1. लोकतंत्र में जनसंघर्ष की उपयोगिता पर प्रकाश डालें।
उत्तर - विभिन्न देशों में जनसंघर्ष की विवेचना से यह स्पष्ट है कि लोकतंत्र में इसकी अनेक उपयोगिताएँ हैं जिनमें कुछ निम्नलिखित महत्वपूर्ण उपयोगिता
i. लोकतंत्र के विस्तार में सहायक - जनसंघर्ष की सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि यह लोकतंत्र की स्थापना और उसकी वापसी में तो सहायक होता ही है, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में लोकतंत्र के विस्तार में भी सहायक होता है। जनसंघर्ष के माध्यम से लोकतंत्र ये भागीदारी प्राप्त करनेवालों को भी सफलता मिलती है। इससे लोकतंत्र का विस्तार होता है तथा लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत होती है।
ii. लामबंदी और संगठन को बल- जनसंघर्ष लोगों की लामबंदी और उन्हें संगठित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जनसंघर्ष की सफलता इसीपर निर्भर करती है ।
iii. विभिन्न संगठनों और राजनीतिक दलों को सक्रिय करने में सहायक- जनसंघर्ष होने पर विभिन्न संगठनों तथा राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ जाती है। अनेक दबाव एवं हित समूह इसमें सम्मिलित होकर जनसंघर्ष को सफल बना देते हैं।
2. नेपाल में लोकतंत्र की वापसी का सविस्तार वर्णन करें।
उत्तर- नेपाल में लोकतंत्र की वापसी के लिए व्यापक जनसंघर्ष हुआ । नेपाल में इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्व ही लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी। नेपाल के पूर्ववर्ती राजा वीरेन्द्र विक्रम सिंह ने नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के मार्ग प्रशस्त कर दिया था और स्वयं को औपचारिक रूप से राज्य का प्रधान बनाए रखा। परंतु दुर्भाग्यवश उनकी हत्या कर दी गई। ज्ञानेन्द्र नेपाल के नए राजा बने जिनका लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में विश्वास नहीं था। उन्होंने 2002 में संसद को भंगकर पूर्ण राजशाही की घोषणा कर दी। 2005 में राजा ज्ञानेंद्र ने जनता के द्वारा निर्वाचित सरकार को भंग करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री शेखबहादुर देउबा को अपदस्थ कर दिया। देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई। इतना ही नहीं अपने अधीन का गठन करते तीन वर्ष तक सभी अधिकार अपने हाथ में लेने की भी घोषणा कर दी।
राजा ज्ञानेन्द्र के इस फैसले के खिलाफ नेपाल में लोकतंत्र की वापसी के लिए देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने आपस में समझौता कर सात दलों के गठबंधन की स्थापना कर ली। आगे चलकर माओवादी आंदोलनकारी जो राजशाही के विरुद्ध पहले से सक्रिय थे इस गठबंधन में शामिल हो गए। नेपाल में लोकतंत्र की वहाली के लिए राजनीतिक शक्तियों के एकजुट हो जाने से जनता के बीच एक नया संदेश गया। जनता खुलकर लोकतंत्र की वापसी के लिए आंदोलन जो 6 अप्रैल 2006 से सात राजनीतिक दलों के गठबंधन द्वारा चलाया गया था के साथ जुड़ गई। इस प्रकार यह आंदोलन जनसंघर्ष में बदल गया। राजशाही के विरुद्ध जनता के आक्रोश के जनसैलाब के आगे राजशाही को झुकना पड़ा। 24 अप्रैल, 2006 के दिन नेपाल नरेश ज्ञानेन्द्र ने संसद को बहाल कर सत्ता सात राजनीतिक दलों के गठबंधन को सौंपने की घोषणा कर दी। इस प्रकार नेपाल में लोकतंत्र की वापसी के साथ जनसंघर्ष का अंत हो गया।
3. भारत में 1974 के संघर्ष का वर्णन करें।
उत्तर - जनसंघर्ष सिर्फ लोकतंत्र की स्थापना अथवा वापसी के लिए ही नहीं होता है, बल्कि एक लोकतांत्रिक और निर्वाचित सरकार को जनता की मांग मानने के लिए बाध्य करने के उद्देश्य से भी होता है। कुछ जनसंघर्ष ऐसे भी हैं जो एक निर्वाचित सरकार को बदलने के उद्देश्य से भी होते हैं। भारत में 1974 का जनसंघर्ष इसका ज्वलंत उदाहरण है। 1974 के जनसंघर्ष की पृष्ठभूमि बिहार में तत्कालीन सरकार के विरुद्ध छात्र आंदोलन से तैयार हुई। उसके बाद केन्द्र की काँग्रेसी सरकार की गलत नीतियों के कारण विभिन्न राजनीतिक दलों ने विकल्प की तलाश शुरू कर दी। 14 अप्रैल 1974 को दिल्ली में तत्काल कांग्रेस के बीजू पटनायक के निवास स्थान पर भारतीय क्रांति दल के चौधरी चरण सिंह की अध्यक्षता में आठ गैर-काँग्रेसी राजनीतिक दलों के विलय का निर्णय लिया गया। इसके ठीक एक दिन पहले 13 अप्रैल को दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में 'जनतंत्र समाज' का गठन किया गया जिसमें जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी की सक्रियता अधिक देखी गयी।
