बात का भी पता चलता है कि देश में उत्पादित आय एवं संपत्ति का वितरण किस प्रकार हुआ है। राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने पर भी - यदि समाज में आय का वितरण असमान है तो अधिकांश लोगों के जीवन स्तर में सुधार नहीं होगा।
(v) आर्थिक नीति-निर्धारण- देश की आर्थिक नीति के निर्धारण में भी राष्ट्रीय आय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रीय आय की गणना में एकत्र किए जानेवाले आँकड़ों के आधार पर ही सरकार बजट बनाती है तथा रोजगार, कर, सार्वजनिक व्यय तथा मुद्रा एवं साख नीति का निर्माण करती है।
(vi) तुलनात्मक अध्ययन- तुलनात्मक आर्थिक विवेचन के लिए भी राष्ट्रीय आय का अध्ययन आवश्यक है। विभिन्न देशों की आर्थिक व्यवस्थाओं, उनके कार्य-संपादन तथा लोगों के रहन-सहन के स्तर का तुलनात्मक अध्ययन राष्ट्रीय आय के द्वारा ही संभव है।
(vii) आर्थिक नियोजन- राष्ट्रीय आय संबंधी आँकड़े के अभाव में आर्थिक नियोजन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। विकास योजनाओं का निर्माण तथा योजना के लक्ष्यों को निर्धारित करने के लिए आय, उपभोग, बचत एवं निवेश संबंधी विश्वसनीय आँकड़े अत्यावश्यक है।  
9. किसी देश के आर्थिक विकास में राजकीय, राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय का क्या योगदान होता है ?
उत्तर - किसी भी देश के आर्थिक विकास में राजकीय, राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। ये तीनों ही हमारे आर्थिक जीवन, रहन-सहन को प्रभावित करते हैं। के स्तर तथा आय का विकास 223 राजकीय आय का अभिप्राय राज्य अथवा सरकार को प्राप्त होनेवाली आय से होता है। प्राचीनकाल में सरकार का कार्य देश को विदेशी आक्रमण से बचाना तथा देश के अंदर विधि-व्यवस्था कायम रखने तक सीमित था। लेकिन, आधुनिक समय में लोककल्याण की भावना के विकास के साथ ही सरकार का कार्यक्षेत्र बहुत विस्तृत हो गया है। इसके फलस्वरूप आज सभी देशों की सरकारें करों आदि के द्वारा बहत अधिक आय अथवा धन एकत्र करने का प्रयास करती हैं तथा इस धन को सुरक्षा, प्रशासन आदि के साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य एवं विकासात्मक कार्यों पर व्यय करती हैं। स्पष्ट है कि राजकीय आय अधिक होने पर ही सरकार विकास कार्यों में अधिक योगदान कर सकती है। भारतीय अर्थव्यवस्था एक अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था है। सरकार के सक्रिय सहयोग के बिना इस प्रकार की अर्थव्यवस्था का विकास संभव नहीं है । अर्द्धविकसित एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में संरचनात्मक सुविधाओं का सर्वथा अभाव होता है। पंचवर्षीय योजनाओं के आरंभ होने के समय भारत में भी विद्युत, परिवहन, संचार, सिंचाई आदि सुविधाओं की बहुत कमी थी। निजी उत्पादकों द्वारा इस प्रकार के संरचनात्मक आधार का निर्माण संभव नहीं है। सरकार के सहयोग से ही भारत में सार्वजनिक क्षेत्र ने एक सुदृढ़ आर्थिक संरचना का निर्माण किया है।
आर्थिक विकास का राष्ट्रीय आय से घनिष्ठ संबंध है। किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए राष्ट्रीय आय में वृद्धि आवश्यक है। राष्ट्रीय आय में वृद्धि उपभोग एवं विनियोग की वस्तुओं में होनेवाली वृद्धि का परिचायक है। उपभोग की वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ने से लोगों का जीवन-स्तर ऊँचा होता है। विनियोग की वस्तुएँ आर्थिक विकास की प्रक्रिया को तीव्र बनाने में सहायक होती हैं तथा इससे हमारी भावी उत्पादन क्षमता बढ़ती है। विकास का मूल उद्देश्य राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि द्वारा देश के नागरिकों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाना है। सामान्यतया, राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने पर देशवासियों की प्रतिव्यक्ति आय भी बढ़ती है। लेकिन, इसके लिए राष्ट्रीय आय का समुचित वितरण आवश्यक है। भारत में राष्ट्रीय आय का वितरण बहुत विषय है तथा इसका एक बड़ा भाग कुछ थोड़े-से व्यक्तियों के हाथ में केंद्रित है। इसके फलस्वरूप देश में व्यापक निर्धनता विद्यमान है तथा अधिकांश भारतवासियों का जीवन स्तर बहुत निम्न है। अतः, देश के सामान्य नागरिकों की औसत अथवा प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि के लिए राष्ट्रीय आय का समुचित वितरण आवश्यक है।

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