Class 10th Bharati Bhawan Political Science | Chapter 1 Long Answer Questions | जातीय, लैंगिक एवं साम्प्रदायिक विभेद लोकतांत्रिक राजनीति पर प्रभाव | कक्षा 10वीं भारती भवन राजनीतिशास्त्र | दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

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Class 10th Bharati Bhawan Political Science  Chapter 1 Long Answer Questions  जातीय, लैंगिक एवं साम्प्रदायिक विभेद लोकतांत्रिक राजनीति पर प्रभाव  कक्षा 10वीं भारती भवन राजनीतिशास्त्र  दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. स्वतंत्र भारत में नारियों की स्थिति में सुधार के लिए भारत सरकार उठाए गए कदमों का वर्णन करें।
उत्तर- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारियों के जीवन में एक नया जोड़ आया। लिंग समानता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भारतीय संविधान द्वारा उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार दिया गया है। लिंग के आधार पर भेदभाव कानून के समक्ष समानता, रोजगार के क्षेत्र में अवसर की समानता, वयस्क मताधिकार, समान कार्य हेतु समान वेतन आदि अधिकार महिलाओं को संविधान द्वारा निर्दिष्ट किए गए हैं।
विभिन्न सरकारों द्वारा भी समय-समय पर कानून बनाकर महिलाओं के जीवन- स्तर में सुधार लाने का प्रयास किया गया है। एक कानून बनाकर लड़कियों के विवाह की आयु कम से कम 18 वर्ष निश्चित कर दी गई है। इसी प्रकार, सरकार ने एक कानून बनाकर यह व्यवस्था कर दी है कि पति से अलग होने पर पत्नी और उसके आश्रित बच्चों को भरण-पोषण के लिए पति से एक निश्चित राशि पाने का अधिकार है। नारियों को भी विरासत में परिसंपत्ति पाने का अधिकार है।
सरकार की ओर से लड़कियों की शिक्षा के लिए भरपूर प्रयत्न किए जा रहे हैं। महिलाओं के जागरण के लिए बालिका विद्यालय, महिला शिल्प सदन, मातृसेवा सदन इत्यादि का संचालन बहुत सी गैर सरकारी संस्थाएँ भी कर रही हैं। शिक्षण संस्थानों में लड़कियों की संख्या और महिला शिक्षकों की संख्या में कई गुनी बढ़ोतरी हो गयी है। ऊँचे-ऊँचे पदों पर आज महिलाएँ भी आसीन हैं। वर्तमान में देश के राष्ट्रपति तथा लोकसभा अध्यक्ष के पद पर महिला ही आसीन हैं।
1953 में केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड का गठन किया गया, जिसने स्वयंसेवी संगठनों द्वारा महिलाओं के कल्याण के लिए कई कदम उठाए । विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में महिलाओं के कल्याण पर विशेष स्थान दिया गया। स्वरोजगारी महिलाओं की समस्याओं के अध्ययन के लिए श्रीमती इलाभट्ट की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आयोग का गठन फरवरी 1987 में किया गया। ग्रामीण महिला और शिशु विकास योजना (ड्वाकरा) 1982 में शुरू की गई जिसका उद्देश्य गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करनेवाली ग्रामीण महिलाओं के लिए स्वरोजगार का अवसर जुटाना है। अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष (1975) ने भारत की महिलाओं को प्राप्ति के पथ पर बढ़ने के लिए संबल दिया है।
महिलाओं ने सशक्तीकरण की दिशा में विभिन्न प्रयासों का ही फल है कि उनकी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति निरंतर सुधर रही है, परंतु राजनीतिक संविधान के 43वें एवं 74वें संशोधन द्वारा स्थिति अभी भी दयनीय बनी हुई है। देशभर में ग्रामीण एवं नगरीय पंचायतों के सभी स्तरों पर महिलाओं हेतु एक-तिहाई स्थान आरक्षित किए
2. लैंगिक विभेद का राजनीति पर पड़नेवाले प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर- लोकतंत्र में सत्ता में भागीदारी में किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। इस संदर्भ में महिलाओं और पुरुषों में भी भेदभाव किया जाना अनुचित है। सत्ता में सुनिश्चित भागीदारी ही महिलाओं को राजनीतिक रूप से सशक्त कर सकती है। परंतु दुःख की बात है कि राजनीति में आज भी महिलाओं की भूमिका बहुत सार्थक नहीं मानी जा सकती।