धीरे-धीरे तत्कालीन काँग्रेसी सरकार के विरुद्ध लोग संगठित होते गए और संपूर्ण देश में आंदोलन प्रारंभ हो गया। यह आंदोलन जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस आंदोलन को जनता का अपार समर्थन मिला। इस प्रकार इसने जनसंघर्ष का रूप धारण कर लिया। जनता पार्टी का गठन हुआ। आंदोलन को दबाने का भरसक प्रयास किया गया, परंतु यह जनसंघर्ष दबने की जगह उग्र रूप लेता गया। सरकार को राष्ट्रीय आपात की घोषणा करनी पड़ी। 1977 में देश में आम निर्वाचन हुआ तो जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला और केन्द्र में पहली बार मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व में गैर-काँग्रेसी सरकार का गठन हुआ।
4. जनसंघर्ष में राजनीतिक दलों एवं दबाव-समूहों की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर- लोकतंत्र में जनसंघर्ष तभी सफल होता है जब इसका संचालन किसी संगठन द्वारा किया जाता है। नेपाल में सात राजनीतिक दलों के गठबंधन तथा माओवादियों के सहयोग से जनसंघर्ष सफल हुआ। म्यांमार में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी नामक राजनीतिक दल की नेत्री आंग सान सूची के नेतृत्व में लोकतंत्र की वापसी का जनसंघर्ष जारी है। बोलिविया में फेडेकोर (FEDECOR) नामक संगठन के नेतृत्व में जनसंघर्ष चला जिसे किसानों, मजदूरों छात्र संघों और सोशलिस्ट पार्टी नामक राजनीतिक दल का भी समर्थन प्राप्त था। भारत में भी 1974 के जयप्रकाश नारायण के जन आंदोलन को छात्रों, वकीलों, शिक्षकों इत्यादि के संघों के समर्थन के साथ-साथ जनतंत्र समाज जैसी गैर-राजनीतिक संस्था एवं विभिन्न राजनीतिक दलों का भी समर्थन प्राप्त था। इससे यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न संगठनों अथवा विभिन्न वर्गों के संघों के माध्यम से आंदोलन करके सरकार को अपनी मांग मानने के लिए बाध्य किया जाता है। इसे दबाव-समूह के नाम से जाना जाता है। इन दबाव समूहों से जनसंघर्ष को तो सफल बनाया ही जाता है, नागरिकों की भी सत्ता में भागीदारी बढ़ जाती है।
दबाव समूहों की भूमिका भी जनसंघर्ष में काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। दबाव समूहों द्वारा ही सरकार की नीतियों को प्रभावित किया जाता है और जनता की माँगों को सरकार से मानने के लिए भी दबाव डाला जाता है। विभिन्न पेशे में लगे लोग जैसे वकील शिक्षक, डॉक्टर, अभियंता, सरकारी कर्मचारी अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए जब संघ बनाते हैं तो उसे हित-समूह कहा जाता है। जब ऐसे समूह द्वारा अपने पक्ष में सरकार को निर्णय करने के लिए बाह्य किया जाता है तब हित समूह दबाव समूह के रूप में कार्य करने लगते हैं। आधुनिक युग में राजनीतिक दल विभिन्न हितों का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ हो जाते हैं। अतः राजनीतिक दलों के साथ-साथ अनेक हित-समूहों का भी विकास हो जाता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि जनसंघर्ष में राजनीतिक दलों के साथ-साथ दबाव-समूहों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है।
5. भारत में हित समूहों का विवेचन करें।
उत्तर- हित समूह व्यक्तियों के वैसे समूह को कहा जाता है जो किसी विशेष लाभ के लिए आपस में बँधे होते हैं। शिक्षक संघ, छात्र संघ, कर्मचारी संघ, मजदूर संघ, दुकानदार संघ, डॉक्टर संघ, वकील संघ आदि ऐसे हित समूह हैं जो अपने वर्ग के लोगों के हितों के लिए संघर्षरत रहते हैं। वे सरकार पर अपने वर्ग के हितों के अनुरूप निर्णय लेने के लिए दबाव डालते हैं।
भारत में भी विभिन्न हित-समूहों का विकास तेजी से हो रहा है। इनको मुख्यतः दो भागों में बाँटा जाता है— परंपरागत हित समूह एवं आधुनिक हित समूह परंपरागत हित समूहों में वैसे समूहों के नाम आते हैं जिनका संगठन जाति, धर्म तथा समुदाय विशेष के हितों की पूर्ति के लिए किया जाता है। ऐसे हित समूहों में विभिन्न जातियों के संगठन, धर्म एवं संप्रदाय के आधार पर गठित संघ, जैसे विश्व हिन्दू परिषद, जमायते इस्लाम, अकाली दल, परिगणित जाति संघ, कायस्थ सभा, पारसी सम्मेलन, ईसाई सभा आदि आते हैं। आधुनिक हित-समूह में व्यापारिक एवं औद्योगिक हित समूह, मजदूर संघ, किसान संगठन विद्यार्थी परिषद, महिला उत्थान मंच, प्रशासनिक कर्मचारी संघ तथा अन्य 'शिक्षित वर्ग के संघ जाते हैं।
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