लैंगिक बिभेद का अर्थ है, समाज का लिंग (महिला तथा पुरुष) के आधार पर बँटवारा। आज संपूर्ण र समाज का लगभग 48% स्त्रियाँ हैं। प्रारंभ में उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त. परन्तु धीरे-धीरे उनकी दशा खराब होती चली गई।
लैंगिक विभेद के कारण आज विश्व भर में राजनीति में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कम है। अमेरिका में 20.2% यूरोप में 19.6 तथा दक्षिण एशिया में 11.7 प्रतिशत महिलाओं को प्रतिनिधित्व प्राप्त है।
भारत की लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग 11 प्रतिशत है तथा राज्यसभा में 9.3 प्रतिशत तथा राज्य विधानमंडलों में तो यह 4 प्रतिशत ही हैं वर्ष 2007 में पहली बार देश में कोई महिला राष्ट्रपति बनी और 2009 में पहली बार एक महिला लोकसभा की अध्यक्ष (स्पीकर) बनी। लैंगिक विभेद के कारण जो प्रतिनिधित्व की कमी होती है उससे उनके समस्याओं को बेहतर ढंग से रखा नहीं जा रहा है। आज भी 33% आरक्षण की माँग जारी है। जबतक लैंगिक आधार पर राजनैतिक भेदभाव जारी रहेगा महिलाएँ अपने आत्म सम्मान, स्वावलंबन एवं समस्याओं का हल प्राप्त नहीं कर पाएगी।
3. धार्मिक एवं सांप्रदायिक राजनीति के विकास में सहायक तत्वों का वर्णन 
उत्तर- लैंगिक विभाजन के अतिरिक्त सामाजिक विभेद का एक और प्रकार है वह है धार्मिक एवं सांप्रदायिक विभेद । धार्मिक विभेद के कारण ही विश्व में सांप्रदायिक विभेद भी देखने को मिलता है। इस विभेद का भी राजनीति से गहरा संबंध रहा है। आधुनिक युग में धर्म और राजनीि का संबंध संकीर्णता से परिपूर्ण है। धर्म की आड़ में राजनीति में घिनौना खेल खेला जाता है। कुछ राजनीतिक दलों का गठन भी किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है। धार्मिक आडंबर ने संप्रदायवाद का रूप ले लिया है। संप्रदायवाद की भावना के कारण विश्व कई देशों में गंदी राजनीति पनपने लगी है। सांप्रदायिकता धर्मनिरपेक्षता के मार्ग में सबसे ब बाधा है।
राजनीति में धर्म एक समस्या के रूप में तब खड़ी हो जाती है जब – 
(i) धर्म को राष्ट्रव आधार मान लिया जाता है।
(ii) राजनीति में धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय विशेष के विशिष्टता के लिए की जाती है 
(iii) राजनीति किसी धर्म विशेष के दावे का पक्षपोषण करने लगती है ।
(iv) किसी धर्म विशेष के अनुयायी दूसरे धर्मावलंबियों के खिलाफ मोर्चा खोलने लगता है। ऐसा तब होता है जब एक धर्म के विचारों को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ माना जाता है धार्मिक समूह अपनी मांगों को दूसरे समूह के विरोध में खड़ा करने लगता है। इस प्रक्रिया में राज्य अपनी सत्ता का उपयोग किसी एक धर्म विशेष के पक्ष में करने है तो समस्या और लगता गहरी हो जाती है तथा दो धार्मिक समुदाय में हिंसात्मक तनाव शुरू हो जाता है। राजनीति में धर्म को इस तरह इस्तेमाल करना ही सांप्रदायिकता है।
4. “भारत की राजनीति जातिवाद पर आघृत है।" वर्णन करें।
उत्तर- जातीय विभेद का भी राजनीति से गहरा संबंध स्थापित हो चुका है। स्वर्गीय बाबू जगजीवन राम का कहना सही है कि, “एक आदमी अपना सबकुछ छोड़ सकता है, परंतु वह जाति व्यवस्था में अपने विश्वास को तिलांजलि नहीं दे सकता।" राजनीति में जातीय विभेद की इतनी गहरी पैठ हो चुकी है कि “बेटी और वोट अपनी ही जाति को दो का प्रचलन हो गया भारत की राजनीति जातिवाद पर आधृत है इसके पक्ष में निम्नलिखित तथ्य दिए जा सकते हैं
1. विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा जाति के आधार पर उम्मीदवारों का चयन- चुनाव में विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों के लिए जब विभिन्न राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चयन करने लगते हैं तब सबसे अधिक इस बात का ध्यान रखते हैं कि उस विशेष निर्वाचन क्षेत्र में किस जाति का बहुमत है। अधिकांश राजनीतिक इस अपने उम्मीदवार का चयन करते समय उसी जाति के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाते हैं जिसकी जीत सुनिश्चित हो सके।
2. सरकार में विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व- भारत में चाहे केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार उनकी मंत्रिपरिषद में सभी जातियों की प्रतिनिधित्व देने की परंपरा भी स्थापित हो गई है। 
3. जातीय भावनाओं को उकसाने में राजनीतिक दलों की सक्रियता- भारत में ऐसे राजनीतिक दलों की कमी नहीं है जो जातीय भावनाओं को उकसाकर चुनाव में अपने उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित कर लेते हैं। कई राजनीतिक दल कुछ जातियों के समर्थन पर ही निर्भर रहते हैं इसके अतिरिक्त कमजोर जाति के लोगों की भी राजनीति में अभिरूचि काफी बढ़ी है। उ यह बात अब अच्छी तरह समझ में आई है कि वे अबतक कमजोर इस कारण रहे कि उन्हों राजनीति से अपने को दूर रखा। अतः हम कह सकते हैं कि भारत की राजनीति में जातिवाद का बोलवाला है।
5. भारत की राजनीति पर लैंगिक, धार्मिक सांप्रदायिक तथा जातीय विभेद के प्रभावों " वर्णन करें।
उत्तर- लैंगिक प्रभाव- लैंगिक विभेद का अर्थ है, समाज का लिंग (महिला तथा पुरुष ) ई आधार पर बँटवारा। आज समाज में लगभग 48% स्त्रियाँ है। प्रारंभ में उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त थे, परंतु धीरे-धीरे उनकी दशा खराब होती चली गई। लैंगिक विभेद के कारण आज विश्वभर में राजनीति में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कम है। अमेरिका में 20.2% यूरोप में 19.6 एशिया के देशों का “औसत मात्र 11.7% है। भारत में लोकसभा में सिर्फ 11%, राज्य सभा में 9.3% महिलाएँ हैं। भारत के राज्य विधानमंडलों में तो यह 4 प्रतिशत ही है। भारत के लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्र में संसद और राज्य विधानमंडलों में महिलाओं के सिर 33 प्रतिशत आरक्षण का वायदा किया है, परंतु यह विधेयक अभी संसद में लंबित है। इस तरह हम कह सकते हैं कि जबतक लैंगिक आधार पर राजनैतिक भेदभाव जारी रहेगा, स्त्रियाँ अपने आत्मसम्मान, स्वावलंबन एवं समस्याओं का हल प्राप्त नहीं कर पाएगी। 
धार्मिक एवं साम्प्रदायिक प्रभाव - भारत की राजनीति पर धार्मिक एवं साम्प्रदायिक प्रभाव भी देखने को मिलते हैं। आधुनिक युग में धर्म और राजनीति का गहरा संबंध है। धर्म की आड़ में राजनीति का घिनौना खेल खेला जा रहा है। कुछ राजनीतिक दलों का गठन भी किसी धर्म को बढ़ावा देने के लिए ही किया जाता रहा है। आर्थिक आडंवर ने ही संप्रदायवाद का ले लिया है। संप्रदायवाद की भावना के कारण विश्व के कई देशों में गंदी राजनीति पनपने है। राष्ट्रीय एकता तथा धर्मनिरपेक्षता के मार्ग में सांप्रदायिकता सबसे बड़ी बाधा है। के कारण ही भारत का विभाजन हुआ था।
जातीय विभेद का प्रभाव- लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति की भूमिका सदैव ही महत्वपूर्ण है। निर्वाचन की राजनीति में जाति की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। राजनीति में जाति का प्रभाव निम्नांकित रूप से देखने को मिलता है-
(i) राजनीतिक दल अपने-अपने जाति आधारित वोट बैंकों का स्थल रखते हुए उम्मीदवारों का चयन करते हैं।
(ii) सरकार बनाते समय भी सत्तारूढ़ दल अपने प्रांत या राष्ट्र के जाति आधारित प्रतिनिधित्व का पूरा स्थान रखते हैं।
(iii) राजनीति में जाति के प्रभाव के कारण ही पिछड़ी जाति के लोगों का राजनीति में काफी रूचि बढ़ती जा रही है। उनका मानना है कि बिना सत्ता हासिल किए हुए उनका कल्याण संभव नहीं है। 
(iv) राजनीतिक दल भी चुनावों के समय जाति आधारित भावनाओं को उकसाने का प्रयास करते हैं जिनसे उनकी पार्टी की ओर ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान आकर्षित हो और उनके दल को अधिक से अधिक वोटों की प्राप्ति हो।

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